--- मनोज कुमार
इक्कीसवीं सदी की व्यावसायिकता जब हिन्दी को केवल शास्त्रीय भाषा कह कर इसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगाने लगी तब इस समर्थ भाषा ने न केवल अपने अस्तित्व की रक्षा की, वरण इस घोर व्यावसायिक युग में संचार की तमाम प्रतिस्पर्धाओं को लाँघ अपनी गरिमामयी उपस्थिति भी दर्ज कराई। जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा और टेलीविजन ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में वैश्विक क्रांति दी है। आज हर कोई हिंदी बोल समझ लेता है, लिख पढ़ भले न पाए।
विज्ञापन की दुनियां में हिंदी का बोलबाला है। विज्ञापन की दुनियां का हिंदी के बगैर काम नहीं चलता। विज्ञापन गुरु यह जान और मान चुके हैं कि माल अगर बेचना है तो उन्हें हिंदी में ही बाज़ार में उतरना पड़ेगा। हां ये जो हिंदी परोसी जा रही है उसे कुछ लोग “हिंगलिश” की संज्ञा देते हैं। परन्तु यह सर्वग्राह्य हिंदी है।
आज बाज़ारबाद शबाब पर है। उत्पादक तरह-तरह से उपभोक्ताओं को लुभाने का प्रयास करते हैं। ऐसे में विज्ञापन की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। दिवा-रात्री समाचार चैनल, एफ.एम. रेडियो और विज्ञापन एजेंसियों की बाढ़ में बिना लाग लपेट बेवाक और संक्षिप्त शब्दों में पूरी रचनात्मकता वाली हिन्दी का ही बाज़ार है। इंटरनेट पर भी हिंदी का अभूतपूर्व विकास हो रहा है। इंटरनेट पर हिंदी की कई वेबसाइटें हैं। हिंदी के कई अख़बार नेट पर उपलब्ध हैं। कई साहित्यिक पत्रिकाएं नेट पर पढ़ी जा सकती हैं। हिंदी में ब्लॉग लेखक आज अच्छी रचनाएं दे रहें हैं। भारत में इलेक्ट्रॉनिक जनसंचार माध्यमों का प्रयोग दिनोंदिन बढ़ रहा है। यह देश की संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के विकास का स्पष्ट संकेत देता है।
यह भी कहा जाता है कि बाज़ारवाद के असर में हिंदी भाषा के बदलते रूप से लोग आतंकित हैं। कुछ यह कहते मिल जाएंगे कि “हमें बाज़ार की हिंदी से नहीं बाज़ारू हिंदी से परहेज़ है।” उनका यह मानना है कि “ऐसी हिंदी -- भाषा को फूहड़ और संस्कारच्युत कर रही है। यह अत्यंत दुखद और संकीर्णता से भरी स्थिति है। यह मात्र पान-ठेले के लोगों की समझ में आने वाली भाषा मात्र बन कर रह जाएगी।” जिस बाज़ारू भाषा को बाज़ारवाद से ज़्यादा परहेज़ की चीज़ कहा जा रहा है वह वास्तव में कोई भाषा रूप ही नहीं है। कम से कम आज के मास कल्चर और मास मीडिया के जमाने में। आज अभिजात्य वर्ग की भाषा और आम आदमी और बाज़ारू भाषा का अंतर मिटा है। क्योंकि आम आदमी की गाली-गलौज वाली भाषा भी उसके अंतरतम की अभिव्यक्ति करने वाली यथार्थ भाषा मानी जाती है। उसके लिए साहित्य और मीडिया दोनों में जगह है, ब्लॉग पर भी। आज सुसंस्कृत होने की पहचान जनजीवन में आम इंसान के रूप में होने से मिलती है। दबे-कुचलों की जुबान बनने से मिलती है, गंवारू और बाज़ारू होने से मिलती है। यह हिन्दी उनकी ही भाषा में पान-ठेले वालों की भी बात करती है, और यह पान-ठेले वालों से भी बात करती है, और उनके दुख-दर्द को समझती और समझाती भी है। साथ ही उनमें नवचेतना जागृत करने का सतत प्रयास करती है। अत: यह आम आदमी की हिंदी है, बाज़ारू है तो क्या हुआ। बाज़ार में जो चलता है वही बिकता है और जो बिकता है वही चलता भी है।
