नमस्कार मित्रों !
फिर जम गयी है चौपाल। आज चौपाल में हम बात करेंगे हमारी बेरियों की। बेरी जो कब से जकर रक्खी हमें। हमारी संस्कृति को। हमारी अभिव्यक्ती को। जी हाँ ! हम कर रहे हैं, भाषिक बेरी का। वो बेरी जिसमें आजादी के दशकों बाद भी हमारी रोज मर्रा की जिंदगी सिसक रही है॥ आख़िर कब तक करते रहेंगे हम विदेशी भाषा की गुलामी ? कुछ दोस्त दे रहे हैं चौपाल में अपनी बेबाक राय। आप भी चाहें तो टिपण्णी के माध्यम से इस बहस में शामिल हो सकते हैं। चौपाल में आपका स्वागत है॥
भारत सरकार के अधीनस्थ कार्यालयों में `ग` क्षेत्र के लिए 55 प्रतिशत हिंदी में पत्राचार करने का लक्ष्य है। ‘ग’ क्षेत्र यानी हिंदीतर भाषी क्षेत्र। ‘क’ और ‘ख’ क्षेत्र के लिए यह लक्ष्य और भी ज़्यादा है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के प्रति केन्द्र सरकार के कार्यालयों में काम करने वाले अधिकारी और कर्मचारी कितने गंभीर हैं ? 1949 में केन्द्रीय सरकार द्वारा यह तय किया गया था कि सरकारी काम काज में हिंदी का उपयोग किया जाएगा, 60 वर्षों बाद कितने सफल हुए हैं, सबको पता है। और वे इसकी प्राप्ति के प्रति कितने समर्पित हैं – उनका दिल गवाही देगा।
कितने आश्चर्य की बात है कि विश्व में एकमात्र हिन्दी ही ऐसी भाषा है जिसमें शब्द जैसा लिखा जाता है, उसे, ठीक वैसा ही पढ़ा जाता है। भारत में यद्यपि प्रान्तीय भाषाओं का प्रचलन काफी अधिक है परन्तु पूरे देश में एकमात्र हिन्दी ही ऐसी भाषा है जिसे सभी प्रान्तों के लोग अच्छी तरह समझ और बोल पाते हैं। वैसे तो भारतीय साहित्य की प्रांजलता, विविधता में एकता और सरसता, भारतवर्ष जैसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में प्रचलित विभिन्न भाषाओं के अमूल्य योगदान में निहित है, फिर भी जन सामान्य द्वारा बोली, पढ़ी और लिखी जाने वाली भाषा हिन्दी को ही केन्द्रीय सरकार ने राजकाज की भाषा का दर्ज़ा प्रदान कर उसे एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया है। राजभाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने के पीछे सबसे बड़ा कारण हिन्दी का सरल, सुबोध और प्रचलित होना था। केन्द्र सरकार के स्तर पर राजभाषा हिन्दी को सरकारी कामकाज में प्रचलित करने के लिए अब तक अनेक प्रयास किए जा चुके हैं। क्या ये प्रयास नाकाफ़ी हैं?
