मेरे छाता की यात्रा कथाऔरसौ जोड़ी घूरती आंखें!!--- --- मनोज कुमार |
---तीन---
मैं जब घर से निकलता हूँ तो सड़क के उस पार टूटी-फूटी सी एक झोपड़ी के दरवाज़े पर मेरी आंखें अनायस ही ठिठक जाती है। दफ्तर जाते समय उसमें रह रही बुढि़या कभी कभार दिख जाती भी है, पर आज नहीं दिखी। शायद अपने काम पर होगी!
दस बजते बजते धूप काफी चढ़ आई थी। धूप से बचने के लिए सिर पर छाता ताने मैं विक्टोरिया के पास से गुजर रहा था कि वह दिख गई। फुटपाथ पर एक प्लास्टिक की चट्टी बिछाए भीख मांग रही थी।
धूप, उमस और गर्मी में उसे बेहाल देख मुझे उस पर दया आ गई। मैं उसकी तरफ बढ़ा और अपना छाता उसे देकर बोला, “इसे रख लो! सिर पर छांव रहेगी।”
विक्टोरिया मेमोरियल घूमने आए पर्यटक और राह चलते राहगीरों की लगभग सौ जोड़ी आंखे मेरे इस कृत्य को देख रही थी। मुझे उनमें सराहना का भाव लगा। मैंने अपनी पीठ ठोंकी और मस्त क़दम से आगे बढ़ गया।
दफ्तर से शाम को घर की वापसी में विक्टोरिया के पास से गुज़र रहा था तो सड़क की दूसरी तरफ़ से आवज़ आई, “ए बाबू!..”
मैंने देखा वही बुढिया मेरी ओर लपकी आ रही थी। मैं कुछ बोलता, उससे पहले ही वह बोल पड़ी, “बाबू ये रख लो!” उसने मेरा छाता मेरी ओर बढाते हुए कहा, “न मुझे तुम्हारा छाता चाहिए न इसकी छांव! ये मेरी किसी काम का नहीं!!”
मैंने पूछा, “क्यों? क्या हुआ?”
उसने कहा, “अरे बाबू! जिस किसी से भी मांगती वही बोल पड़ता देखो कैसी है बुढि़या, छाता लगाकर बैठी है, और ढीठ की तरह भीख मांग रही है। आज तो मेरा धंधा ही चौपट हो गया।” इतना कहकर उसने छाता मेरी तरफ़ बढ़ा दिया, मेरा हाथ नहीं बढ़ता देख उसे ज़बर्दस्ती मेरे हाथ में थमाया। और वहां से उल्टे पांव लौट पड़ी।
मैंने देखा वहां मौज़ूद लोगों की लगभग सौ जोड़ी आंखें मुझे घूर रही थी, जैसे उस बुढिया को धूप से बचाने के लिये छाता देकर मैंने कोई अपराध कर दिया हो। मैंने छाता की तरफ देखा और अनायास मेरे मुंह से निकला “तू एक गरीब के काम नहीं आ सकता।”
बहुत अच्छी लगी छाता कथ।गरीब और अमीर की जरूरतें भी शायद अलग अलग हैं। धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंआज के समय में किसी की मदद करने से पहले विचार करने की जरूरत आ पड़ी है.
जवाब देंहटाएंअवाक् करती आपकी लघु कथा... सचमुच दिल को छूने वाली!!
जवाब देंहटाएंIse padh ke to nishabd ho gayi...! Ham samajhte kuchh hain,aur asliyat kuchh aur hotee hai..
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रसंग...
जवाब देंहटाएंVardan bhi kis prakar abhishap banjata hai, iss katha ke madhyam se achi tarah vyakt kiya gaya hai.Sadhuvaad
जवाब देंहटाएंबेचारों को आराम करना भी गुनाह है !!
जवाब देंहटाएंaisa bhee hota hai.
जवाब देंहटाएंविचारणीय प्रसंग
जवाब देंहटाएंये भी जीवन का एक रंग है। पता नहीं आपका छाता जीवन के कितने रंग दिखाए!
जवाब देंहटाएंअब तक की छतरी कथाओं से अलग यह कथा भिन्न प्रकार की संवेदना जगाती है. जरूरतमंद की प्राथमिकताएं उसकी अपनी होती हैं. हम दूर से देखने वाले कभी कभी इसी प्रकार ठगे से रह जाते हैं.
जवाब देंहटाएंकथानक, सम्प्रेषण, भाव और भाषा के दृष्टिकोण से श्रेष्ठ लघुकथा है.
@ निर्मला कपिला जी
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा आपने। ज़रूरतें बदलती रहती हैं।
@ hem pandey जी
जवाब देंहटाएंएक कहावत याद आ गई
हवन करते हाथ जल जाना।
@ सम्वेदना के स्वर
जवाब देंहटाएंआपकी संवेदना दिल छू गई।
@kshama जी
जवाब देंहटाएंयही तो विचलित करता है कि हम समझते कुछ और हैं और होता कुछ और।
@ Parashuram Rai जी
जवाब देंहटाएंआपसे सहमत!
@ संगीता पुरी जी
जवाब देंहटाएंरोज़ी-रोटी के लिए ...।
@ जुगल किशोर जी
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने। बहुत सारे रंग समेटे है।
@ हरीश प्रकाश गुप्त जी
जवाब देंहटाएंइतनी अच्छी समीक्षा के लिए आभार!
मानवीय संवेदनाओं को बताती खूबसूरत लघुकथा....गरीब पर लोग तभी तरस खाते हैं जब वो लाचारी और कठिनाईयों से जूझ रहा हो....
जवाब देंहटाएंजेसे हमारी पुलिस आम जनता के काम की नही, वेसे ही कई वस्तुये भी गरीवो के काम की नही, बहुत अच्छा लिखा धन्यवाद
जवाब देंहटाएंजैसे एक सटाक से कान के नीचे से गुजर गया हो । बहुत ही बडा सच है
जवाब देंहटाएं@ संगीता स्वरुप ( गीत ) जी
जवाब देंहटाएंलाचारी और कठिनाइयां उनके जीवन का अंग बन चुका हैं।
@ राज भाटिय़ा जी
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा पुलिस से दिया गया उपमा।
@ अजय कुमार झा जी
जवाब देंहटाएंइस सत्य से रू-ब-रू ज्ब हुआ था तो मुझे भी लगा था कि किसी ने दिल पर घूसा मारा हो।
Irony of life !
जवाब देंहटाएंयह कथा समकालीन साहित्य को अमूल्य देन है. शिल्प की नवीनता हो संदेशों का सम्प्रेषण... सब कुछ अद्वितीय. हमारी भौतिक सफलता पर प्रश्न-चिन्ह है. वह बहुपयोगी संसाधन जो एक गरीब के आंसू नहीं पोछ पाए, आखिर उसकी उपादेयता क्या है ? कैसी विडम्बना है.... एक अबला (समाज का अंतिम आदमी) के सर पे जब छतरी आती है तो पेट में दाना नहीं..... ! उदर-ज्वाला को शांत करने के लिए, सिर की छतरी को उतार फेंकना पड़ा.... हाय रे दुर्दिन ! बापू, क्या यही है आपका हिंद स्वाराज ? वशीर बद्र की एक शायरी है,
जवाब देंहटाएं"जिन्दगी तू ने मुझे कब्र से कम दी है जमीं !
पाँव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है !!"
@करण समस्तीपुरी जी
जवाब देंहटाएंशब्द नहीं हैं इतनी अच्छी समीक्षा के प्रति आभार प्रकट करने के लिए।