प्रचलित और सबकी समझ में आने वाली व्यवहार-कुशल हिंदी ही संपर्कभाषा का रूप ले सकती है। साहित्यिक और व्याकरण सम्मत हिंदी का आग्रह रख हम इसका विकास नहीं कर सकेंगे। सामान्य बोलचाल में प्रचलित अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, अरबी, फ़ारसी, उर्दू से लेकर देश की तमाम बोलियों और प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों के हिंदी में प्रयोग से सही अर्थों में यह जनभाषा बन सकेगी और तभी हिंदी और हिंदीतर भाषाईयों के बीच की दूरी पट सकेगी। हिन्दी की विकास यात्रा में इसे और अधिक प्रयोजनमूलक यानी फंक्शनल बनाया जाए। प्रयोजनमूलक हिन्दी जीवन और समाज की ज़रूरतों से जुड़ी एक जीवन्त, सशक्त और विकासशील हिन्दी भाषा है। आज ऐसी ही प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए हमारा प्रयास भारत के सभी प्रांतों, अंचलों और जनपदों को सौहार्द्र, सौमनस्य व परस्पर स्नेह से एक सूत्र में बांधने का होना चाहिए। तभी तो आज चक दे इंडिया हिट है।
*****
-- करण समस्तीपुरी
मैं आपसे इत्तेफाक तो रखता हूँ। फिर भी मुझे कुछ कहना है। संचार माध्यमों के विकास के साथ हिन्दी में भी आशातीत विकास हुआ है। आज मूलतः अहिन्दी-भाषी प्रदेशों में भी हिन्दी बोली और समझी जाती है तो इसमे संचार माध्यमों का योगदान ही है। अन्यथा हिन्दी को सुदृढ़ करने के मिशिनरी प्रयास तो आज भी हिन्दी दिवस, हिन्दी समारोह, हिन्दी संस्थान और राजभाषा विभाग तक ही सीमित हैं। पिछले कुछ दिनों से भारत के एक अहिंदीभाषी महानगर में रहते हुए मैं ये बात व्यवहारिक रूप से कह सकता हूँ। इस चर्चा में मैं इस क्षेत्र की स्थानीय भाषा एवं भाषिक सम्पदा व संस्कृति को पृथक करते हुए उन से इतर कहूँ तो यहाँ अखबार अब भी अंग्रेजी के आते हैं लेकिन घरों में छोटे परदे के कार्यक्रम हिन्दी में ही चलते हैं। 'सास-बहु' ने हिन्दी को 'जुबानी घर-घर की' बना दिया। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के मेरी महिला सहकर्मी वहुधा 'बालिका-वधु' में 'कल क्या हुआ'पर चर्चा करती हुई मिल जाती हैं। तीन साल पहले तक कतरे हुए नारियल को 'खुजली वाला कोकोनेट' कहने वाले पिल्लई अब न केवल कामचलाऊ बल्कि हिन्दी के विभिन्न भाव और रस के संवाद भी निपुणता से बोल लेते हैं। इसके लिए जनाब धन्यवाद देते हैं मोबाइल फ़ोन पर आने वाले विज्ञापन कॉल का। यहाँ तक तो संचार माध्यम सच में धन्यवाद के पात्र हैं। हम उनसे 'अज्ञेय' वाली हिन्दी की उम्मीद रखें तो भूल हमारी ही है। हाँ, संचार माध्यमों को भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए असाधु भाषा के प्रसार से बचना चाहिए। 'पप्पू कैन'ट डांस तक तो ठीक है लेकिन आगे नही। जहाँ तक 'बाजार की हिन्दी' और 'बाजारू हिन्दी' की बात है तो मैं कहना चाहूँगा 'गुड खाए और गुलगुले से परहेज़'! इस बार चौपाल में इतना ही। धन्यवाद !!!
