"शहर के कई सार्वजनिक महोत्सवों में उन्होंने अपने भाषण की मौलिकता और वक्पटुता से श्रोतागण को सदा ही मुग्ध किया है। किन्तु साहित्य और खासकर हिन्दी साहित्य से उन्हें दूर-दूर का संबंध नहीं था, सिवाय इसके कि उनकी होनेवाली अर्द्धांगिनी हिन्दी से स्नातकोत्तर कर चुकी थी और हिन्दी साहित्य पर उसका शोधग्रंथ पूरा हो चुका था।"
-- मनोज कुमार
धनाढ्य और प्रतिष्ठत परिवार है ठाकुर बचन सिंह का। उनकी इकलौती संतान बांके बिहारी अट्ठाइस वर्ष का हो चुका था। अपने पैरों पर खड़ा होने की जिद और घर में कुछ और सामान आ जाए तब विवाह करूंगा की इच्छा से उनका लड़का विवाह टालता रहा। ठाकुर जी ने बड़े चाव से उसे पढ़ाया था। अभियंता की पढ़ाई पूरी कर वह सी.पी.डब्ल्यू.डी. में लग भी गया था। अब पिछले एक वर्ष से वे बांके के लिये एक सुयोग्य कन्या ढ़ूंढ़ रहे थे। लड़के की इच्छा थी कि पढ़ी लिखी बहू हो। तिरहुत के उस क्षेत्र में अपनी जात बिरादरी की कोई कन्या जंचती नहीं थी उन्हें, जिसमें रूप और गुण दोनों विद्यमान हो। जब उन्होंने रघोपुर के गोवर्धन बाबू की कन्या के बारे में सुना तो उसे अपने घर की बहू बनाने के लिए लालायित हो गए। बांके से इसकी बात की तो वह भी झट राज़ी हो गया। क्यों न होता, एम.ए. पास शोधार्थी का प्रस्ताव उसके सामने था! दूर के एक रिश्तेदार से ठाकुर जी ने गोवर्धन बाबू के परिवार के बारे में अता-पता भी लगवा लिया था। उन्हें यह जोड़ी ख़ूब जम रही थी।
सी.पी.डब्ल्यू.डी. के अभियंताओं में सबसे रोचक, आकर्षक और अद्भुत व्यक्तित्व बांके बिहारी सिंह का था। सांवले, कद्दावर, मझोले कद, स्थूल काया, कुशाग्र बुद्धि का तेजस्। अंग-अंग में फूर्ति, हल्की और गंभीर बातें, सब जैसे जबान पर। ज़ोरदार, खनकदार हंसी। उनकी हंसी जब निकलती थी तो बेलगाम, बेतकल्लुफ़, हरपल आनन्द उठानेवाली होती थी। हिन्दी भाषा के प्रति कोई मोह माया या आस्था नहीं थी उनमें। हां, अंग्रेजी का बड़े ही फर्राटेदार प्रयोग वे किया करते थे। और उसमें शालीनता एवं मधुरता टपकती थी। हिन्दी साहित्य में उनकी कोई रुचि हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता था। अंग्रेजी में भाषण देने की कला में उन्हें प्रवीणता हासिल है। शहर के कई सार्वजनिक महोत्सवों में उन्होंने अपने भाषण की मौलिकता और वक्पटुता से श्रोतागण को सदा ही मुग्ध किया है। किन्तु साहित्य और खासकर हिन्दी साहित्य से उन्हें दूर-दूर का संबंध नहीं था, सिवाय इसके कि उनकी होनेवाली अर्द्धांगिनी हिन्दी से स्नातकोत्तर कर चुकी थी और हिन्दी साहित्य पर उसका शोधग्रंथ पूरा हो चुका था।
उनकी होनेवाली अर्द्धांगिनी का नाम रामदुलारी है। बचपन से ही उस पर पढ़ने और कुछ बनने की धुन सवार रही है। ग्रामीण वातावरण में उसने जीवन के शैशव काल बिताए। युवावस्था के द्वार पर भी पहला पग गांव में ही रखा। पर जीवन का सबसे परिवर्तनकारी समय तब आया जब उसने महाविद्यालय में पढ़ाई करने का मन बनाया। घर के सदस्यों की राय उसकी इच्छा के विपरित थी।
