बुधवार, 7 अप्रैल 2010

देसिल बयना 25 : न तोको ना मोको .....

-- करण समस्तीपुरी
अरे बाप रे बाप........ उ दिन जे बघुअरा वाली और चमनपुर वाली के बीच 'महाभारत' हो रहा था..... ! ऊँह पूछिये मत। केतना दिन बाद ऐसन-ऐसन आशीर्वाद सुने कि मन तृप्त हो गया। अब आप पूछेंगे कि ये बघुअरा वाली कौन है ? अरे उका पहिचाने नहीं... ? वही चमनपुर वाली की परोसन। धत तेरे की.... अब ये चमनपुर वाली कौन है ? अरे महराज कहा तो.... बघुअरा वाली की परोसन.... ? अब आपको लग रहा होगा कि ई दोनों कौन है.... ? अरे साहेब ! ई में भी कौनो मेथमेटिस (मैथमेटिक्स) है.... दोनों अरोसन-परोसन हैं ! हा.... हा... हा.... !! देखे कैसन मजेदार चुट्कुल्ला कहे हम.... लेकिन उ दिनका कहानियों कौनो कम मजेदार नहीं है।
अरे हम झींगुर दास के साथ पैतैली पेठिया (हाट) से बैल बेच के आ रहे थे। जैसे ही काली थान से आगे बढे की खूब जोरगर चख-चुख सुनाई दिया। देखे छोटगर भीर भी जुट गयी थी। उ बीच में पियरका सारी के अंचरा को डाँर में घुमा कर बांधी हुई चमनपुर वाली सो चमक रही थी कि का बताएं.... ! वैसने उ की गोतनी (देवरानी/जेठानी) थी, बघुअरा वाली। चमनपुर वाली चमके तो ई के मुँह से भी सिनेह का लरी फूट पड़े। चमनपुर वाली चमक के ई कोना से उ कोना एक कर रही थी तो बघुअरा वाली का हाथे काफे था। ऐसे चमकाए कि मुँह के बोल को हरियर-पियर चूरी का ताल मिल जाए। भीर कभी इसकी बात पर हंस पड़े तो कभी उसकी बात पर समझाए। गाँव में ई दिरिस हर-हमेशा देखने को मिल जाता है मगर ई दुन्नु दियादिनी (देवरानी/जेठानी) के मधुर संवाद का तो बाते कुछ और है........ ! एकदम समझिये कि सुर-ताल से सजा। ई कहे मैय्याखौकी तो उ कहे भैय्याखौकी... !
ऊपर से तो हा-हा करें मगर ई सब सुनके अन्दर से हमरा मन भी परफुल्लित हो जाता था। हम हिम्मत कर के अखारा के में घुस गए। हमको देखते ही चमनपुर वाली चमक के आय गयी और हमरे दुन्नु हाथ पकड़ के लगी परचारे, "देखिये बौआ ! हमरे केलबन्नी ! हमरे केला का घौंद !! और ई छुछिया.... ! लुत्तिलगौनी..... बेइमनठी काट के रख लिहिस।" हमरी दिरिष्टि बघुअरा वाली पर पड़े कि उ से पहिलही उ का इस्पिकर चालु हो गया। हाथ को उल्टा चमका-चमका कहे लगी, "हाँ ! यही तो एगो छुलाछन (सुलक्षण) है। हरजाई कहीं की..... ! इतना ही गौरव है तो अपने जमीन में काहे नहीं रखी केला के बीट।" बघुअरा वाली चना के तरह फरफरा ही रही थी कि चमनपुर वाली तीसी की तरह चनचना उठी।
अब का करें... मजा तो हमको ई में रानी सुरुंगा के खेल से भी जादे आ रहा था। मगर गाँव-घर का लिहाज। लोग-वाग एगो हमरे तो पढ़ल-लिखल बुधियार समझते हैं। मामला का तहकीकात कर दुन्नु के मरद को तलब किये। चमनपुर वाली के मरद फुलचन गए हुए थे कुटमैती। बघुअरा वाली का मरद रूपचन तास का खेल छोड़ कर आया। अब हम, झींगुर दास, बदरू झा, फजले मियाँ सब इधर बात ही कर रहे थे कि कि उधर फेर एक तोर शुरू हो गया। चमनपुर वाली कहे शौखजरौनी ! तेरे जुआनी में लुत्ती लगा देंगे.... तो बघुअरा वाली भी कहाँ कम.... उ कहे तोरे धन में बज्जर गिरा देंगे। इसी पर बदरू झा डपटे दुन्नु को, "धत ! तोरी जात के मच्छर काटे ! लाज-शर्म नहीं है तुम दोनों जनानी को का ? अरे इधर मरद-मानुस बात करिए रहे हैं न.... ममला सुलझाना है कि कपरफोरी करना है.... ! तभी से कें...कें.... कें.... कें.... गाली-गलौज करे जा रही है।" बदरू झा के बोली में अभियो सरपंची रोआब था। दुन्नु चुप हुई। तब हमलोग विस्तार से माजरा समझे।
