बरसात का एक दिन - आ. परशुराम राय |
रचनाकार के अन्दर धधकती संवेदना को पाठक के पास और पाठक की अनुभूति की गरमी को रचनाकार के पास पहुँचाना आँच का उद्धेश्य है। देखिये राय जी की आंच पर "बरसात का एक दिन" कैसे उतरता है।
बरसात का एक दिन कहानी पिछले दिनों इस ब्लाग पर आयी थी। इस पर लोगों की चटखारे भरी प्रतिक्रियाएं देखने को मिली। श्री करण समस्तीपुरी ने अपनी प्रतिक्रिया में जिज्ञासा व्यक्त की थी कि मैं इस पर समीक्षा लिखूं। मेरे मन में समीक्षा लिखने की बरबस उत्कंठा हुई। अतएव इस लघुकथा को समीक्षा के आइने में देखने की कोशिश है आंच का यह अंक।
संस्मरणात्मक शैली में लिखी गई लघुकथा लोगों को काफी रोचक लगी, जैसा कि प्रतिक्रियाओं से पता चलता है। कथा में प्रारंभ, विकास, चरमोत्कर्ष और अंत बड़े ही स्वाभाविक रूप में अभिव्यक्त हुए है। वर्षा का प्रारंभ और छाता खोलकर भींगने से बचाव करते हुए फुटपाथ तक पहुंचने से कथा का प्रारंभ होता है, लड़की के आगमन से कथा विकास की ओर उन्मुख होती है, सिनेमाहॉल के पास लड़की का अपने साथी लड़के से मिलन कथा का चरमोत्कर्ष है और लड़की द्वारा “थैंक्यू दादा” के साथ कथा अन्त में विसर्जित हो जाती है। लघुकथा का पूरा घटनाक्रम 10 से 15 मिनट की अवधि में ही घटित हुआ है। पात्रों की संख्या देखी जाए तो चार हैं मुख्य पात्र (मैं), लड़की, लड़का और चौथे में पूरी भीड़। संवाद बड़े ही छोटे-छोटे चुटीले और सम्प्रेषण से पूरिपूर्ण। अतएव कुल मिलाकर यह लघुकथा के मानदण्डों पर पूरी तरह खरी उतरती है। कथा आद्योपरान्त रोचक और प्रांज्जल है। लेखक द्वारा प्रयुक्त शब्द योजना भाषा में ताजगी पैदा करने में पूर्णरूपेण सक्षम दिखती है, कुछ स्थानों को छोड़कर जहां खब्दों को हेर-फेर कर पुनरावृत्ति द्वारा चमत्कार उत्पन्न करने का प्रयास किया है, विशेषकर अनुच्छेद संख्या – 09 में। आंखें का शिफ्ट होना, प्रयोग पाठक को चमत्कृत करता है। इस कथा के माध्यम से दिए गए संदेश के लिए इस लघुकथा को पूरी तरह छानना पड़ा इसके बाद जो बचा वह है नारी के प्रति पुरूषों की मानसिकता का स्वरूप, जिसे लेखक ने बड़ी ही कोमलता से व्यंजित किया है। वैसे फ्रायड की माने तो विषमलिंगी आकर्षण स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया माना जाता है। यहां लेखक ने बड़े संयम से कथा में भीड़ में उपस्थित पुरूषों की मानसिकता को स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया और मानसिक विकार के मध्य में रखा है।
साहित्य शास्त्र की दृष्टि से इस लघुकथा में श्रृंगार जनित रसाभास है जिसका पाठक आस्वादन करता है। यहां रस और रसाभास में अन्तर करना आवश्यक । जहां स्वकीया [अपने पुरुष से प्रेम करने वाली स्त्री ] के साथ श्रृंगार का वर्णन हो, वहां श्रृंगार रस होता है और जहां परकीया [परपुरुष से प्रेम करने वाली स्त्री] के साथ श्रृंगार वर्णन हो वहाँ श्रृंगार रसाभास। इस दृष्टि से इसे उत्तम कोटि की रचना नहीं मान सकते। वैसे अद्वैत दर्शन के अनुसार माया की मृग-मरीचिका के सुख के आभास से ही हम परिचित