--- --- मनोज कुमार
कोलकाता की उमस भरी तपती-जलती दोपहरी को बड़े साहब का संदेश मिला कि इस बार का राजभाषा सम्मेलन हम देहरादून में करेंगे। कोलकाता के 40 डिग्री सेल्सियस का तापमान और लगभग 100 प्रतिशत की आर्द्रता वाले माहौल में भी लगा कि कोई शीतल बयार आकर छूकर चली गई हो।
तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार हम पिछले सप्ताहांत (11-12 जून) देहरादून में सम्मेलन कर आए। गर्मियों में देहरादून जाना एक सुखद अनुभव रहा। देहरादून उत्तराखण्ड की राजधानी है। हम मैदानी इलाकों में रहने वालों के लिए पहाड़ी स्थल तक की यात्रा एवं स्थान परिवर्तन से बहुत राहत मिलती है। कईयों के मुंह से देहरादून की जलवायु की प्रशंसा सुन रखी थी। गर्मियों में भी वहां हल्की सी ठंड रहती है। लू तो कभी चलती ही नहीं। हरे भरे जंगल चारों ओर फैले हैं। फिर, मसूरी की सैर का आनंद ही अलग है।
कुछ ही दूरी पर सहस्रधारा है। सहस्रधारा में पहाड़ की चट्टानों से निरन्तर पानी की झड़ी लगी रहती है। प्रकृति की इस सुंदरता का वर्णन मुझे सदैव आह्लादित किए रहता था कि यह सब एक बार अपनी आंखों से देखकर तृप्त हो जाऊँ।
सहस्रधारा जाने के लिए पक्की सड़क है। तीन पहाडि़यों को पार कर सहस्रधारा तक पहुँचा जा सकता है। पहाड़ों की घुमावदार एवं ऊँची-नीची सड़कें और हरे-भरे पेड़–पौधे शहर छोड़ते ही साथ हो लेते हैं। एक पहाड़ी नाले के ऊपर सहस्रधारा की चट्टानें हैं। उसके नीचे गुफा है, जिसमें पानी झरता रहता है- बहुत ही ठंडा, बूंद-बूंद, फुहारों की तरह और इसीसे छोटी-छोटी असंख्य धाराएं बन जाती हैं। गरमी अधिक थी, अतः धाराएं कम थीं। शायद बरसाती दिनों में सहस्र धाराएं अवश्य बन जाती होंगी।
यहां आकर चारो ओर एकांत, शांत और स्वच्छ वातावरण की मेरी उम्मीदों पर मानों पानी फिर गया। मोटर की आवाजों का शोर, चाय, पान, सिगरेट, पूरी मिठाइयों की दुकानें और इनसे उपजी गंदगियां- जूठे पत्तल, दोने, कुल्हड़, प्लास्टिक की बोतलें, गिलास, सिगरेट बीड़ी के टुकड़े, खाली डिब्बे, पान की पीक आदि नाले के सड़े पानी की दुर्गंध के साथ चारो ओर बिखरे पड़े थे। ये सब हमारी ही तो देन हैं। हम अपनी प्रकृति का आनन्द लेने के बहाने उसको नष्ट करने का मजा लेते हैं। उसे अशोभन, अनाकर्षक और कुरूप बना देते हैं। सहस्रधारा से अविरल झरता पानी प्रकृति के साथ हुए अत्याचार पर आंसू बहाता प्रतीत हुआ।
हमारा अगला पड़ाव मसूरी था। मसूरी देहरादून से ऊपर 32-35 कि.मी. चढ़ने पर आता है। रास्ते में प्रकाशेश्वर मंदिर पड़ता है। और उससे पहले ही, चढ़ाई शुरू होने के पहले, सांई बाबा का मंदिर है। यह यात्रा भी हमने मोटर से की। हालाकि, पहाड़ पर पैदल चलने, चढ़ने का आनंद ही कुछ और होता है। यद्यपि चढ़ाई कष्टकर होती ही है, खासकर उनके लिए जिन्हें चढ़ने का तरीका नहीं आता। पांवो में दर्द हो जाता है, सांस फूलने लगती है। लेकिन जो चढ़ने का आनंद लेते हैं उन्हें तो इसमें भी आनंद ही आता है। जीवन में कुछ पीड़ा न हो, कुछ कष्ट न हो, कुछ कठिनाई न हो तो आदमी किस चुनौती पर जिए। चुनौतियों से प्ररेणा लेकर जो चढ़ाई करता है, विजयश्री उसे ही मिलती है।
