मित्रों हम ब्लॉग की दुनिया में नया-नया आए हैं। अभी एक महीना भी नहीं हुआ है। हमने सोम से शुक्र तक का ब्लॉग पर प्रकाशित करने का एक रुटीन बना लिया है। शनिवार-रविवार को फुर्सत में ... कुछ सोचने, कुछ रचने के लिए रखा है। कल के दिवाली के धूम-धड़ाके के बाद आज जब फुर्सत में बैठा तो अपनी एक पुरानी डायरी को उलटने-पलटने लगा। एक पन्ने पर नज़र रुक गई। एक घटना और उस पर मेरे उन दिनों के विचार थे। उसे ही प्रस्तुत कर रहा हूं। अगर सम-सामयिक लगे तो मेरा क़सूर नहीं। वैसे वाकया प्रंदह वर्ष पूर्व जनवरी 1994 का है।
--- मनोज कुमार
एक समाचार पत्र में प्रकाशित एक ख़वर पढ़कर मन व्यथित हो उठा है। खबर का शीर्षक है – “फुटपाथ पर बिकता शोधग्रंथ”। मुझे शोधार्थी के रूप में बिताए अपने दिन याद आ गए। हालाकि मैं अपना शोधग्रंथ लिख नहीं पाया। उस पर चर्चा फिर कभी। आज इस प्रकाशित समाचार की चर्चा कर लूं। समाचार से पता चला कि एसएम कॉलेज, भागलपुर की एक व्याख्याता-शोधार्थी का शोध प्रबंध, “हिस्ट्री ऑफ द फ्रिडम स्ट्रगल इन बिहार फ्राम 1912-1947” कलकत्ता के फुटपाथ पर कबाड़ी के पास था। वहां से एक सज्जन इसे ख़रीदकर शोधार्थी तक वापस पहुंचाने का पुनीत काम करना चाह रहे हैं। आशंका यह जताई जा रही है कि या तो यह ग्रंथ शोधार्थी के यहां से अनजाने में बिक गया, या चोरी हुआ या फिर किसी अधिकारी, जिसे वह शोधग्रंथ दिखाया गया, उसके हाथ से होता हुआ कबाड़ी तक पहुंचा।
इस शोधग्रंथ में बिहार का 1947 तक का इतिहास है, उसके बाद का वर्तमान नहीं। बिहार का 1947 के बाद से आज तक का जो वर्तमान है, वह उस शोधग्रंथ के शोधार्थी की लाइब्रेरी से फुटपाथ तक पहुंच जाने के यथार्थ में दिखाई देता है। यदि यह ग्रंथ व्याख्याता-शोधार्थी के यहां से गाएब हुआ है, तो उसमें उसकी किसी विवशता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बिहार के कॉलेजों का जो हाल है उसमें शिक्षकों को महीनों वेतन नहीं मिलता, उस पर से शोध कर्य के संपादन में काफी व्यय आता है, ऐसे में यदि किसी आर्थिक मज़बूरी ने इस शोधार्थी को अपना शोध प्रबंध बेच देने पर विवश किया हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
जहां तक चोरी वाली संभावना की बात है, तो जिस राज्य में साल भर में 25-30 हज़ार चोरियों के मामले दर्ज़ होते हों, वहां इस एक ग्रंथ की चोरी कोई अनहोनी नहीं है। अगर ग़ौर किया जाए तो यह बड़ा साधारण सा मामला लगता है। चोर ने फक्कड़ व्याख्याता के घर हाथ डाला होगा और कुछ खास क्या कुछ भी न पा पुस्तकों पर ही हाथ साफ कर लिया होगा। उनमें यह शोधग्रंथ भी रहा होगा। अब पुस्तकें भला उसके किस काम की। बेच डाला होगा कब्बाड़ी के हाथ।
बिहार में शिक्षा का क्षेत्र भारी उपेक्षा का शिकार रहा है। शिक्षक, छात्र, अभिभावक, गैर शिक्षक कर्मचारी, सभी एक या दूसरे प्रकार के शोषण के शिकार हैं और उनमें व्यापक असंतोष फैला हुआ है। इसी उपेक्षा के कारण से, यद्यपि शोधग्रंथ लिखे तो जाते हैं, फिर भी उसे सहेज कर, संभालकर, उसकी उचित इज़्ज़त नहीं की जाती। शोधग्रंथ कबाड़ी तक कैसै पहुंचा, यदि इस पर ही कोई शोध करे तो उसके प्रबंध में जब इसके कारणों पर प्रकाश डाला जाएगा तो सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व समाजशास्त्रीय कारणों की व्याख्या ज़रूर होगी। बिहार का सामाजिक परिवेश ऐसा है कि सामंती प्रवृत्तियां आज भी बरकरार हैं और शोधार्थी अपने मार्गदर्शक के चंगुल में ऐसा फंसता है कि कौन सा कर्म नहीं करना पड़ता ? आर्थिक दृष्टि से बिहार सबसे पिछड़ा तो है ही, इस राज्य के शोधार्थी की भी, काफी खर्चीले हो चुके शोधकार्य को पूरा करने में, कमर ही टूट जाती है। और राजनीति ने तो यहां सब चौपट कर दिया है। शिक्षा के क्षेत्र का भी भरपूर राजनीतिकरण हो चुका है, जिससे रही-सही कसर भी पूरी हो गई है। यदि शोधग्रंथ के फुटपाथ पर पहुंचने के कारण की समाजशास्त्रीय व्याख्या की जाए तो हम पाएंगे कि बिहार में धर्म समाज सुधारक आंदोलन (रेनेसां) काफी देरी से आया और वह यहां के संदर्भ मे आज भी अधूरा ही है। नतीजा यह है कि बिहार पिछड़ा का पिछड़ा ही रह गया और इसी लिए उसके जन्म से लेकर देश की आज़ादी पाने तक के इतिहास के ऊपर लिखा शोध प्रबंध फुटपाथ पर कबाड़ी के पास पड़ा होता है। धन्यवाद ब्लॉग !!! कम से कम फुर्सत में.... मेरी गप्पबाजी तो कबाड़ में नहीं ही जायेगी !!! क्या कहते हैं आप ??