इक्कीसवीं सदी की व्यावसायिकता जब हिन्दी को केवल शास्त्रीय भाषा कह कर इसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगाने लगी तब इस समर्थ भाषा ने न केवल अपने अस्तित्व की रक्षा की, वरण इस घोर व्यावसायिक युग में संचार की तमाम प्रतिस्पर्धाओं को लाँघ अपनी गरिमामयी उपस्थिति भी दर्ज कराई। जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा और टेलीविजन ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में वैश्विक क्रांति दी है। आज हर कोई हिंदी बोल समझ लेता है, लिख पढ़ भले न पाए।
विज्ञापन की दुनियां में हिंदी का बोलबाला है। विज्ञापन की दुनियां का हिंदी के बगैर काम नहीं चलता। विज्ञापन गुरु यह जान और मान चुके हैं कि माल अगर बेचना है तो उन्हें हिंदी में ही बाज़ार में उतरना पड़ेगा। हां ये जो हिंदी परोसी जा रही है उसे कुछ लोग “हिंगलिश” की संज्ञा देते हैं। परन्तु यह सर्वग्राह्य हिंदी है।
आज बाज़ारबाद शबाब पर है। उत्पादक तरह-तरह से उपभोक्ताओं को लुभाने का प्रयास करते हैं। ऐसे में विज्ञापन की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। दिवा-रात्री समाचार चैनल, एफ.एम. रेडियो और विज्ञापन एजेंसियों की बाढ़ में बिना लाग लपेट बेवाक और संक्षिप्त शब्दों में पूरी रचनात्मकता वाली हिन्दी का ही बाज़ार है। इंटरनेट पर भी हिंदी का अभूतपूर्व विकास हो रहा है। इंटरनेट पर हिंदी की कई वेबसाइटें हैं। हिंदी के कई अख़बार नेट पर उपलब्ध हैं। कई साहित्यिक पत्रिकाएं नेट पर पढ़ी जा सकती हैं। हिंदी में ब्लॉग लेखक आज अच्छी रचनाएं दे रहें हैं। भारत में इलेक्ट्रॉनिक जनसंचार माध्यमों का प्रयोग दिनोंदिन बढ़ रहा है। यह देश की संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के विकास का स्पष्ट संकेत देता है।
यह भी कहा जाता है कि बाज़ारवाद के असर में हिंदी भाषा के बदलते रूप से लोग आतंकित हैं। कुछ यह कहते मिल जाएंगे कि “हमें बाज़ार की हिंदी से नहीं बाज़ारू हिंदी से परहेज़ है।” उनका यह मानना है कि “ऐसी हिंदी -- भाषा को फूहड़ और संस्कारच्युत कर रही है। यह अत्यंत दुखद और संकीर्णता से भरी स्थिति है। यह मात्र पान-ठेले के लोगों की समझ में आने वाली भाषा मात्र बन कर रह जाएगी।” जिस बाज़ारू भाषा को बाज़ारवाद से ज़्यादा परहेज़ की चीज़ कहा जा रहा है वह वास्तव में कोई भाषा रूप ही नहीं है। कम से कम आज के मास कल्चर और मास मीडिया के जमाने में। आज अभिजात्य वर्ग की भाषा और आम आदमी और बाज़ारू भाषा का अंतर मिटा है। क्योंकि आम आदमी की गाली-गलौज वाली भाषा भी उसके अंतरतम की अभिव्यक्ति करने वाली यथार्थ भाषा मानी जाती है। उसके लिए साहित्य और मीडिया दोनों में जगह है, ब्लॉग पर भी। आज सुसंस्कृत होने की पहचान जनजीवन में आम इंसान के रूप में होने से मिलती है। दबे-कुचलों की जुबान बनने से मिलती है, गंवारू और बाज़ारू होने से मिलती है। यह हिन्दी उनकी ही भाषा में पान-ठेले वालों की भी बात करती है, और यह पान-ठेले वालों से भी बात करती है, और उनके दुख-दर्द को समझती और समझाती भी है। साथ ही उनमें नवचेतना जागृत करने का सतत प्रयास करती है। अत: यह आम आदमी की हिंदी है, बाज़ारू है तो क्या हुआ। बाज़ार में जो चलता है वही बिकता है और जो बिकता है वही चलता भी है।