उ का था कि फुलचन और रूपचन दुन्नु भाइये थे। फुलचन का केला का पौधा गिर गया था रूपचन के मटर खेत में। रूपचन की जनानी घौंद काट के ले आयी। दुन्नु घर में वैसेही बहुत प्रेम था। ऊपर से मालभोग केला के घौंद और रस बढ़ा दिया। बस होय गया मंगल के दंगल हनुमान जी के नाम लेके। रूपचनमा कहे कि पहिले से केला के बीट हटाने कहे तो हटाये नहीं.... हमरे धुर भर का मटर बर्बाद हो गया.... तो हम केला कैसे दे दें..... ! उधर चमनपुर वाली कहे कि हम छोड़ेंगे नहीं !
हमलोग बड़ी जतन से रूपचनमा को समझाए। कहे, "अरे जैसे तू... वैसे फुलचन... ! दोनों घर तो एक्के है। तू भी खाओ... तेरा भाई-भतीजा भी खायेगा। आधा घौंद केला इसे भी दे देओ।" रूपचनमा तैयार होय गया। हमलोग के सामने ही कचिया हांसू से बराबर दो भाग काट दिया। तब झींगुर दास पुकार के कहिस, "हे चमनपुर वाली कनिया ! सुनो ! केला तेरा ही सही... मगर ई के खेत में गिरा तो मटर तो बर्बाद होइए गया। काट कर ले आया तो कौनो बात नहीं.... जैसा तेरा बाल-बच्चा, वैसा इसका। दुन्नु आदमी आधा-आधा ले लेओ !"
लेकिन भलाई की दुनिया नहीं। चमनपुर वाली लगी फिर चनचनाये। हमरे केला हम आधा काहे लेंगे.... ? लबरा पंच सब ! मुँह देख के पंचैती करता है.... लेओ भैय्या ! अब हमरे लोग पर ही उखर गयी। उधर बघुअरा वाली भी बगहा रही थी, "एक्को छीमी नहीं देंगे केला... ! हमरे मटर का हर्जाना कौन भड़ेगा ?" रूपचन किसी तरह अपनी लुगाई को समझाए मगर उ की भौजाई को कौन समझाए.... ! उ तो आकाश-पाताल एक करे हुई थी। रह-रह के उ की बीबियो गुर्राए लगे। हमलोग भी का करें... मुखदर्शक बने हुए थे।
अंत में बेचारा रूपचन अजिया गया। बेचारा लुगाई को डांट-डपट कर अपने से टोकरी में केला डाल कर गया भौजाई को देने.... मगर चमनपुर वाली उ का तन-वादन, धरम-ईमान का एक्को गति नहीं छोडी। आखिर मरद का जात कितना सहे.... ! उहो तमसा गया। एक्कहि बार बोला, "हे.... ! 'न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको...... !!' जय हो अगिन-देवता ! लो केला का भोग लगाव.... !" कह के धान उबाले का बड़का भट्टी जो जल रहा था वही में दोंनो टोकरी केला उड़ेल दिया..... ! अब लेओ खा लेओ केला छिल-छिल के... ! "न तोको न मोको....चूल्हे में झोंको !!" हा.... हा... हा..... ठी... ठी... ठी.... ! खें..... खें....खें...खें...... हे.... हे...हे....हे.... ! एक पहर से ई कीर्तन भजन का आनंद ले रही भीर के मुँह से समवेत ठहाके निकल पड़े।
हम भी बोल उठे, "एकदम सही किया, रूपचन ! ई औरतिया झगरा.... बाप रे बाप ! छोट-बड़ किसी की बात नहीं बुझती है। हमारा है तो हमारा है। हम लेंगे तो हम नहीं देंगे..... ! लेओ अब ठन-ठन गोपाल.... ! न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको !!" अब तो संतुष्टि हुआ न.... आधा में संतोष नहीं था तो पूरा गया अग्नि देवता के पेट में।" हम भी अपना भरास निकाले और भीर को पुकार कर बोले, "चले-चलो भाई ! चले-चलो !! खेल ख़तम हुआ... !"
हम भी अपना बटुआ संभाले और झींगुर दास के साथ बढ़ गए घर के तरफ। लेकिन एक बात तो भूलिए गए..... अरे आप आज की कहावत का मतलब बुझे कि नहि.... ? ई तो एकदम सिंपल है... । अरे जब किसी वस्तु के लिए दो आदमी इतना खींचा तानी करें कि न इसका हो सके न उसका.... और खा-म-खा बर्बाद हो जाए तो आप रूपचन के तरह कह दीजिएगा "न तोको, ना मोको..... चूल्हे में झोंको !!" तो यही था ई का अर्थ। अब चलते हैं। घर जाए में आज बहुद देरी होय गया। लोग घर पे अंदेशा कर रहे होंगे कि बैल बेच के आ रहा है..... कहीं राहजनी तो नहीं हो गया..... ! जय राम जी के !!!

