-- करण समस्तीपुरी
राम-राम !
उफ़... ! गाँव दिश तो बड़ी गर्मी है। हालांकि पले-बढे तो वही में मगर अब उ बात तो रहा नहीं न.... ! सुनते हैं, गिलोबल वारमिन (ग्लोबल वार्मिंग) गांवो तक पहुँच गया। पहुंचेगा नहीं.... ? ससुर गाछ-विरिछ सब काट दिहिस, माटी-भित्ति, चार-फूस के घर तोर-तार के पक्का पीट दिहिस। अब उ गर्मी सोखे सो कौन... ? तो आदमिये सब झरकता है। शहर में तो बिजली पंखा से देह का धाह बुझाता है मगर गाँव में बिजली नदारद तो हथ-पंखा कितना झले... ! तैय्यो लगन था सो जाना ही पड़ा।
भगजोगनी के लिए एकदम जोग घर-वर देखे थे धरमू काका। लड़का भी बोरा-फेक्टरी में काम करता था। घर पर दू-चार बीघा चास भी था। धरमू काका भी अपना भर कौनो कसर नहीं उठा रक्खे थे। भगजोगनी घर में सबसे छोट थी। इसके बाद तो फिर पकौरी लाल और झनकू में गिनाना ही था। सो बर्कुरबा खेत बेच के नकद दिए और ब्याह के खर्चा के लिए कोठा पर वाला खेत भरना लगा दिए। मंगनी-छेका के लिए भी जीप साज के गए थे।
लेकिन जैसे-जैसे धरमू काका दिल खोल रहे थे, ससुर लड़का वाला भी वैसे ही नीबू के तरह निचोरे लगा। नगद के बाद लड़की के गहना और लड़का के रेडियो-घड़ी भी गछा लिहिस। सब कुछ तय हो गया तो लगन का दिन ले के हजाम गया। अब उ लोग कहे लगा कि साइकिल और टेप-रेकट भी चाहिए। ऊपर से बैंड-बाजा और बराती के गाड़ी खर्चा भी देना होगा। अब जुगेसर हजाम वही गाँव से तार-फोन किया ! पूरा घर लगन के तैय्यारी.... बेचारे काका का करते... सब में राजी हो गए। मगर शर्त इहे लगा दिए कि भाई, अभी जुगेसर हजाम कहाँ से ई सब देगा... ? सो ब्याह का दिन मान लीजिये और बराती लेकर जब आइयेगा तभिये सब चुकता कर देंगे। जुगेसर भी बात लगाने में माहिर था। समाधी के पैर-दाढी पकर के बात मनवा लिहिस।
हम पहुंचे तो काका सब किस्सा कहे। हामको तो तलवा के लहर मगज पर चढ़ गया। हम कहे, "काका ! आप इतना झुके काहे... इसीलिए उ लोग का मन बढ़ गया है।" काका बोले, "मार बुरबक ! बेटी के ब्याह में ऐसे ही झुक के रहना पड़ता है। एक बार भगजोगनी के सीथ सिंदूर चढ़ जाए फिर हम उ लोगो के हाथ लगने वाले हैं... !" हम काका का मुंहे देखते रह गए।
खैर इधर ब्याह का तैय्यारी धूम-धाम से हुआ। बराती आ तो गया था टाइमे पर मगर समधी लगा जलवासे पर रगर-घस करने। पहिले जो-जो गछे हैं सो पूरा कीजिये, तब दरबाजा लगायेंगे। हमारा तो एकदम हाथ कसमसा रहा था...! मन तो किया कि सब बरियतिया को धो-धा के पवित्तर कर दें। मगर काका कहे हुए थे कि बेटी के ब्याह मे झुक कर के ही रहना होता है। लेकिन बौकू मामू के बुद्धि के दोहाई देना होगा। कहे, "अरे ! धरमू बाबू कन्यादान करने के लिए उपवास किये हैं... उ अभी कैसे आ सकते हैं ? नकदी तो वही देंगे... और समान सब तो रेडी है। कहिये तो यहाँ ला के रख दें... मगर आप लोग जाइएगा दरवाजा लगाने और इधर चोरी-चुहारी हो गया तो... अपना सोचिये ! और नहीं जो हमरी बात मानिए तो चलिए दरवाजा लगाइए... ! उहें सब किलियर हो जाएगा।"
बौकू मामू का एकदम रामवाण जैसा असर किया। खूब नाच गाना करके बारात दरवाजे लगा। दरवाजे पर पहुँचते ही फिर समधी साहेब मामू को इशारा कर दिए। मामू भी अपना हाँ-हाँ करते रहे और इधर विध-वाद होता रहा। लड़का गया मंडप पर इधर बराती के भोजन का इन्तिजाम होने लगा। फिर समधी लगा नखरा पसारे। हमरा तो मन हुआ कि खरे-खरी बोल देते हैं। मगर मामू फिर संभाल लिए। कहे, "अरे भोजन तो कीजिये ! रुपैय्या और समान कहीं भगा थोड़े न जा रहा है ? अब तो दोनों घर आप ही का हुआ। धरमू बाबू कन्यादान करके मंडप से उठते हैं... तो आपको सबकुछ बाकलम ख़ास कर देंगे !
