गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

आंच पर ‘फिदायीन’

आंच-12

-हरीशप्रकाश गुप्त

संजय पुरोहित की यह कहानी फिदायीन’ ‘सृजन गाथा’ ब्लाग पर 01 अप्रैल 2010 को पोस्ट की गई थी। आज की आंच में इसी ‘फिदायीन’कहानी पर चर्चा की जा रही है।

‘फिदायीन’ कहानी में संजय पुरोहित ने विषय के लिए जो परिवेश चुना है, वह है आतंकवाद। कहानी प्रारम्भ से वही पृष्ठभूमि निर्मित करती है। कहानी का मुख्य पात्र शुभेन्दु एक निर्भीक और साहसी पत्रकार है, जिसने जनता को सच दिखलाने की इच्छा अपने मन-मस्तिष्क में जुनून के स्तर तक पोषित कर रखी है और इसके लिए उसे बड़ा से बड़ा जोखिम तक उठाने मे तनिक भी डर नहीं लगता। बल्कि अपने उद्देश्य में सफल होने पर उसे हर्ष की अनुभूति होती है, भले ही जान जाने तक का जोखिम ही क्यों न हो। उसके इसी चरित्र के कारण उसके साथियों ने उसे ‘फिदायीन’ उपनाम दे रखा है और उसे यह सहज स्वीकार्य भी है। उसका उद्देश्य भावनाजन्य है। इसके विपरीत, चैनल का अभिप्रेत टीआरपी हासिल करना है। निहायत वस्तुवादी, भावनाशून्य। उत्पादन, उपभोक्ता और सेल्समैन के सम्बंधों के त्रिकोण के सांचे में फंसा सेल्स मैन (पत्रकार) चैनल के लिए एक कोमोडिटी से अधिक नहीं है। तभी तो, गोली लगने के बाद लटकी गरदन का सीधा प्रसारण दिखाकर लोगों को उत्तेजित करते हुए खबर के रोमांच की पराकाष्ठा पर टीआरपी की रेटिंग बढ़ाना चैनल की प्राथमिकता है, न कि मानवीय संवेदना के मूल्यों की रक्षा करते हुए उपचार कराने के प्रति प्रेरित होना। इससे न तो टीआरपी बढेंगी और न ही अर्थिक लाभ होगा। लोग केवल सहानुभूति दर्शाएंगे और चैनल बदल देंगे।

संजय के मन-मस्तिष्क में कहानी का प्लाट (कथानक) तो मौजूद है और उन्होने इसे कथा रुप देने का यथा सम्भव प्रयास भी किया है। कहानी के अंत तक आते-आते वे कथा का संदेश देने में सफल भी हुए हैं और यह अंत ही कहानी का सबसे प्रभावशाली भाग है। हांलाकि इसमें भी‘शुभेन्द्रु ने दर्शकों को........... मिट्टी मे मिलने लगी।” पंक्तियों में पुर्वोक्तियों से सामंजस्य का थोड़ा अभाव है तथापि, इस अंतिम भाग का शिल्प और भाषा शेष भाग से श्रेष्ठ है।

कहानी अपने विकास के दौरान मुख्य दिशा से थोड़ा भटकती जरूर है लेकिन अन्त तक आते-आते सन्देशोन्मुख हो जाती है। कहानी भाषा और शिल्प की कसौटी पर सामान्य है और कहीं-कहीं काफ़ी अच्तोछी है।

“विपक्षी दलों के पूरक.....” की उपमा व्यंग्य रचना में तो दी जा सकती है लेकिन करुणामूलक स्थितियों में यह उपमा असंगत है। इसी पैरा में “जन्नत तक पहुँचने की गारन्टी देकर मासूम बच्चों और किशोरों के कोरे कागज के समान मस्तिष्क में ये उकेर देते हैं- घृणा, विद्वेष और आतंक”- यहाँ लेखक के शब्द जाल में आकर्षण तो है किन्तु अभिव्यक्ति में अस्वाभाविकता आ गई है।

कथा में “बेहाल” से ‘एक जवान के मरने का मतलब है भारत के सुदूर गाँव में एक घर के अनाथ होने, अर्थ संकट और दुःखों का पहाड़ टूट पड़ने’ जैसी स्थिति की व्यंजना पूर्णतया मुखरित नहीं हो पाई है, अन्यथा यह पाठक पर और तीव्र प्रभाव छोड़ती । कहानी में इतर-भाषा के प्रचलित शब्दों का व्यापक प्रयोग हुआ है और अधिकांश प्रयोग सटीक है लेकिन “कवरेज करने” जैसे प्रयोग दोषपूर्ण क्रिया प्रयोग हैं। यदि यहां अभिव्यक्ति के लिए अंग्रेजी प्रयोग आवश्यक ही था तो हिन्दी के अनुरुप “कवर करने के लिए” अथवा ‘कवरेज के लिए’ होना चाहिए था।

कुल मिला कर पुरोहितजी के 'फिदायीन' को सामान्य शिल्प की एक भावपूर्ण कथा कहा जा सकता है !

10 टिप्‍पणियां:

  1. समीक्षा/विश्लेशण अच्छा लगा. शुभकामनायें.

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  2. “बेहाल” से ‘एक जवान के मरने का मतलब है भारत के सुदूर गाँव में एक घर के अनाथ होने, अर्थ संकट और दुःखों का पहाड़ टूट पड़ने’

    ......काश! इस तरह के कृत्य करने वालों को यह बात समझ में आ पाती.....
    बहुत गहराई से लिखा संवेदनपूर्ण आलेख ...

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  3. मैं श्री हरीश प्रकाश जी की समीक्षा के लिए आभार प्रकट करना चाहूंगा...आपके सुझावों और सुधी पाठकों की प्रतिक्रिया के लिए भी आभार.

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