शाम ढलने से पहले हम केम्प्टी फॉल पहुँच गए। जोरों से बहती हुई हवा थी। सर्द! ठंढी!! कँपकँपी दिलाने वाली!!! मौसम का मिजाज कितना बदल गया था। प्रकृति के सौंदर्य में दुबका मन किसी अनजाने एकाकीपन के वशीभूत, मसूरी के केम्प्टी फॉल के इर्द-गिर्द के वातावरण का आनंद ले रहा था। सीधी सड़क। ऊँचाई को जाती सड़क। पहाड़ी ढलान। ढलता सूरज। और आसमान में फैली लालिमा। मालरोड की भीड़ को छोड़ हम केम्प्टी फॉल का सौन्दर्य निहार रहे थे। ऊँचाई से झरने की गिरती धारा के मोहक नाद के बीच हवा के चलने पर वृक्षों का मर्मर स्वर और चिडि़यों का मन को मोहने वाला कलरव। ऊपर से देखें तो नीचे देहरादून की रोशनियाँ टिमटिमाते तारों का भ्रम दिलाती हैं। मानों आसमान जमीन पर उतर आया हो। एक भ्रम और भ्रम के इस आभास का आनंद। सहज होने पर मन को झटका लगा। मैं कल्पना लोक की उड़ान पर था। लगा यह कैसा अज्ञान था जिसने मुझे घेर रखा था।
डिजराइली ने कहा था-
‘अपने अज्ञान का आभास होना ही ज्ञान की तरफ़ बढ़ा एक कदम है।’
मैं अब वर्तमान में था।
शोरगुल, धमाके, ठहाकों के बीच पहाड़ की चोटी से गिरता झरना और केम्प्टी फॉल का यह नजारा कुदरत से प्यार करने वालों को आनंदित करता है। शहर की भीड़-भाड़, उमस-तमस, कोलाहल-हलचल चहल-पहल से दूर पहाड़ो की वादियों में, झरने की कलकल करती धारा और सूर्य की ढलती हुई किरणों को निहारते हम! पक्षियों के चहचहाते हुए सुरों का आनंद लेते मन में ये पंक्तियां गूंज रहीं थीं –
मस्ती ही इसका पानी है
सुख दुख के दोनों तीरों से
चल रहा राह मनमानी है।
निर्झर में गति ही जीवन है,
यह गति रूक जाएगी जिस दिन
मर जाएगा मानव समाज,
जग के दुर्दिन की घडि़यां गिन-गिन।
खाने पीने के शौकीन लोगों के लिए एक से एक ढाबा, रेस्तराँ और होटल मिले। जहां जायकेदार खाना और उसका आनंद लूटते लोग उमड़े पड़े थे। लेकिन, झरने के नीचे एक गुफा (खोह) नुमा संरचना मुझे महात्माओं और संतो के आसपास होने का भ्रम दे गई और इसी सोच से मुझे आनंद की अनुभूति होने लगी। मेरी उत्सुकता मुझे उस गुफा में खींच ले गई जहां लगा कि कोई मुनि जल की आसनी पर भगवान के प्रति सम्पूर्ण आस्था से ध्यानस्थ हैं और प्रभु की समीपता का आनंद लूट रहे हैं।
ऊपर के लोग भी आनंद में थे। अपना-अपना आनंद है। कोई उस जल-प्रपात के तरण ताल में हिलोरें ले-लेकर आनंद लूट रहा था तो कोई सोमरस की खुमारी का। किसी जोड़े के चहरे पर नव विवाहित होने की मस्ती थी, तो कोई अपनी ढलती उम्र का आनंद ले रहा था। आनंद की प्राप्ति के लिए हम क्या कुछ नहीं करते? हां आनंद की परिभाषा और मायने हमारे लिए अलग-अलग हैं।
वहां पहुंच कर कैमरे में तस्वीरें कैद करते वक्त अपने ब्लॉग के लिए एक पोस्ट बन सकने की कल्पना मात्र से मुझे असीम आनंद का अनुभव हो रहा था। वैसे आनंद की परिभाषा भी बदलती रहती है। जब आ रहा था तो बीच रास्ते में एक शिव मंदिर पड़ा। वहां शिव के दर्शन से ज्यादा भीड़ उमड़ी पड़ी थी प्रसाद ग्रहण में। प्रसाद पाने की अनियमितता, धक्का-मुक्की और तुमसे पहले मैं की छीना-झपटी के बीच प्रसाद पाने का आनंद मुझे फर्स्ट डे फर्स्ट शो दीवार फिल्म देखने के लिए प्राप्त किए गए टिकट के आनंद सा लगा।
आनंद हमें भटकाता भी है। आदमी आनंद प्राप्त करने के लिए कहां-कहां नहीं भटकता है। अब देखिए, जब रात गहराने लगी तो मन भटकने लगा कि चलो भाई! जल्दी करो, देहरादून भी वापस पहुंचना है। अब आनंद का कारण बदलने लगा। क्योंकि अब वापस देहरादून पहुंचकर जो आनंद मिलने वाला था उसकी उत्कंठा जागृत होने लगी थी।
हम धन-दौलत, मद-मोह, पद-वैभव लेकर कहां जाएंगे। जब जाएंगे – तब यहीं धरा रह जाएगा सब! तो इस गुफा के अंदर जल की आसनी पर बैठे ऋषि की कल्पना का विस्तार मुझे भरमाने भी लगा। मन में आया कि यदि हम उनकी तरह भगवान के बारे में जान भी लें तो हमें क्या मिलेगा? क्या भगवान स्वयं मिल जाएंगे?