इसी से जुड़ा एक पहलू यह भी है कि जब एक विदेशी पॉप गायक दिवंगत होता है तो हम दुखी होते हैं, हमें लगता है यह अपूरनीय क्षति है। टीवी और अखबारों में वह प्रमुखता पाता है और उसकी मौत के कारणों पर घंटों बहस होती है। उसके पेट में दाने की जगह दवा / ड्रग्स हैं उस पर तवज्जो दी जाती है। हमारा दिल रोता है कि अब कौन हमें दिखाएगा मून वॉक। एक पहलू यह है। एक पहलू यह भी है कि जब कोई हबीब तनबीर हमसे दूर हो जाता है तो किसी अख़बार के कोने में थोड़ी सी जगह पाता है। क्योंकि वह आगरा बाज़ार के ककड़ी, मूली, तरबूज वालों के लिए लिखता था, क्योंकि वह चरनदास चोर की बात करता था।
स्वतंत्रता प्राप्ति के 63 वर्षों पश्चात् भी हिन्दी को वह दर्ज़ा नहीं मिल पाया है, जिसकी वह हक़दार है। इसके पीछे बड़ी बाधा है --- हमारी मानसिकता। हममें से अधिकांश व्यक्ति अंग्रेज़ी बोलने में गर्व महसूस करता है और हिन्दी बोलते समय उसे हीनता का अनुभव होता है। क्योंकि, हमारी दृष्टि में प्रत्येक विदेशी वस्तु श्रेष्ठ है, भले वह कोई उपभोक्ता सामग्री हो, पॉप गीत या फिर भाषा। पश्चिमी देशों की संस्कृति, भाषा, लोक-व्यवहार का अंधानुकरण करने में ही हमें आधुनिकता दिखाई देती है। आप आज के बच्चों से हिंदी में कुछ पूछिए तो जवाब अंग्रेजी में मिलेगा। यह एक सच्चाई है। मेट्रोशहरों में तो अभिजात्य वर्ण के लोग हिंदी का व्यवहार शायद तभी करते होंगे जब वे सब्जी ख़रीदने जाते होंगे।
मेंडरिन के बाद दुनिया भर में हिंदी सबसे ज़्यादा लोगों द्वारा बोली जाती है। इनमें भारतीय मूल के लोगों के अलावा विदेशी भी हैं। हिंदी बोलने वाले विदेशियों की संख्या 24 लाख से भी ज़्यादा है। हिंदी अब विश्वस्तरीय हो चुकी है। पश्चिम के लोगों में हिंदी पढ़ने और लिखने में दिलचस्पी काफी बढ़ी है। कैसी विडंबना है कि विदेशों में हिन्दी को विश्वभाषा का सम्मान प्राप्त है और भारत में उसे राजभाषा का सम्मान दिलाने के लिए कठोर नीतियां अपनानी पड़ती है। पश्चिमी देशों के लोग हिन्दी को अपनाकर भारत की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर को जानना और समझना चाह रहे हैं और हम हैं कि विदेशी चकाचौंध के मोह से मुक्त नहीं हो पा रहे।
-- मनोज कुमार
तो आज की चौपाल में ये थे मनोज कुमार के शब्द। आगे परिचर्चा को जारी कर रहे हैं दिल्ली से युवा पत्रकार शुभाष चंद्र ॥
हम हिंदुस्तानी अपने धुरी से छिटकते जा रहे हैं। कभी सामाजिक स्तर पर, कभी सांस्कृति स्तर पर तो कभी भाषाई स्तर पर। अनेकता में एकता का दंभ भरने वाला हमारा समाज अपने इस अलगाव को कोई न कोई नाम दे ही देता है। अपनी सुविधा के लिए। भाषा के स्तर पर तो और भी। नतीजन ? हमारी नई पौध भाषाई स्तर पर हमारे संस्कारों से अलग दिख रही है। हिंदुस्तानी में हिंदी का 'के्रज' नहीं रह गया। कारण साफ है, रोजगार के अवसर। यही जबाव होंगे एक सौ में से नब्बे लोगों के ।