प्रचलित और सबकी समझ में आने वाली व्यवहार-कुशल हिंदी ही संपर्कभाषा का रूप ले सकती है। साहित्यिक और व्याकरण सम्मत हिंदी का आग्रह रख हम इसका विकास नहीं कर सकेंगे। सामान्य बोलचाल में प्रचलित अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, अरबी, फ़ारसी, उर्दू से लेकर देश की तमाम बोलियों और प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों के हिंदी में प्रयोग से सही अर्थों में यह जनभाषा बन सकेगी और तभी हिंदी और हिंदीतर भाषाईयों के बीच की दूरी पट सकेगी। हिन्दी की विकास यात्रा में इसे और अधिक प्रयोजनमूलक यानी फंक्शनल बनाया जाए। प्रयोजनमूलक हिन्दी जीवन और समाज की ज़रूरतों से जुड़ी एक जीवन्त, सशक्त और विकासशील हिन्दी भाषा है। आज ऐसी ही प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए हमारा प्रयास भारत के सभी प्रांतों, अंचलों और जनपदों को सौहार्द्र, सौमनस्य व परस्पर स्नेह से एक सूत्र में बांधने का होना चाहिए। तभी तो आज चक दे इंडिया हिट है।
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-- करण समस्तीपुरी
मैं आपसे इत्तेफाक तो रखता हूँ। फिर भी मुझे कुछ कहना है। संचार माध्यमों के विकास के साथ हिन्दी में भी आशातीत विकास हुआ है। आज मूलतः अहिन्दी-भाषी प्रदेशों में भी हिन्दी बोली और समझी जाती है तो इसमे संचार माध्यमों का योगदान ही है। अन्यथा हिन्दी को सुदृढ़ करने के मिशिनरी प्रयास तो आज भी हिन्दी दिवस, हिन्दी समारोह, हिन्दी संस्थान और राजभाषा विभाग तक ही सीमित हैं। पिछले कुछ दिनों से भारत के एक अहिंदीभाषी महानगर में रहते हुए मैं ये बात व्यवहारिक रूप से कह सकता हूँ। इस चर्चा में मैं इस क्षेत्र की स्थानीय भाषा एवं भाषिक सम्पदा व संस्कृति को पृथक करते हुए उन से इतर कहूँ तो यहाँ अखबार अब भी अंग्रेजी के आते हैं लेकिन घरों में छोटे परदे के कार्यक्रम हिन्दी में ही चलते हैं। 'सास-बहु' ने हिन्दी को 'जुबानी घर-घर की' बना दिया। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के मेरी महिला सहकर्मी वहुधा 'बालिका-वधु' में 'कल क्या हुआ'पर चर्चा करती हुई मिल जाती हैं। तीन साल पहले तक कतरे हुए नारियल को 'खुजली वाला कोकोनेट' कहने वाले पिल्लई अब न केवल कामचलाऊ बल्कि हिन्दी के विभिन्न भाव और रस के संवाद भी निपुणता से बोल लेते हैं। इसके लिए जनाब धन्यवाद देते हैं मोबाइल फ़ोन पर आने वाले विज्ञापन कॉल का। यहाँ तक तो संचार माध्यम सच में धन्यवाद के पात्र हैं। हम उनसे 'अज्ञेय' वाली हिन्दी की उम्मीद रखें तो भूल हमारी ही है। हाँ, संचार माध्यमों को भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए असाधु भाषा के प्रसार से बचना चाहिए। 'पप्पू कैन'ट डांस तक तो ठीक है लेकिन आगे नही। जहाँ तक 'बाजार की हिन्दी' और 'बाजारू हिन्दी' की बात है तो मैं कहना चाहूँगा 'गुड खाए और गुलगुले से परहेज़'! इस बार चौपाल में इतना ही। धन्यवाद !!!