धनाढ्य और प्रतिष्ठत परिवार है ठाकुर बचन सिंह का। उनकी इकलौती संतान बांके बिहारी अट्ठाइस वर्ष का हो चुका था। अपने पैरों पर खड़ा होने की जिद और घर में कुछ और सामान आ जाए तब विवाह करूंगा की इच्छा से उनका लड़का विवाह टालता रहा। ठाकुर जी ने बड़े चाव से उसे पढ़ाया था। अभियंता की पढ़ाई पूरी कर वह सी.पी.डब्ल्यू.डी. में लग भी गया था। अब पिछले एक वर्ष से वे बांके के लिये एक सुयोग्य कन्या ढ़ूंढ़ रहे थे। लड़के की इच्छा थी कि पढ़ी लिखी बहू हो। तिरहुत के उस क्षेत्र में अपनी जात बिरादरी की कोई कन्या जंचती नहीं थी उन्हें, जिसमें रूप और गुण दोनों विद्यमान हो। जब उन्होंने रघोपुर के गोवर्धन बाबू की कन्या के बारे में सुना तो उसे अपने घर की बहू बनाने के लिए लालायित हो गए। बांके से इसकी बात की तो वह भी झट राज़ी हो गया। क्यों न होता, एम.ए. पास शोधार्थी का प्रस्ताव उसके सामने था! दूर के एक रिश्तेदार से ठाकुर जी ने गोवर्धन बाबू के परिवार के बारे में अता-पता भी लगवा लिया था। उन्हें यह जोड़ी ख़ूब जम रही थी।
सी.पी.डब्ल्यू.डी. के अभियंताओं में सबसे रोचक, आकर्षक और अद्भुत व्यक्तित्व बांके बिहारी सिंह का था। सांवले, कद्दावर, मझोले कद, स्थूल काया, कुशाग्र बुद्धि का तेजस्। अंग-अंग में फूर्ति, हल्की और गंभीर बातें, सब जैसे जबान पर। ज़ोरदार, खनकदार हंसी। उनकी हंसी जब निकलती थी तो बेलगाम, बेतकल्लुफ़, हरपल आनन्द उठानेवाली होती थी। हिन्दी भाषा के प्रति कोई मोह माया या आस्था नहीं थी उनमें। हां, अंग्रेजी का बड़े ही फर्राटेदार प्रयोग वे किया करते थे। और उसमें शालीनता एवं मधुरता टपकती थी। हिन्दी साहित्य में उनकी कोई रुचि हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता था। अंग्रेजी में भाषण देने की कला में उन्हें प्रवीणता हासिल है। शहर के कई सार्वजनिक महोत्सवों में उन्होंने अपने भाषण की मौलिकता और वक्पटुता से श्रोतागण को सदा ही मुग्ध किया है। किन्तु साहित्य और खासकर हिन्दी साहित्य से उन्हें दूर-दूर का संबंध नहीं था, सिवाय इसके कि उनकी होनेवाली अर्द्धांगिनी हिन्दी से स्नातकोत्तर कर चुकी थी और हिन्दी साहित्य पर उसका शोधग्रंथ पूरा हो चुका था।
उनकी होनेवाली अर्द्धांगिनी का नाम रामदुलारी है। बचपन से ही उस पर पढ़ने और कुछ बनने की धुन सवार रही है। ग्रामीण वातावरण में उसने जीवन के शैशव काल बिताए। युवावस्था के द्वार पर भी पहला पग गांव में ही रखा। पर जीवन का सबसे परिवर्तनकारी समय तब आया जब उसने महाविद्यालय में पढ़ाई करने का मन बनाया। घर के सदस्यों की राय उसकी इच्छा के विपरित थी।
***** अगले अंक में जारी .....
[रामदुलारी आगे पढ़ पायी.... क्या संबंधो की बली बेदी पर चढ़ गए उसके सपने... चारदिवारी में कैद तो नही हुए उसके अरमान... ? पढने के लिए आते रहिये ! इसी ब्लॉग पर ]
रोचक शुरूआत …अगले अन्क क इन्तेज़ार रहेगा।
जवाब देंहटाएंजारी रहिये..रोचक लेखन!
जवाब देंहटाएंuttam, agali kari ki pratiksha mein
जवाब देंहटाएंIt is very interesting,
जवाब देंहटाएंRanish
बहुत रोचक। अगले अंक की प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएंVery good! Chhath ki shubhkamnayen. Nai ank ki pratiksha hai.
जवाब देंहटाएंकविता की तरह प्रवाह लिए कहानी की रोचक शुरुआत। शीघ्र ही दूसरी कड़ी पेश करें।
जवाब देंहटाएंinteresting. waiting for the next episode
जवाब देंहटाएंविजय दशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंकल 07/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
लेखन की रोचकता में बंधे हम आगे बढ़ते गये तो पाया अगला अंक ... जिसकी प्रतीक्षा रहेगी ..आभार ।
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