याद करना होगा नब्बे का दशक, जब भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक बाजार के लिए खोली गई। हमारे देश में संसाधन तो आए और साथ में भाषाई गुलामी की ओर हम बढ़ते गए। हर हिंंदुस्तानी को लगने लगा कि यदि अंग्रेजी नहीं सीखी तो गए काम से। बहुराष्टï्रीय कंपनियों में काम करने का यह अनिवार्य शर्त तो ठहरा। सो, दुर्दशा होती गई हिंदी साहित्य। कहीं न कहीं हम सभी लोग भी जिम्मेदार हैं। आज हम लोग भी अपने हिंदी भाषा के किसी भी स्रोत या साहित्य पर विश्वास नहीं करते हैं और अन्य पर जरूरत से ज्यादा। अगर विश्व के बडे बडे देश और संगठन हिंदी भाषा में काम कर रहे हैं और उसे मान्यता प्रदान कर रहे हैं तब अपने ही देश में अलग अलग प्रांतो में हिंदी पर इतना विवाद क्यों? सोचना हेागा। देश की राष्टभाषा होने के बावजूद इसके साथ किया जा रहा भेदभाव उचित नहीं है और सभी हिंदी प्रेमियों को इसके लिए सोचना होगा नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी को भी दोयम दर्जे की भाषा बना दिया जायेगा। यहां यह बताता चलूं कि केवल कहने-सुनने के लिए हिंदी हिंदुस्तान की राष्टभाषा है, जबकि भारतीय संविधान में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता।
विदेशी भाषा विशेषकर अंग्रेजी की महिमा के संदर्भ में स्मरण हो आता है यह कथन। छात्र-छात्राओं को पढ़ाई करते समय अपनी मातृभाषा के प्रति ध्यान देना चाहिए, लेकिन इसके साथ-साथ अंग्रेजी को भी काफी अहमियत देना चाहिए। क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस भाषा की अहमियत काफी है। यह बात पूर्व पुलिस महानिदेशक तथा ओडि़शा लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष गोपालचन्द्र नंद एक स्कूल के वार्षिक उत्सव के दौरान कही।
सच तो यही है कि हर भाषा अपने समाज का आईना होती है। जिस भाषा को बोलने वाले ही उसकी उपेक्षा करते हो, उसकी स्थिति बद से बदतर होती जाती है और यह बात हिंदी पर भी लागू होती है। भाषा में वर्तनी की अनेकरूपता आदि को एक हद तक स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन जब भाषा की अशुद्धियाँ अराजकता का रूप लेने लगे तो यह चिंता का विषय बन जाता है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हिंदी के ऐसे प्रयोग देखने को मिलते हैं जिन्हें देखकर गहरी निराशा होती है।
कुछ उदाहरण देखें :
... में हम समझ सकते हैं कि आप के बच्चे से आप कितना प्यार करते हैं, उससे कितनी उम्मीदें रखते हैं उनकी पूर्ती के लिए आप सारी जिम्मेदारियाँ हँसकर उठाते हैं. (आउटलुक के मार्च अंक में प्रकाशित एक विज्ञापन से)
उपर्युक्त वाक्य में 'आप के बच्चे के बदले 'आप अपने बच्चे लिखना चाहिए था। 'पूर्ती' की वर्तनी भी गलत है। सही वर्तनी है 'पूर्ति।
दरअसल, औपचारिक समारोह का प्रतीक बनकर रह गया है-हिन्दी दिवस, यानि चौदह सितम्बर का दिन। सरकारी संस्थानों में इस दिन हिन्दी की बदहाली पर मर्सिया पढऩे के लिए एक झूठ-मूठ की दिखावे वाली सक्रियता आती है। एक बार फिर वही ताम-झाम वाली प्रक्रिया बड़ी बेशर्मी के साथ दुहरायी जाती है। दिखावा करने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता है। कहीं 'हिन्दी दिवस मनता है, कहीं 'सप्ताह' तो कहीं 'पखवाड़ा'। भाषा के पंडित, राजनीतिज्ञ, बुद्विजीवी, नौकरशाह और लेखक सभी बढ़-चढ़कर इस समारोह में शामिल होकर भाषणबाजी करते हैं। मनोरंजन के लिए कवि सम्मेलन एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। पर्व-त्यौहार की तरह लोग इस दिवस को मनाते हैं। कहीं-कहीं तो इस खुशी के अवसर को यादगार बनाने के लिए शराब और शबाब का भी दौर चलता है। कुछ सरकारी सेवक पुरस्कार या प्रशस्ति पत्र पाकर अपने को जरूर कृतार्थ या कृतज्ञ महसूस करते हैं। खास करके राजभाषा विभाग से जुड़े लोग, कामकाज में हिन्दी को शत-प्रतिशत लागू करने की बात हर बार की तरह पूरे जोश-खरोश के साथ दोहराते हैं। सभी हिन्दी की दुर्दशा पर अपनी छाती पीटते हैं और चौदह सितम्बर की शाम खत्म होते ही सब-कुछ बिसरा देते हैं। आजादी से लेकर अब तक 'हिन्दी दिवस' इसी तरह से मनाया जा रहा है। दरअसल वार्षिक अनुष्ठान के कर्मकांड को सभी को पूरा करना है।