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Hindi hamari rajbhasha aur rastrabhasha hai.Hindi desh ke adhikanshya logo dwara boli aur samjhi jati hai.hindi apne vikas ka rasta dhundte hue yaha tak pauchi hai,aage bhi yeh sabhi bhashao ko sath lekar,unse awaishak shabd lekar, apne vikas ka silsala jari rakhegi. MOHSIN
जवाब देंहटाएंहम आपसे सहमति रखते हैं।
जवाब देंहटाएंApka lekh acha hai aur hindi ke vikas ke bare me sochne per majbur karta hai. Aaj hindi ki mahatta sampurna rastra me hai, log iski mahatta,saralta ko samajhne lage hai .Aaj bahurastriya kampania bhi apne utpado ko bechne ke liye hindi me Ad banati hai,aaj hindi sabse badi sampark bhasha ke roop me ubharker samne aa rahi hai.Aaj hindi ke channelo ki sankhaiya ki baad aa gayi hai karan hindi bhasha ki lokpriyata hai.apne sahi kaha ki sanchar madhyam se iski lokpriyata bari hai. Dhanyabad . Sameer
जवाब देंहटाएंhindi blog me stareey samagree ke abhav ko door karne ke liye dhanyawaad !
जवाब देंहटाएंआपके इस सहृदयता के लिए हम आपका आभार प्रकट करते हैं, तथा चौपाल में शामिल होने के लिए धन्यवाद ज्ञापित करते हैं।
जवाब देंहटाएंaapka yeh lekh bahut achcha laga..... aapke prayaas mein aapke saath hoon....
जवाब देंहटाएंachchha hai. sanchar maadhyamon se hindi ka vikaas hee hua hai.
जवाब देंहटाएंBilkul sateek aur sahi kaha aapne.Sach aaj hindi ka vikas etna ho raha hai aur ho chuka hai ki aaj log chaahe woh bangali ho,telegu bhashi ho ya tamil bhashi sab hindi parhne aur samajhne ko prerit ho gaye hain.
जवाब देंहटाएंMujhe toh lagta hai sanchar madhyamo se hindi ka bhala hi ho raha hai....
राजभाषा और हिन्दी विभाग के लोग तो केवल केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों में ही हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए चिंतित रहते हैं, सबसे अहम योगदान तो संचार माध्यमों ने ही किया है। अचछा आलेख। बधाई।
जवाब देंहटाएंAacha lekh hai.
जवाब देंहटाएंSanchar ke madhaym se hindi ka prachar prasar badha hai..aur aage bhi badhta he jayega...
जवाब देंहटाएंManoj ji n keshav Ji ap dono dwara likha gaya lekh sarahniye hai..
sahee kahaa hai aapne.
जवाब देंहटाएंकेन्द्रीय सरकार के कार्यालयों का तो संवैधानिक दायित्व है राजभाषा हिन्दी में काम करना। पर संचार माध्यमों का योगदान तो बहुत ही ज़्यादा है।
जवाब देंहटाएंachchha laga aapka yah lekh
जवाब देंहटाएंhindi hindusthan me sabhi jagah samajhta hai ji.
