रचनाकार के अन्दर धधकती संवेदना को पाठक के पास और पाठक की अनुभूति की गरमी को रचनाकार के पास पहुँचाना आँच का उद्धेश्य है। अब आंच पहुँच चुकी है, समीक्षक श्री होमनिधि शर्मा तक। देखिये शर्मा जी की आंच पर "बुढ़ापा" कैसे उतरता है। मनोज ब्लाग के आरंभ से अब तक बहुत कुछ बेहतरीन, स्तरीय और ज्ञानवर्द्धक सामग्री हमें पढ़ने मिली है. जहॉं तक लघुकथा का प्रश्न है यह कैसी होती है और क्या होती है जैसे प्रश्न प्रतिक्रिया और फोन के माध्यम से चर्चा में थे. आज जैसे ही 'बुढ़ापा' लघुकथा मनोज कुमार जी की पढ़ी, लगा मनोज जी और परशुराम राय जी के आदेश का पालन करते हुए ऑंच में हाथ धर दूँ।
इससे पहले मैंने अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं विशेषकर मनोजकुमार, परशुराम राय और हरीशप्रकाश गुप्त के लेखन को लेकर. विशेषकर 'ब्लेसिंग' और 'रो मत मिक्की' इन दो लघुकथाओं पर काफी प्रतिक्रियाएं भी प्राप्त हुईं. परन्तु 'ब्लेसिंग' मेरे विचार से अबतक एक अच्छा उदाहरण थी लघुकथा की. लेकिन, 'बुढ़ापा' पढ़ने के बाद यह क्या होती है और कैसे होती है, प्रश्न खत्म हो जाते हैं।
विषय, पात्र, शैली और प्रस्तुति की दृष्टि से एकदम गुँथीहुई, अर्थ से लबरेज़, मर्मस्पर्शी, बोधगम्य और शिक्षाप्रद कथा. यह एक 'क्लासिक एक्साम्पल' हो सकता है लघुकथा का।
कथा पढ़कर स्पष्ट है कि कथालेखन से पूर्व लेखक के मन और मस्तिष्क में कई ड्राफ्ट फ्रेम बने और जब यह अंतिम रूप में सामने आई तो इसकी शुरूआत से लगता है कि जैसे यह गुलज़ार या श्याम बेनेगल की किसी बेहतरीन हिन्दी फिल्म का पहला दृश्य हो. इसे लिखा नहीं रचा गया है. पूरी कथा में प्रस्तुति बिम्बाम्बत्मक है. कमाल यह है कि किसी पात्र का नाम नहीं है और पढ़ते हुए इसकी कहीं कमी नहीं खलती. बिना पात्रों के नाम दिए कथा लिखना यह लेखक की वैचारिक गहराई और कलात्मकता का परिचायक है. अधिकतर रचनाएं पात्रों के नाम से प्रचलित और अमर होती हैं जैसे गोदान उपन्यास का 'होरी'. पर, बिना पात्र का नाम लिए रचना प्रचलित हो पाए यह लेखन और कथ्य का निकष है।
इस कथा में समाज के चार ऐसे जिन्दा चरित्र हैं जो हर मोड़ पर दिखाई पडते हैं. बुढ़िया (मॉं, दादी, नानी आदि के रूप में) याने एक बेकार व लाचार बोझ भरी औरत जिसकी किसीको आवश्यकता नहीं होती. अल्हड़ नवयुवक जो सामान्यत: अक्सर बड़ों के साथ अशिष्टता से पेश आते देखे जा सकते हैं. दूसरी ओर आज के वक्त के मुताबिक डाक्टरी पढ़ी बेटी और आई ए एस बेटा जो स्वयं तो युवा, शिक्षित, प्रतिष्ठित और संपन्न हैं पर संस्कारी व जिम्मेदार भी हैं. इनका उस नवयुवक के साथ गाली देने पर विनयशीलता से पेश आना उसकी मानसिक स्थिरता और सिचुएशन हैंडलिंग को दर्शाता है कि है कि एक आई ए एस अधिकारी केवल शिक्षित नहीं होता अपितु जीवन व्यवहार में उस ज्ञान को शामिल भी करता है. अंत में उसके द्वारा कहा गया वाक्य किसी मार और श्राप से बढ़कर है।