पर इस तरह के भव्य आयोजनों से क्या होगा ? क्या इससे हिन्दी का प्रचार -प्रसार होगा या हिन्दी को दिल से आत्मसात करने की जिजीविषा लोगों के मन-मस्तिष्क में पनपेगी ? हिन्दी की दशा - दिशा के बरक्स में यह कहना उचित होगा कि इस तरह के फालतू और दिशाहीन कवायदों से हिन्दी आगे बढऩे की बजाए, पीछे की ओर जायेगी।
अब समय की मांग यह है कि शासक वर्ग , नव धनाढ्य वर्ग , नौकरशाह, बाबू तबका, और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिन्दी विरोधी रवैयों को नेस्तनाबूद किया जाये और हिन्दी के विकास के लिए क्षेत्रीयता की भावना से उपर उठकर सभी भाषाओं के बीच समन्वय एवं संवाद कायम करते हुए राष्ट्रव्यापी सक्रियता के साथ मानसिक रुप से हिन्दी को स्वाधीन बनाया जाए। इस दिशा में आवश्यकता है, सरकार की ढृढ़ इच्छा शक्ति की। क्योंकि इस विषय पर उसी की भूमिका निर्णायक है। इसके अलावा सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक स्तर पर भी प्रयास करने की जरुरत है, अन्यथा प्रतिवर्ष 'हिन्दी दिवस' आयेगा और हम वही होंगे, जहाँ हैं।
-- शुभाष चंद्र
(लेखक 'प्रथम इम्पैक्ट' पत्रिका में वरिष्ठ संवाददाता हैं। पत्रकारिता के साथ साथ हिन्दी एवं मैथिलि साहित्य में भी सक्रीय हैं। http://dekhkabira.blogspot.com पर अपना ब्लॉग भी लिखते हैं। इनका ई-मेल पता है, subhashinmedia@gmail.com)
हिन्दी को अनदेखा करने में भी भारतीयों का ही हाथ है इसी भारत में कुछ हिन्दी को उसकी पराकाष्ठा पर देखना चाहते हैं और कुछ हिन्दी की अनदेखा कर के दूसरे भाषाओं के प्रति प्रेम दिखा रहे है...बढ़िया प्रसंग...धन्यवाद
जवाब देंहटाएंभारत के अलग अलग क्षेत्र में मौजूद अनेक प्रादेशिक भाषाओं के कारण हिन्दी की अधिक हानि हुई है .. जहां की प्रादेशिक भाषाएं हिन्दी से मिलती जुलती है .. उस क्षेत्र के लोगों के द्वारा हिन्दी के प्रयोग में बाधा नहीं आती है .. पर जहां की क्षेत्रीय भाषा हिन्दी से अलग है .. वहां लोग अंग्रेजी बोलने में ही अधिक सहज महसूस करते हैं !!
जवाब देंहटाएंसबसे पहले लेखक व पाठक वृन्द को धन्यवाद से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूँगा !
जवाब देंहटाएंलेकिन मैं संगीता पुरी जी से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता ! मैं पिछले तीन साल से भारत के अहिंदीभाषी क्षेत्र बेंगलूर में हूँ और मेरा यह व्यवहारिक अनुभव है कि हाट-बाजार, बस-ट्रेन से लेकर स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और कार्यालयों तक में सम भाषा भाषी न होने पर प्रायः हिंदी ही योजक भाषा के रूप मे प्रयुक्त होती है. हाँ, अंग्रेजी का बोलबाला है और अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनी वा देश का सूचना प्रोद्योगिकी केंद्र होने के कारण ऐसा होना असहज भी नहीं है. बेंगलूर के अतिरिक्त कर्णाटक, तमिलनाडु, आँध्रप्रदेश व केरल के कई हिस्सों में लघु प्रवास का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है, और वहाँ मैं ने पाया कि जो