इस कल्पना और इन्हीं मनोभावों के वशीभूत हमने अपने चारो तरफ नजर दौड़ाई तो मुझे लगा ये जो लोग हैं, जो हंस रहे हैं, गा रहे हैं, प्राकृतिक सौदंर्य का आनंद उठा रहे हैं, सब स्वस्थ प्रसन्न होने का ढोंग और स्वांग रच रहे हैं। कहीं न कहीं ये सब भीतर से अस्वस्थ हैं। कुछ जुमले जो मैंने गौर से सुनने की कोशिश की इस प्रकार थे –
‘देखो कैसे इतरा रहा है’
‘हूंह, पानी में ऐसे कूद रहा है मानो कभी स्वीमिंग पूल में नहाया ही न हो’
‘देखो कैसे लड़कियों को घूर रहा है’ आदि।
ये परनिंदा, ईर्ष्या, द्वेष आदि का आनंद लूटते लोग – ये स्वस्थ भी हैं या मानसिक रूप से विकल?
मैं फिर उस गुफा की तरफ मुड़ता हूँ। मेरी कल्पना फिर परवान चढ़ती है। मुझे लगता है उसमें धयानस्थ जो मुनि है, वही सच्चा आनंद लूट रहे हैं- भक्ति का, भगवत प्रेम का। उन्हें बाहरी आनंद की चाह नहीं, वह तो आन्तरिक आनंद की अमृत धारा से सराबोर हैं।
वापसी की यात्रा में ऐसा प्रतीत हुआ कि जो मनःस्थिति लेकर हम देहरादून आए थे उसमें बड़ा अन्तर आ गया है। मोटर के कैसेट प्लेयर पर फिर वही गीत बज रहा था जो जाते समय बजा था –
दिल ढूंढता, है फिर वही
फुरसत के रात दिन,
बैठे रहे तसव्वुर-ए-जाना किए हुए ।
इस गीत ने जाते समय मन में जो ताना-बाना बुना था अब वह टूट रहा था। हम वापस जा रहे थे, देहरादून के बारे में एक अलग अनुभव के साथ। फिर कोलकाता। फिर उमस, फिर गर्मी!!
जय हो! माने नहीं सम्मेलन के बाद मसूरी घूम-टहल ही आये। वाह!
जवाब देंहटाएंफ़ोटो शानदार हैं! विवरण भी जानदार। अपना फ़ोटो भी खींच लिये होते लैपटाप के साथ और शीर्षक देते- कैम्प्टी फ़ॉल से ब्लॉगिंग।
वैसे कुछ किस्से राजभाषा सम्मेलन के भी लिखने थे।
@ अनूप शुक्ल जी
जवाब देंहटाएंवो किस्से राजभाषा ब्लॉग पर आएंगे।
लैपटॉप की याद न दिलाएं! ऐन मौक़े पर धोखा देता है।
'Apana-Apana Anand' padakar achcha laga. Har vyakti ke anand ki dhuri alag hoti hai, is satya ko apane is yatra-vrittant mein Shri Manoj Kumar ne bade darshanik dhang se abhivyakt kiya hai. Sadhuvad.
जवाब देंहटाएंShirshak ka chunav chamatkrit karanewala hai.
जवाब देंहटाएंis aanand me main bhi shamil ho gai...photo bahut hi khoobsurat
जवाब देंहटाएंवहां पहुंच कर कैमरे में तस्वीरें कैद करते वक्त अपने ब्लॉग के लिए एक पोस्ट बन सकने की कल्पना मात्र से मुझे असीम आनंद का अनुभव हो रहा था।...
जवाब देंहटाएंkitni ajeeb baat he na...mansuri ke kempty fall me bhi blogjagat se nata tuta nahi...(ha.ha.ha.)
aapki ye post padh kar bahut aanand aaya lekin ha.n aaj tak hamne us gufa ke bare me itna nahi socha tha jis par aapne dhyan aakarshit kiya.
chalo is bahane aapne ek baar fir sair karva di in sabhi sthalo ki.
aabhar.
