-आँच-20
-आचार्य परशुराम राय
श्री रावेन्द्रकुमार रवि की कविता (नवगीत) पर आँच के पिछले अंक पर आयी प्रतिक्रिया ने इस अंक को लिखने के लिए प्रेरित किया। वैसे इस अंक के विचारों पर लम्बे समय से मंथन चल रहा था, लेकिन रावेन्द्र कुमार जी की प्रतिक्रिया को पढ़ने के बाद लगा कि इस विचार-मंथन को लिपिबद्ध किया जाय। श्री रावेन्द्रकुमार जी से क्षमा-प्रार्थना करते हुए एवं इस अंक में आये तथ्यों से उत्पन्न विचारों पर सकारात्मक नहीं तो निरपेक्ष दृष्टि डालने का अनुरोध है। आशा है अन्य पाठकों के लिए भी इस अंक की वैचारिक भूमि पसन्द आएगी।
इस अंक का उद्देश्य यह बताना है कि किस प्रकार पुराने शब्द और बिम्ब कविता में उचित शब्द-योजना के द्वारा नवीन से लगते हैं। इस पर आचार्य आनन्दवर्धन ‘ध्वन्यालोक’ में लिखते हैं-
दृष्टपूर्वा अपि ह्यर्थाः काव्ये रसपरिग्रहात्।
सर्वे नवा इवाभान्ति माधुमास इव द्रुमाः।।
भावार्थ यह है कि पुराने शब्द और अर्थ कवि की प्रौढ़ प्रतिभा से समायोजित काव्यरचना में नये से लगते हैं जैसे वसंत ऋतु में पुराने वृक्ष।
इसका उदाहरण रावेन्द्र जी की रचना में प्रयुक्त बाज और पक्षियों की प्राकृतिक शत्रुता जग-जाहिर है। लेकिन इसके साथ ‘फिरंगी’ शब्द ने उन्हें नवीन कर दिया है। वैसे ही ‘कौए’ या ‘पक्षी’ ‘इल्ली’ खाते हैं। यह उनका जन्मचात स्वभाव है। इल्ली न रहे तो तितलियाँ अपना अस्तित्व नहीं रख सकतीं। इस आशय की श्री मनोज कुमार जी की कविता ‘कैटरपिलर’ नाम से इसी ब्लाग पर बहुत पहले पढ़ने की मिली थी। इस कविता को मैं आठ साल पहले उनके मुखारविन्द से कई बार सुन चुका हूँ। यदि संस्कृत वाङमय को देखें, जैसे पंचतंत्र आदि ग्रंथों में इनका खुलकर प्रयोग हुआ है। लेकिन कौवे द्वारा इल्ली खाने से उत्पन्न परिणाम की और किया गया संकेत नवीनता को जन्म देता है। लेकिन समीक्षक अपनी दृष्ट-परिधि में जो देखता है, वह लिखता है और रचना के विभिन्न आयामों को देखे का प्रयास ही समीक्षा है। पुराने बिम्बों का प्रयोग बड़े ही समर्थ कवियों में भी देखने को मिलता है। संदर्भ में यहाँ महाकवि तुलसी और महाकवि प्रसाद के उद्धरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं-
भवानीशंकरौ बन्दे श्रद्धाविश्वासरुपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वातःस्थमीश्वरम्।।
(रामचरिमानस, बालकाण्ड, मंगलाचरण, श्लोक-2)
नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष-स्त्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में।
यह नहीं कहा जा सकता कि महाकवि तुलसी के ‘श्रद्धा’ और ‘विश्वास’ बिम्बों का प्रयोग कर ‘प्रसाद’ जी ने कोई चोरी की है या गलत किया है। बल्कि इन दोनों बिम्बों को नयी शब्द-योजना द्वारा एक अलग अर्थवत्ता प्रदान की है।
स्वयं महाकवि तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में अपने पूर्ववर्ती कवियों, नाटककारों आदि के विचारों को यथावत अपनाया है। यथा:-
'सो परनारि लिलार गोसाईं।
तजेउ चौथ चंदा की नाई॥'
(रामचरितमानस)
उदर्कभूतिमिच्छद्भिः खलु न दृश्यते।
चतुर्थीचन्द्रलेखेव परस्त्रीभालपट्टिका।
(प्रसन्नराघवम्)
चन्द्रहास हरू मम परितापं।
रघुपति विरह अनल संजातम्॥
सीत निशा तव असिबर धारा।
कह सीता मम हरु दुख भारा॥
(रामचरितमानस)
चन्द्रहास हर मे परितापं रामचन्द्रविराहनलजातम्।
त्वं हि कान्तिजितमौक्तिचूर्णधारया वहसि शीतलमम्भः॥
(प्रसन्नराघवम्)
डगहि न संभु सरासन कैसे।
कामी वचन सती मनु जैसे॥
(रामचरितमानस)
................................................