'युवक बोला,“भाई थोड़ा संयम रखो। इस बुढि़या को ही देखो IAS बेटा और डॉक्टर बेटी है। पर बेटे का प्रशासनिक अनुभव और बेटी की चिकित्सकीय दक्षता भी इसे बूढ़ी होने से रोक नहीं सका। और वह नालायक संतान हम ही हैं। पर भाई मेरे - बुढ़ापा तुम्हारी जिंदगी में न आए इसका उपाय कर लेना।”
यदि बुढ़ों का और बुढ़ापे का आदर क्या होता है कोई पूछे तो उसे यह कथा सुना देना काफी होगा।
कथा के कुछ और भी पहलू हैं जिसे पढ़कर आनंद लिया जा सकता है. कुल मिलाकर एक बेहतरीन लघुकथा मनोज जी ने लिखी है जिसके लिए वे बधाई के हक़दार हैं।
-- होमनिधि शर्मा
इससे पहले मैंने अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं विशेषकर मनोजकुमार, परशुराम राय और हरीशप्रकाश गुप्त के लेखन को लेकर. विशेषकर 'ब्लेसिंग' और 'रो मत मिक्की' इन दो लघुकथाओं पर काफी प्रतिक्रियाएं भी प्राप्त हुईं. परन्तु 'ब्लेसिंग' मेरे विचार से अबतक एक अच्छा उदाहरण थी लघुकथा की. लेकिन, 'बुढ़ापा' पढ़ने के बाद यह क्या होती है और कैसे होती है, प्रश्न खत्म हो जाते हैं।
विषय, पात्र, शैली और प्रस्तुति की दृष्टि से एकदम गुँथीहुई, अर्थ से लबरेज़, मर्मस्पर्शी, बोधगम्य और शिक्षाप्रद कथा. यह एक 'क्लासिक एक्साम्पल' हो सकता है लघुकथा का।
कथा पढ़कर स्पष्ट है कि कथालेखन से पूर्व लेखक के मन और मस्तिष्क में कई ड्राफ्ट फ्रेम बने और जब यह अंतिम रूप में सामने आई तो इसकी शुरूआत से लगता है कि जैसे यह गुलज़ार या श्याम बेनेगल की किसी बेहतरीन हिन्दी फिल्म का पहला दृश्य हो. इसे लिखा नहीं रचा गया है. पूरी कथा में प्रस्तुति बिम्बाम्बत्मक है. कमाल यह है कि किसी पात्र का नाम नहीं है और पढ़ते हुए इसकी कहीं कमी नहीं खलती. बिना पात्रों के नाम दिए कथा लिखना यह लेखक की वैचारिक गहराई और कलात्मकता का परिचायक है. अधिकतर रचनाएं पात्रों के नाम से प्रचलित और अमर होती हैं जैसे गोदान उपन्यास का 'होरी'. पर, बिना पात्र का नाम लिए रचना प्रचलित हो पाए यह लेखन और कथ्य का निकष है।
इस कथा में समाज के चार ऐसे जिन्दा चरित्र हैं जो हर मोड़ पर दिखाई पडते हैं. बुढ़िया (मॉं, दादी, नानी आदि के रूप में) याने एक बेकार व लाचार बोझ भरी औरत जिसकी किसीको आवश्यकता नहीं होती. अल्हड़ नवयुवक जो सामान्यत: अक्सर बड़ों के साथ अशिष्टता से पेश आते देखे जा सकते हैं. दूसरी ओर आज के वक्त के मुताबिक डाक्टरी पढ़ी बेटी और आई ए एस बेटा जो स्वयं तो युवा, शिक्षित, प्रतिष्ठित और संपन्न हैं पर संस्कारी व जिम्मेदार भी हैं. इनका उस नवयुवक के साथ गाली देने पर विनयशीलता से पेश आना उसकी मानसिक स्थिरता और सिचुएशन हैंडलिंग को दर्शाता है कि है कि एक आई ए एस अधिकारी केवल शिक्षित नहीं होता अपितु जीवन व्यवहार में उस ज्ञान को शामिल भी करता है. अंत में उसके द्वारा कहा गया वाक्य किसी मार और श्राप से बढ़कर है।
'युवक बोला,“भाई थोड़ा संयम रखो। इस बुढि़या को ही देखो IAS बेटा और डॉक्टर बेटी है। पर बेटे का प्रशासनिक अनुभव और बेटी की चिकित्सकीय दक्षता भी इसे बूढ़ी होने से रोक नहीं सका। और वह नालायक संतान हम ही हैं। पर भाई मेरे - बुढ़ापा तुम्हारी जिंदगी में न आए इसका उपाय कर लेना।”