मनोज जी ,
जवाब देंहटाएंहम तो एक नज़्म के चोरी हो जाने पर इतना बवाल मचाते हैं और जिसकी सालों की मेहनत यूँ चोरी हो जाये उसका क्या हाल हुआ होगा भला..... सोच कर ही दिल काँप उठता है ......!!
डायरी के पन्ने यूँ ही पढ़वाते रहिये .....!!
बेहद रोचक और मार्मिक व्यंग्य है।
जवाब देंहटाएंEs tarah ki vyavastha ko theek karna bohot jaruri hai.pata nahi na jane kitne hi vidyarthi es tarah ki vyavastha se pareshaan aur eske shikaar hue honge.
जवाब देंहटाएंBohot khub likha hai aapne.
Pata nahi kitne saalon ki mehnat ke baad banai gayi hogi wah shodhgranth aur usme shayad kaafi kuch aisa hoga jo bahut saare logon ko pata na ho...
जवाब देंहटाएंIn pandrah saalon me kaafi stithi badal gayi hogi aur aasha karti hu ki aisa phir kabhi kisi ke saath na ho.....
Stithi behadd gambhir hai!!!
जवाब देंहटाएंसच मै क्या बिहार का इतना बुरा हाल है? लेकिन समझ मै नही आता ऎसा क्यो... लोग तो मेहनती है फ़िर ऎसा क्यो.
जवाब देंहटाएंआप का धन्यवाद
वाकई , हरकीरत जी से सहमत...क्या हालत होती होई इतने वर्षों की मेहनत..
जवाब देंहटाएंनियमित लिखिये.
ये हमारे देश की विदंवना है कि चौथा स्तम्भ कहे जाने वाले साहित्य का ये हाल है और वो भी स्वतन्त्रता संग्राम जैसे शोध ग्रन्थ का। इस से बडी शर्मनाक घटना क्या हो सकती है? शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंबिहार की स्थिति सोचनीय है । शोधग्रंथ की चोरी और कबाड़ी के पास उसका बेचा जाना और शोधग्रंथों की चोरी पर शोधग्रंथ लिखने का व्यंग्य बिहार की स्थिति को सुधारने में मदद करे । ऐसी हमारी शुभेच्छा है ।
जवाब देंहटाएंसोधग्रंध का यह शोध काफी अचंभित करने वाला है. काफी गंभीर. यहाँ सभी लोगों से सहमत हूँ.
जवाब देंहटाएंजारी रहें.
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हिंदी ब्लोग्स में पहली बार रिश्तों की नई शक्लें- Friends With Benefits - रिश्तों की एक नई तान
(FWB) [बहस] [उल्टा तीर]
बहुत ही दुखद और शर्मनाक घटना है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
अब तो मेरी चिंता और बढ़ गयी है.... शोध पत्र लिखूं या नहीं........... क्यूंकि साहित्यिक शोध ग्रन्थ का आखिरी ठिकाना तो आपने बता ही दिया....... विचारोत्तेजक प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंसचमुच गंभीर चिंता का विषय है यह। ऐसे में विद्यार्थियों का भविष्य कितना उज्जवल है उसी को दर्शाता है यह। शुक्र है कि वह कबाड़ी के यहां से फुटपाथ पुस्तक विक्रेता के पास पहुंच कर फ़िर भी उपलब्ध तो रहा तथा किसी जागरूक नागरिक की निगाह उस पर पड़ गई। ग़नीमत है कि कहीं उसके पन्नों में मूड़ी या आलू चॉप नहीं परोस दी गई। और......
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