ओहोहो ..........क्या बात है । यहां इतनी गर्मी हो रही है कि बस पूछिए मत । आपकी पोस्ट पर आकर मन शीतल और तृप्त हो गया । आनंद तो हमें आया है पूरा वर्णन पढ कर । मजा ही आ गया , फ़ोटो खूब लग और जंच रहे हैं । बहुत ही सुंदर ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंइसे 20.06.10 की चर्चा मंच (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत ही सुंदर लगा आप का यह विवरण, चित्रो ने चार चांद लगा दिये, धन्यवाद देहरादुन घुमाने के लिये
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति, पर इतनी असंतुष्टि क्यों है जी।आनन्द तो आनन्द ही होता है उसे अनुभव ही किया जाए तो ही अच्छा है।
जवाब देंहटाएंसचमुच बहुत ही खूबसूरत शब्द चित्र प्रस्तुत किया आपने। तस्वीरें तो अपने आप में बोल ही रही हैं।
जवाब देंहटाएं-नीलम शर्मा 'अंशु'
एक अच्छा पोस्ट. आभार.
जवाब देंहटाएंदेहरादुन और मसुरी का वर्णन मनोरम लगा.
जवाब देंहटाएंएक भ्रम और भ्रम के इस आभास का आनंद। सहज होने पर मन को झटका लगा। मैं कल्पना लोक की उड़ान पर था। लगा यह कैसा अज्ञान था जिसने मुझे घेर रखा था।
जवाब देंहटाएंअपने अज्ञान का आभास होना ही ज्ञान की तरफ़ बढ़ा एक कदम है
अत्यंत रोचक और प्रभावशाली प्रस्तुति।
फ़ोटो शानदार हैं! पूरा वर्णन पढ कर । मजा ही आ गया!
जवाब देंहटाएंमनोज जी! पहली बार आपके ब्लॉग पर डरते डरते आया हूँ... एक साहित्यिक माहौल में मेरे जैसा असाहित्यिक व्यक्ति असहज हो ही जाता है... पिछले दिनों आपकी कमी खली... लेकिन कारण जानकर आनंद आ गया... आपका यात्रा वृतांत शीतलता प्रदान करता है... आरसी प्रसाद जी की कविता मैंने उनके साथ बैठकर सुनी थी और हमारे कोर्स में भी थी… कोलकाता छः साल रहा, राज भाषा की कुछ प्रतियोगिताएं भी जीतीं... आपके इस पोस्टने एक साथ पटना और कोलकाता की याद दिला दी, कोलकाता की उमस की...हमरे दोनों ब्लॉग को एक साथ चर्चा मंच पर स्थान प्रदान करने के लिए धन्यवाद! संगीता जी नाराज़ हैं हमसे... कारण बताया नहीं… आप सिफ़ारिश कर देंगे!!:) :)
जवाब देंहटाएंदेहरादून और मसूरी के यात्रा वर्णन ने मनोरम पहाड़ को सामने ला कर रख दिया. सुन्दर चित्रों के लिए धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंदेहरादुन और मसुरी का वर्णन मनोरम लगा.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर लगा आप का यह विवरण, चित्रो ने चार चांद लगा दिये!
जवाब देंहटाएंचित्त जब शीतल हो जाये तभी इतना सुन्दर यात्रा वृत्तान्त लिखा जा सकता है ।
जवाब देंहटाएंदेहरादून और मसूरी यात्रा वर्णन बहुत रोचक लगा....सच है कि हम स्वयं ही इतने सुन्दर प्राकृतिक स्थानों को गंदा करते हैं...फोटो बहुत अच्छे लिए हैं....
जवाब देंहटाएंदेहरादून के बारे में पढ़ कर बहुत कुछ याद आ गया...लेकिन अब वो बात कहाँ?
गया तो मैं भी था मसूरी, केम्प्टी फाल, और न जाने कहाँ-कहाँ. लेकिन, यात्रा वृत्तान्त न लिख सका. आपने तो यात्रावृत्त को अध्यात्म के साथ पिरोकर आलेख को नई दिशा ही दे दी. मनोज जी, यह आपकी ही दृष्टि हो सकती है. दृश्यों को पुनः स्मृति में लाने के लिए आपको धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंसुन्दर चित्र और जीवंत वर्णन के मणिकांचन संयोग से यह पोस्ट चलचित्र सा बन पड़ा है !!! धन्यवाद !!!!
जवाब देंहटाएंआपने देहरादून यात्रा संस्मरण के बहाने जीवन दर्शन के भी बहुत से रंग दिखाए.
जवाब देंहटाएंपिछले कुछ दिनों से गर्मी का भीषण प्रताप यहाँ(गुडगाँव में) मैं भी झेल रहा हूँ.
सच बात अपना अपना आनंद है.