लोग सुशिक्षित हैं वे तो अंग्रेजी में कुशलता या यूँ कहें कि प्राथमिकता के साथ बात करते हैं, किन्तु अपेक्षाकृत कम पढ़े लिखे लोग या अनपढ़ लोग अंग्रेजी के बजाय टूटी फूटी हिंदी में ही वार्तालाप करना पसंद करते हैं. एक संस्मरण : मैं मैसूर-भ्रमण पर था. मैसूर-महल के सामने एक फेरीवाला अपना कुछ सामान बेचने की गरज से मेरे पीछे पड़ा हुआ था. मैं ने लगभग पीछा छुडाते हुए कहा, "नॉन ऑफ़ माय इंटेरेस्ट !" जवाब मे फेरीवाले के मुंह से, "पेरिस मे पैदा हुआ क्या साब ?" सुन कर दंग रह गया. हिंदी भाषी क्षेत्र से आये लोग प्रायः इसी भ्रम में रहते हैं कि यहाँ लोग हिंदी नहीं समझेंगे. लेकिन यह कोरा भ्रम ही है. आखिर उन लाखों अनपढ़ या कम पढ़े लिखे मजदूरों का संवाद हस्तांतरण कैसे होता है, जो बिना अंग्रेजी जाने हिंदी प्रदेशों से अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में अपनी रोजी रोटी कमाने आते हैं... ? वैसे भी अगर हम हिन्दीभाषी प्रदेश से हैं तो अधिक जिम्मेदारी हमारी है ! और यह जिम्मेदारी उठानी ही पड़ेगी सिर्फ हिंदी का झंडाबरदार बनने से काम नहीं चलेगा !!! अभी इतना ही ! विशेष अगले चौपाल में !! एक बार पुनः धन्यवाद !!!!!
Hame bhi hindi se pyaar hai bt hindi typing nahi aatee so comment roman me hee de raha hoon. Apka effort really matter karta hai ! Hame Hindi ko aage lana hoga !!!
जवाब देंहटाएंbahut achchha lagaa...
जवाब देंहटाएंSubhas Ji
जवाब देंहटाएंMai apki bato se sehmat hun...kafi acha likha hai apne...aur bilkul sai bhi..
Rachna
हिंदी हैं हम वतन है, हिन्दुस्तां हमरा............
जवाब देंहटाएंआखिर कब समझेंगे हम यह बात ? ब्लॉग के माध्यम से हिंदी की अलख जगाने के लिए धन्यवाद! अब तो यह बेरियाँ टूटनी ही चाहिए....
हमे हिंदी मे काम करने की आदत डालनी होगी.
जवाब देंहटाएंbaat hai to sahi lekin kuchh jyada lambi ho gayee........
जवाब देंहटाएंअच्छा प्रसंग !
जवाब देंहटाएंbahut achcha laga yeh padh kar...
जवाब देंहटाएंsahihai ! hamen apnee rashtrabhasha kee ijjat karnee chaahiye. ise dil se apnana chaahiye.
जवाब देंहटाएंआपकी बातों से मैं भी सहमत हूं .. पर हिन्दी भाषी क्षेत्र के मजदूरों या विद्यार्थियों के कारण हिन्दी बोलने का प्रयास करने का ये मतलब नहीं कि उन्हें हिन्दी से प्रेम है .. आज विदेशी भी तो हिन्दी का उपयोग अपनी व्यावसायिक सफलता के लिए कर रहे हैं .. मुंबई की फिल्मी दुनिया को ही देखे .. जिस हिन्दी की बदौलत वे नाम , यश , पैसा और प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहे हैं .. पार्टियों या इंटरव्यू में उसी की उपेक्षा करते हैं .. हिन्दी अभी तक हिन्दी भाषीप्रदेशों के मध्यम और निम्नवर्गीय लोगों के कारण ही टिकी हुई है .. यहां के लोग हर जगह जाकर हिन्दी की अलख जगाते रहे हैं .. और हिन्दी को न छोड पाना ही इनके पिछडेपन का कारण बताया जाता रहा है .. हां , एक बात अवश्य है कि यदि यहां के उच्च शिक्षा प्राप्त भी थोडा ध्यान देकर स्तरीय हिन्दी पुस्तको का लेखन करें .. तो हिन्दी की स्थिति और सुधर सकती है !!
जवाब देंहटाएंaaj hamaaree raashtrabhasha ke prati jo hamaaree upeksha hai, uska bahut hee saahsik varnan kiya hai aapne. dhanyawaad !!
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