जवाब देंहटाएं- thyagrajana
इस आलेख में उठाये गए मुद्दे काफी प्रासंगिक हैं। विवेचना अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंbadhiya aalekh ,hindi ka samman bana rahe ye koshish jaroori hai ,umda
जवाब देंहटाएंManoj ji, Karan ji,
जवाब देंहटाएंAap dono ne hi vishay ki sundar vivechna ki hai...
Sachmuch hame sanchaar madhyamo ka aabhari hona chahiye aur kuchh had tak bajarwad ka bhi,jisne apne utpaad bechne ke liye hi sahi,hindi ko apnaya aur isse hindi ka prachaar prasar hi hua hai....
Aapka logon ka pryaas atti prasansniye evam satik hai
जवाब देंहटाएंaap nay bhoot acha kaha hai ham sab ko jarurat hai hindi ki kauki hum hindustani hai.
जवाब देंहटाएंhindia bhasha sarkar ke karyakarmo ka mohtaj nahi hai. it deserves the high respects for it. It will be the symbol of love for our country. I salute you for your dedication to hindi language.
जवाब देंहटाएंमैं मनीषा रमेशकुमार उपाध्याय भी आपके इस विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करना चाहती हू । आज विश्व का हर छठा आदमी भारतीय है । हिंदी से कितना भी परहेज करे पर वह जबान पर गाहे - बगाहे आ ही जाती है । आज संचार माध्यम यदि भारतीय जनता का शरीर है तो हिंदी उसकी आत्मा है । शरीर नश्वर है पर आत्मा अजर -अमर है । आज हमारे बाजार हिंदी में ही पुष्पित और पल्ल्वित हो रहे है । अगर ऐसा न होता तो टेली शॉपिंग के अभिनेता को हिंदी में रूपांतरित संवाद बोलते हम कैसे देखते ? हालाँकि उसका बोलना बड़ा हास्यास्पद लगता है ,पर मेरे जी को सुकून भी मिलता है कि कैसे विदेशी लोगो को अपने उत्पाद बेचने के लिए हिंदी की शरणं लेनी पड़ी ।
जवाब देंहटाएंहिंदी आज संसार की उच्चतम भाषाओं में से एक है । में अपने कनाडा यात्रा के दौरान उसकी एक झलक देख पायी । मैं वह के कुछ विद्यालयों में गयी थी जहा हिंदी पढाई जाती है । मेरे हर्ष का पारावार न रहा जब मैंने वह के छात्रों में हिंदी के लिए जो प्यार देखा तो अपने भारतीय होने पर सर गर्व से उठ गया । वे छात्र अहिन्दी होकर भी बड़े प्यार से हिंदी का गुण गान कर रहे थे । कुछ वाक्य रचना में दोष था पर वे निरीह थे । आज सात समुन्दर पार भी हिंदी अपना परचम लहरा रही है । राष्ट्र भाषा का सन्मान देख मन प्रफुल्लित हो गया । आज सारे संसार की नजर भारत के विस्तृत बाजार पर है ,आने वाले २०२० तक भारत संसार का सबसे अधिक संख्या के युवा पीढ़ी का देश बनने जा रहा है । तभी तो सबकी नजर भारत पर लगी है ।
हिंदी का स्त्रोत अजस्र है ,यह अजस्र स्रोतस्विनी के समान है ।
आज भारत में विज्ञापनों ने हिंदी को शीर्ष पर पंहुचा दिया है ,हिंदी फिल्मो ने इसका रुप और निखार दिया है । धन्यवाद संचार माध्यम को जिसने इतनी तेजी से हिंदी का सर्वांगीण विकास करवाया । टूटी फूटी सही पर हिंदी जान - की भाषा बन गयी है।
धन्यवाद ।
प्रोफ़ेसर मनीषा रमेशकुमार उपाध्याय
विभागाध्यक्ष : डॉ पिल्लई ग्लोबल अकादमी ,
बोरीवली पश्चिम
मुंबई
भारत