सोमवार, 28 जून 2010

मेरे छाता की यात्रा कथा और सौ जोड़ी घूरती आंखें!!

मेरे छाता की यात्रा कथा

और

सौ जोड़ी घूरती आंखें!!


--- --- मनोज कुमार

---तीन---

मैं जब घर से निकलता हूँ तो सड़क के उस पार टूटी-फूटी सी एक झोपड़ी के दरवाज़े पर मेरी आंखें अनायस ही ठिठक जाती है। दफ्तर जाते समय उसमें रह रही बुढि़या कभी कभार दिख जाती भी है, पर आज नहीं दिखी। शायद अपने काम पर होगी!

दस बजते बजते धूप काफी चढ़ आई थी। धूप से बचने के लिए सिर पर छाता ताने मैं विक्‍टोरिया के पास से गुजर रहा था कि वह दिख गई। फुटपाथ पर एक प्‍लास्टिक की चट्टी बिछाए भीख मांग रही थी।

धूप, उमस और गर्मी में उसे बेहाल देख मुझे उस पर दया आ गई। मैं उसकी तरफ बढ़ा और अपना छाता उसे देकर बोला, “इसे रख लो! सिर पर छांव रहेगी।”

विक्‍टोरिया मेमोरियल घूमने आए पर्यटक और राह चलते राहगीरों की लगभग सौ जोड़ी आंखे मेरे इस कृत्‍य को देख रही थी। मुझे उनमें सराहना का भाव लगा। मैंने अपनी पीठ ठोंकी और मस्त क़दम से आगे बढ़ गया।

दफ्तर से शाम को घर की वापसी में विक्टोरिया के पास से गुज़र रहा था तो सड़क की दूसरी तरफ़ से आवज़ आई, “ए बाबू!..”

मैंने देखा वही बुढिया मेरी ओर लपकी आ रही थी। मैं कुछ बोलता, उससे पहले ही वह बोल पड़ी, “बाबू ये रख लो!” उसने मेरा छाता मेरी ओर बढाते हुए कहा, “न मुझे तुम्हारा छाता चाहिए न इसकी छांव! ये मेरी किसी काम का नहीं!!”

मैंने पूछा, “क्‍यों? क्‍या हुआ?”

उसने कहा, “अरे बाबू! जिस किसी से भी मांगती वही बोल पड़ता देखो कैसी है बुढि़या, छाता लगाकर बैठी है, और ढीठ की तरह भीख मांग रही है। आज तो मेरा धंधा ही चौपट हो गया।” इतना कहकर उसने छाता मेरी तरफ़ बढ़ा दिया, मेरा हाथ नहीं बढ़ता देख उसे ज़बर्दस्ती मेरे हाथ में थमाया। और वहां से उल्‍टे पांव लौट पड़ी।

मैंने देखा वहां मौज़ूद लोगों की लगभग सौ जोड़ी आंखें मुझे घूर रही थी, जैसे उस बुढिया को धूप से बचाने के लिये छाता देकर मैंने कोई अपराध कर दिया हो। मैंने छाता की तरफ देखा और अनायास मेरे मुंह से निकला “तू एक गरीब के काम नहीं आ सकता।”

28 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी लगी छाता कथ।गरीब और अमीर की जरूरतें भी शायद अलग अलग हैं। धन्यवाद्

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  2. आज के समय में किसी की मदद करने से पहले विचार करने की जरूरत आ पड़ी है.

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  3. अवाक् करती आपकी लघु कथा... सचमुच दिल को छूने वाली!!

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  4. Ise padh ke to nishabd ho gayi...! Ham samajhte kuchh hain,aur asliyat kuchh aur hotee hai..

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  5. Vardan bhi kis prakar abhishap banjata hai, iss katha ke madhyam se achi tarah vyakt kiya gaya hai.Sadhuvaad

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  6. बेचारों को आराम करना भी गुनाह है !!

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  7. ये भी जीवन का एक रंग है। पता नहीं आपका छाता जीवन के कितने रंग दिखाए!

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  8. अब तक की छतरी कथाओं से अलग यह कथा भिन्न प्रकार की संवेदना जगाती है. जरूरतमंद की प्राथमिकताएं उसकी अपनी होती हैं. हम दूर से देखने वाले कभी कभी इसी प्रकार ठगे से रह जाते हैं.
    कथानक, सम्प्रेषण, भाव और भाषा के दृष्टिकोण से श्रेष्ठ लघुकथा है.

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  9. @ निर्मला कपिला जी
    बहुत सही कहा आपने। ज़रूरतें बदलती रहती हैं।

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  10. @ hem pandey जी
    एक कहावत याद आ गई
    हवन करते हाथ जल जाना।

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  11. @ सम्वेदना के स्वर
    आपकी संवेदना दिल छू गई।

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  12. @kshama जी
    यही तो विचलित करता है कि हम समझते कुछ और हैं और होता कुछ और।

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  13. @ संगीता पुरी जी
    रोज़ी-रोटी के लिए ...।

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  14. @ जुगल किशोर जी
    सच कहा आपने। बहुत सारे रंग समेटे है।

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  15. @ हरीश प्रकाश गुप्त जी
    इतनी अच्छी समीक्षा के लिए आभार!

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  16. मानवीय संवेदनाओं को बताती खूबसूरत लघुकथा....गरीब पर लोग तभी तरस खाते हैं जब वो लाचारी और कठिनाईयों से जूझ रहा हो....

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  17. जेसे हमारी पुलिस आम जनता के काम की नही, वेसे ही कई वस्तुये भी गरीवो के काम की नही, बहुत अच्छा लिखा धन्यवाद

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  18. जैसे एक सटाक से कान के नीचे से गुजर गया हो । बहुत ही बडा सच है

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  19. @ संगीता स्वरुप ( गीत ) जी
    लाचारी और कठिनाइयां उनके जीवन का अंग बन चुका हैं।

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  20. @ राज भाटिय़ा जी
    बहुत अच्छा लगा पुलिस से दिया गया उपमा।

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  21. @ अजय कुमार झा जी
    इस सत्य से रू-ब-रू ज्ब हुआ था तो मुझे भी लगा था कि किसी ने दिल पर घूसा मारा हो।

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  22. यह कथा समकालीन साहित्य को अमूल्य देन है. शिल्प की नवीनता हो संदेशों का सम्प्रेषण... सब कुछ अद्वितीय. हमारी भौतिक सफलता पर प्रश्न-चिन्ह है. वह बहुपयोगी संसाधन जो एक गरीब के आंसू नहीं पोछ पाए, आखिर उसकी उपादेयता क्या है ? कैसी विडम्बना है.... एक अबला (समाज का अंतिम आदमी) के सर पे जब छतरी आती है तो पेट में दाना नहीं..... ! उदर-ज्वाला को शांत करने के लिए, सिर की छतरी को उतार फेंकना पड़ा.... हाय रे दुर्दिन ! बापू, क्या यही है आपका हिंद स्वाराज ? वशीर बद्र की एक शायरी है,

    "जिन्दगी तू ने मुझे कब्र से कम दी है जमीं !
    पाँव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है !!"

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  23. @करण समस्तीपुरी जी
    शब्द नहीं हैं इतनी अच्छी समीक्षा के प्रति आभार प्रकट करने के लिए।

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