नेदं धनुश्चलति किञ्चिदपीन्दुमौले:।
कामातुरस्य वचसामिव संविधानै-
रभ्यर्थितं प्रकृतिचारु मन: सतीनाम्॥
(प्रसन्नराघवम्)
उक्त चौपाइयाँ पीयूषवर्षी जयदेव के 'प्रसन्नराघवम्' के श्लोकों के अविकल अनुवाद हैं। किन्तु इससे न तो रामचरितमानस के और न ही तुलसीदास के आर्षत्व में कमी आयी हैं। इसके अतिरिक्त 'मानस' में कोई चौकाने वाले तथ्य है। जैसे 'परशुराम-लक्ष्मण संवाद' की अवधारणा। इस प्रकरण का विवरण किसी भी रामायण में में नहीं मिलता। इसे गोस्वामी जी ने उक्त 'प्रसन्नराघवम्' से ही लिया है। हालाँकि 'प्रसन्नराघवम्' में उतना विशद संवाद नहीं है, जितना रामचरितमानस में। लेकिन अवधारणा वहीं से ली गई है। इसी प्रकार 'केवट-संवाद' की अवधारणा अध्यात्मक-रामायण की है। लेकिन थोड़ा क्रमभेद हैं, अर्थात् अध्यात्म-रामायण में यह प्रकरण महर्षि विश्वामित्र के यज्ञ की समाप्ति के बाद जनकपुर जाते समय गंगा पार करने के पहले केवट राम से कहता है कि आपके चरणों को धोए बिना नाव पर नहीं चढ़ाऊँगा, अन्यथा मेरी नाव भी शिला की भाँति स्त्री बन जाएगी। जबकि यह प्रकरण 'मानस' में वनवास के लिए जाते समय आया है। गोस्वामी जी को इससे कोई परहेज नहीं हैं। वे तो कहते हैं - विभिन्न पुराणों, वेदों और तंत्रों से सम्मत, रामायण (वाल्मीकि रामायण) मे या कहीं अन्यत्र भी जो कुछ कहा गया है उन्हें अपने सुख के लिए सुन्दर भाषा में तुलसी रामकथा को आबद्ध करता है।
नानापुराण निगमागमसम्मतं यद् रामयणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-भाषानिबन्धमञ्जुलमातनोति।।
महाकवि तुलसीदास जी ने बड़ी ही ईमानदारी से इसे सहर्ष स्वीकार करते हुए उद्घोषित किया है। लेकिन फिर भी यह कहते है- ‘रामचरितमानस कवि तुलसी।
ऐसा भी देखने को मिलता है कि एक ही समय में दो भिन्न स्थानों पर दो कवि या रचनाकार बिना किसी आपसी संवाद या परिचय के एक ही बिम्ब और अर्थ का प्रयोग कर बैठते हैं अथवा किसी परवर्ती कवि की रचना में पूर्ववर्ती कवि के भाव देखने को मिल जाता है। जबकि हो सकता है कि उसने अपने पूर्ववर्ती को पढ़ा ही न हो। ऐसी घटना मेरे साथ हुई है। मैंने एक कविता सत्तर के दशक में लिखी थी, उसका आवश्यक बंद यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ-
सुन्दरता के जल-माध्यम को
भेद गड़ीं नजरें प्रियतम की
झूम उठा मेरा मन आंगन
पाकर सुरभि किसी चेतन की।।
यहाँ ‘सुन्दरता’ को ‘जल’ के रुप में लिया गया। इस सन्दर्भ में ‘प्रसाद जी’ के ‘आँसू’ का यह अंश देखिए-
वाडव ज्वाला सोती थी
इस प्रणय सिन्धु के तल में
प्यासी मछली सी आँखें
थीं विकल रुप के जल में।
यहाँ प्रसाद जी ने ‘रुप (सुन्दरता)’ को जल से बिम्बित किया है। लेकिन जब मैंने अपनी कविता लिखी थी, उस समय तक ‘आँसू’ पढ़ा नहीं था।
इस प्रकार कहने का तात्पर्य यह है कि जब रचनाकार लिखता है तो समाज में प्रचलित विचार, उसके द्वारा पढ़े गए साहित्यिक विचार आदि उसे प्रभावित करते हैं। वे प्रभाव उसकी मानसिक गठन में गूँज पैदा करते हैं, जिन्हें वह लिखकर एक भाषिक रुप देता है। मेरे परम श्रद्धेय गुरुतुल्य मित्र स्व. डॉ सत्यव्रत शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘नागरखेट अन्हारी बारी’ में एक सूक्ति के रुप में कविता को इसी तरह परिभाषित किया है-
‘कविता किसी गूँज का भाषिक रुपान्तर है।’
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.....आंच...सच ही परिपक्कव बनने का काम कर रही है...साधुवाद
जवाब देंहटाएंits all beyond my calibre.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति.....
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंसंगीता जी की बातों से सहमत।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।
इस प्रस्तुति में काव्य लक्षण आपनी सरलता के साथ प्रस्तुत हुई है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति !!
जवाब देंहटाएंअति उत्तम !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया !
बहुत सुन्दर !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
बढ़िया प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंइसमें क्षमाप्रार्थी होनेवाली कोई बात नहीं है!
जवाब देंहटाएं--
आपका विवेचन सही है,
पर मेरी एक बात को आपने फिर
नज़रअंदाज़ कर दिया!
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आपने दो बंदों के नवगीत को
तीन बंदों का बताकर समीक्षा की,
इसलिए मुझे भ्रम हुआ
कि आपको नवगीत की समझ नहीं है!
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मैं तो अभी सीख ही रहा हूँ!
अपनी पूर्व टिप्पणी के फलस्वरूप
और भी बहुत कुछ सीखने को मिल गया!
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आभारी हूँ!
आशा है आप मेरी बातों को अन्यथा नहीं लेंगे!
मनोज जी से अनुरोध है कि
जवाब देंहटाएंआगामी किसी भी प्रतिक्रिया-पोस्ट का लिंक
मेल से अवश्य भिजवा दें!