13 टिप्‍पणियां:

  1. अब का करें... मजा तो हमको ई में रानी सुरुंगा के खेल से भी जादे आ रहा था। मगर गाँव-घर का लिहाज। लोग-वाग एगो हमरे तो पढ़ल-लिखल बुधियार समझते हैं।
    इस लिए इससे ज़्याद हम कुच्छो नहीं कहेंगे।

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  2. बहुत बढ़िया.....झगडा खत्म ..ना तोको ना मोको ....चूल्हे में झोंको ..:):)

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  3. आपकी शैली देख कर चमत्कृत और प्रभावित हुआ। कृपया बधाई स्वीकारें।

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  4. भाषा की सर्जनात्मकता के लिए विभिन्न बिम्बों का उत्तम प्रयोग, लेखन में व्यंग्य के तत्वों की मौजूदगी से विद्रोह के तेवर और मुखर हो गए हैं।
    "न तोको, ना मोको..... चूल्हे में झोंको !!"

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  5. Jai Ram Ji ki Karan ji...pichla hafta me apne humko lahru bhai yad dila diya aur e hafta chamanpur aur baghura wali b yad aaiye gai....
    is bar b humko to bahute maja aaya apka desil bayna padhdar...
    NA TOKO NA MOKO...e kahawat to sache kaha rupchan ne ...jhagra badhe isse acha khisse khatam kar do..na hoga tora na mora...
    :)

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  6. वाह !! बढिया !!
    न तोको, ना मोको..... चूल्हे में झोंको !!

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  7. बहुत ही सुन्दर और बढ़िया पोस्ट ! लाजवाब प्रस्तुती! बहुत बहुत बधाई!

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  8. bahut hi achchha post hai, thake huye the baith gaye padhne ho gaya dur thakan.

    Aisa link roj - roj padhne ke lie mile to kya bat hai.

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