है। इसमें हम जितने सुख का अनुभव करते हैं उसके सम्मुख अद्वैत सुख मात्र कल्पना से परे और असंभव लगता है । किंतु रस और रसाभास दोनों के आस्वादन से हम परिचित हैं । फिर भी देखा गया है कि रसाभास का अनुभव हमें रस से अधिक उत्तेजित करता है । फिर भी साहित्य शास्त्र इसे रस से नीचे की श्रेणी में रखता है । क्योंकि मनोविकार को स्वाभाविकता का जामा नहीं पहनाया जा सकता । ठीक उसी प्रकार जैसे अनैतिकता से चाहे कितना ही लाभ क्यों न हो, उसे नैतिकता के समतुल्य नहीं माना जा सकता।
कुल मिलाकर कथा रोचक और पाठकों का मनोरंजन करने में सक्षम रही है। मैं भी इससे अलग नहीं हूँ। श्री करण समस्तीपुरी को धन्यवाद के साथ मैं इस प्रकरण को विराम देताहूँ ।
...बहुत अच्छा लिखा है आपने धन्यवाद! इस पोस्ट के लिए ... आगे भी लिखते रहे
जवाब देंहटाएंgood evening
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर समीक्षा लगी जी, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा। आभार!
जवाब देंहटाएं... अदभुत, बिलकुल सत्य घटना थी .... आज भी मुझे याद आ रहा है कि ... दादा छाते को हाथ में पकडकर भीगते चले गये थे !!!
जवाब देंहटाएंdhanyvad..!
जवाब देंहटाएंसच कहते हैं राय जी आप. लोगों को रसाभास में ही अधिक आनन्द का अनुभव होता है या यों कहें कि अधिक मजा आता है.
जवाब देंहटाएंयह हास्य रचना ही तो है. इसे संस्मरण कहना उपयुक्त नहीं होगा. हाँ, किसी घटना से प्रेरित अवश्य हो सकती है. मैं का मतलब मुख्य चरित्र से है न कि रचनाकार स्वयं है.
एक अच्छी हास्य रचना के लिए आपको धन्यवाद.
कथा के इतने सूक्ष्म विवेचन के लिए राय जी को कोटिशः धन्यवाद. कथा की अंतर्वस्तु बहुत अद्भुत नहीं थी किन्तु भाषा और शिल्प में एक ताजगी सा लग रहा था... फिर पाठकों की चंचल प्रतिक्रियाएं ..... मुझे लगा कि इस कथा का आत्मोद्घातन श्रद्धेय राय जी की शास्त्रीय कसौटी पर उतरे बिना नहीं हो सकता.... !! वस्तुतः प्रथमपुरुष में लिखी गयी कथा को शब्दों की जादूगिरी ने इतना जीवंत बना दिया था कि चटखारों के बीच कथा की आत्मा दबी जा रही थी...... !!! राय जी ने तिल-तंडुल न्याय कर दिया !!! लेखा तो बधाई के पात्र हैं ही इतने सुन्दर और सुगम विवेचन के लिए राय जी का भी आभार !!!!
जवाब देंहटाएंसमीक्षा से रचना के हर कोण का पता चलता है....अच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सटीक. शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत अच्छी समीक्षा।
जवाब देंहटाएंक्या कहने साहब
जवाब देंहटाएंजबाब नहीं
प्रसंशनीय प्रस्तुति
satguru-satykikhoj.blogspot.com
Samiksha achi lagi.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर समीक्षा लिखा है आपने जो प्रशंग्सनीय है! बढ़िया लगा!
जवाब देंहटाएंब्लाग पर पहली बार यूँ किसी ब्लाग पर छपी कहानी की समीक्षा पढ़ कर अच्छा लग रहा है । समीक्षा शास्त्रीय ढ़ँग से की गई है और कथा के कई पहलुओं पर प्रकाश डालने की कोशिश हुई है । सराहनीय प्रयास ।
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