यदि बुढ़ों का और बुढ़ापे का आदर क्या होता है कोई पूछे तो उसे यह कथा सुना देना काफी होगा।
कथा के कुछ और भी पहलू हैं जिसे पढ़कर आनंद लिया जा सकता है. कुल मिलाकर एक बेहतरीन लघुकथा मनोज जी ने लिखी है जिसके लिए वे बधाई के हक़दार हैं।
-- होमनिधि शर्मा
Is sameeksha ko padhne ke bad ye laghukatha aur b ache se samjh me aa gai...Manoj ji to badhai ke hakdar hai he sath he Inni achi sameeksha b kabile tarif hai... Sharma ji ap b badhai ke hakdar hain...
जवाब देंहटाएंAp dono ko is shandar dumdar prastuti ke liye meri aur se bahoooooot bahooooooot badhai... :)
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जवाब देंहटाएंJindagi bhar jis aulad ke liye mar khapte hai maa-baap unka kuch ban jane par budhape mein bura bartav aaj ke jatil samasya ban gayee hai... Shikshaprad Laghu katha ke sundar partutikarn aur utni hi achhi sameeksha ke liye bahut dhanyavaad.....
जवाब देंहटाएंहोमनिधि जी मेरे पास शब्द नहीं हैं आपका आभार प्रकट करने के लिये। एक, आपने हमारे ब्लॉग पर सक्रिय भूमिका निभाई, दूसरे इस लघु कथा के पीछे मेरी सोच को बिल्कुल सही पकड़ा, और तीसरे इतने भावुक शब्दों में इसे प्रस्तुत किया कि मेरी आँखों मे आँसू आ गये।
जवाब देंहटाएंभविष्य में भी आपके योगदान की प्रतीक्षा रहेगी।
सादर आभिवादन!
ek achchi seekh de gayi laghu katha, badhai sweekar karen.
जवाब देंहटाएंआपकी लघुकथाओं का अंदाज़ निराला होता है!
जवाब देंहटाएंbahut bahut badhaee prastuti aur vishleshan kee.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंयह समीक्षा विषय को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करती है ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे ढंग से आपने लघु कथा बुढापा की समीक्षा प्रस्तुत की है। सरल शब्दों में कथा के विभिन्न बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है। मुझे व्यक्तिगत रूप से काफी खुशी है कि आपने मेरे निवेदन को स्वीकार किया और आंच की प्रस्तुति की। आपका आभार! हां इस समीक्षा में कथा के शिल्प पर भी चर्चा होती तो अच्छा था।
जवाब देंहटाएंकथा की समापक पंक्ति - पर भाई मेरे, बुढ़ापा तुम्हारी जिंदगी में न आए इसका उपाय कर लेना। - लाजवाब है। पूरा संदेश इसी में निहित है। छोटी सी पर व्यापक व गहरे संदेश वाली लघुकथा है यह। लेकिन युवा पात्र नालायक क्यों हैं इसकी तर्कसंगति नहीं दिखती। न ही इस पर आँच में चर्चा की गई है। आँच में भाव पक्ष के साथ साथ कला पक्ष तथा इस विंदु पर भी प्रकाश डाला गया होता तो अधिक अच्छा रहता। तथापि ब्लाग पर आने के लिए तथा इस आँच के लिए शर्माजी को धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंलघुकथा पर बेहतरीन प्रस्तुति. वैसे भी आजकल यह लघु विधा काफी दीर्घ हो गई है.
जवाब देंहटाएं_________
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