चलो इसी भांति ब्याह भी निपट गया। वर-दुल्हिन शुभ-शुभ कर कोहबर गए। जननी जाति अपना गीत-मंगल गाती रही और धरमू काका भी अपना कान में तेल दाल के सो गए। लेकिन समधी जी को तो जैसे रात भर नींद नहीं आयी। भोरे-भोर संवाद भेज दिया। फिर सुबह का जलपान में भी नाकुर-नुकुर किये। थोड़े बहुत नखरा बतियाये। इधर धरमू काका भी हाँ-हाँ दे रहे हैं। ये निकाल रहे हैं.... ! एक मिनट रुक जाइए। कुंजी भगजोगनी की माँ के पास है... ! कह-कह के ताल रहे थे।
भातखाई बेला तो साफे एलान कर दिए कि जब तक धरमु बाबू सब बकाया बेमाक नहीं करेंगे, तब तक हम भातखाई नहीं करेंगे। इधर समधी के जीमने के लिए तिलकोर का तरुआ तैयार है। रोहू मछली के लहसुनिया सुगंध से टोला गमक रहा है। लेकिन समधी न्योत माने तब तो। समधी तो एकदम जिद पर अड़ गए। अब ले... कहाँ से लायेंगे धरमू काका... उतना सब कुछ ? सब आदमी सब घबरा गया कि अब का होगा।
लेकिन धरमू काका थे खेलल कचहरिय। कहे कि मार ससुर के नाती को। खायेंगे तब भी नहीं खायेंगे तब भी.... अपने बला से। हमरा क्या बिगाड़ेंगे ? जितना ही हम सिर झुकाते और दिल खोलते गए.... बाबू साहेब का मन बढ़ गया। तभी तो हमको कन्यादान का गरज था इसीलिए हाँ में हाँ करते गए। अब ले ले शक्करकंद। "अब तो हुआ ब्याह करेगा क्या... ? धीया (बेटी) छोड़ कर लेगा क्या... ??"
"हुआ ब्याह करेगा क्या...? धीया छोड़ कर लेगा क्या...??" हा...हा...हा...हा... ! उ गहमा-गहमी में भी काका जो टोन में ई बात कहे कि सब लोग हिहिया दिया। एकाध आदमी कहा, "आ..हा... ! धरमू बाबू , ई का कहते हैं... ?" काका कहे, "सोलहो आने ठीक कहते हैं। अब तो ब्याह हो गया। खाना है तो खाएं नहीं तो दुल्हन ले के जाएँ। यहाँ कौनो खैरात फलता है का ?" कुच्छे देर में काका का वचन सत्ये हो गया।
काका की बात जब समधी जी तक पहुंची तो बेचारे को खल्बल्ली जोत दिया। उ अड़े रहे मगर बौकू मामू और बराती सब को रोहू का छौंक लगा कर भातखाई के लिए मन लिए। सब बराती जब राजिये हो गया तो बेचारे समाधियो मान मार कर तैयार हो गए। बेचारे सोचे कि साइकिल, टेप रेकट तो नाहीये मिला, रूठे रहे तो रहू के कांटो नहीं मिलेगा.... !
खैर भातखाई भी हुआ। समधी-मिलान भी। और कन्या के विदाई भी। धरमू काका तो ऐसन गोटी भांजे की लोभी के दूम समधी सब चाले मात खा गया। पहिले जो लिए सो लिए मगर बाद वाला समान के लिए सारा ताव मूछे पर रह गया। आराम से विदाई कराये और किस्सा ख़तम। इस तरह से भगजोगनी का ब्याह-शादी तो निपट गया मगर काका की बोली कहावते बन गयी, "हुआ ब्याह करेगा क्या...? धीया छोड़ कर लेगा क्या.... ??"
अर्थात कोई भी दाव अवसर पर ही सही बैठता है। समय निकल जाने के बाद कोई बुद्धिमत्ता काम नहीं आती।
aage kee kadee ka intzar..........
जवाब देंहटाएं"हुआ ब्याह करेगा क्या...? धीया छोड़ कर लेगा क्या.... ??"
जवाब देंहटाएंसन्देसपरक और जानकारी देने वाली पोस्ट के लिए बधाई!
ई कहावत एकदम्मे सटीक है। और लेखनी तो लजवाब।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरती से सटीक कहावत कह देते हैं...सुन्दर
जवाब देंहटाएंअर्थात कोई भी दाव अवसर पर ही सही बैठता है। समय निकल जाने के बाद कोई बुद्धिमत्ता काम नहीं आती।
जवाब देंहटाएंकई सप्ताह बाद देसिल बयना पढा .. बहुत बढिया संदेश दे रही है यह पोस्ट !!
आईये सुनें ... अमृत वाणी ।
जवाब देंहटाएंआचार्य जी
शानदार प्रस्तुति।
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