मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009

ठहाके

"इक्कीसवीं सदी की घोर भौतिकता में हम कितने लाचार हो गए हैं कि सहज मानवीय संवेदनाओं को भी तराजू में तौल रहे हैं। उर के उदगार भी बाज़ार के मोहताज हैं ! पढिये एक अभिव्यक्ति !!"

-- मनोज कुमार


शर्माजी और वर्माजी में गहरी दोस्ती है। दोनों एक साथ एक ही दफ़्तर में काम करते थे। तीन दशक से भी अधिक की नौकरी करने के बाद दोनों एक साथ ही दो वर्ष पूर्व सेवा निवृत्त हुए। उनकी मित्रता आज भी यथावत बनी हुई है। वे रोज़ मॉर्निंग वाक के लिए साथ ही जाते हैं। घर के समीप ही एक पार्क है, गोल्डन पार्क। प्रतिदिन उस पार्क में गप-शप करते, हँसी-ठहाके लगाते हुए वे सैर करते हैं और टहलना सबसे अच्छा व्यायाम है को चरितार्थ करते हैं। पार्क के कोने में लाफ्टर क्लब के कुछ सदस्य एकत्रित होते हैं। शर्माजी-वर्माजी को यह क्लब रास नहीं आता। ‘इस अर्टिफिशियल हँसी के लिए कौन इसका सदस्य बने। हम तो नेचुरल ठहाके लगाते ही हैं।’


उस दिन पार्क के कोने वाले हिस्से से गुज़रते हुए उन्हें ठहाकों की आवाज़ सुनाई नहीं दी। विस्मय हुआ। शर्माजी ने वर्माजी से पूछा, “बंधु, इन्हें क्या हुआ? आज इनके ठहाके नहीं गूंज रहे !”


वर्माजी ने कहा, “रेसेशन का दौर है। मंहगाई आसमान छू रही है।”
शर्माजी ने कहा, “उसका ठहाकों से क्या लेना देना?”


वर्माजी ने समझाया, “शर्माजी ये नया युग है। हमारा ज़माना थोड़े ही रहा। हम तो फाकामस्ती में भी ठहाके लगाते रहें हैं। आज तो हर चीज़ में कटौती करनी पड़ रही है। लोग अब ठहाकों की जगह छोटी सी मुस्कान से ही काम चला ले रहें हैं।”
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8 टिप्‍पणियां:

  1. आधुनिक विकास के द्वन्द्व एवं पाखण्ड को उजागर करती लघु कथा बहुत अच्छी है।

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  2. Bilkul sahi kaha aapne. Aaj sare rishtein machini ho gaye hain. Log rishton mein bhi nafa-nuksan dekhate hain. Yeh LAGHUKATHA bahut achchhi lagi.
    Ashish

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  3. mast ....hansne men bhi kanjoosi ....ye kaam mera nahin ..bas ye hi to ek hai jo mujhe jinda rakhe hai ...

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  4. आपकी यह लघुकथा पढने के बाद एक पुराना फ़िल्मी गीत याद आ गया,
    "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान..... !!!"
    अच्छी संवेद्य रचना !!

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