शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

फ़ुरसत में … बूट पॉलिश!

shoe polish फ़ुरसत में …

बूट पॉलिश!

IMG_0130              मनोज कुमार

आज फ़ुरसत में मैं ... अपनी ज़िन्दगी के वसंत से स्मृति की यात्रा शुरु करना चाहता हूं। ज़िन्दगी के वसंत की शुरुआत लंगट सिंह कॉलेज के प्रांगण से होती है।

बात उन दिनों की है जब मैं कॉलेज में दाखिल हुआ था। फ़ुरसत में आज वो दिन याद आ गए। इसके पहले ज़िला स्कूल में पढता था। उस स्कूल का यदि हिन्दी में नाम दूं तो यूं बनेगा, बहु-उद्देशीय उच्चतर माध्यमिक बाल विद्यालय (Multipurpose Higher Secondary boys school) । चूंकि इस तरह का सरकारी स्कूल पूरे ज़िले में एक ही होता था, तो उसे ज़िला स्कूल भी कहा जाता था। अब स्कूल के सुक्खाड़ से लंगट सिंह महाविद्यालय के रमन-चमन में हम पहुंचे थे तो मुझे भी कुछ-कुछ होने लगा था।

नहीं समझे? समझाता हूं। आपने स्कूल के नाम पर ग़ौर नहीं फ़रमाया, ‘छात्र विद्यालय’! जी! सिर्फ़ छात्र ...! छात्राओं का विद्यालय तो बगल के कैम्पस में था, चैपमैन बालिका उच्च विद्यालय। ... और उनकी क्लास हमारे से आधा घंटा पहले लगती थी, ख़त्म हो जाती थी आधा घंटा पहले ही। यानी कि उनके दर्शन के भी लाले पड़ते थे। ऊपर से दूसरी मुसीबत यह थी कि ब्रह्मपुरा से स्कूल की दूरी साढे चार किलोमीटर की यात्रा पैदल करनी होती थी। लड़कों के साथ यही मुसीबत थी। लड़कियां तो रिक्शा पकड़ती थीं, तीन-चार जने कुच्चम-कुच्चा करके बैठतीं और घर आकर चार-चार आने के शेयर में काम चला लेतीं। हमारा तो, घर से सीधे स्कूल आना और शाम को खत्म होने पर सीधे घर भागना, यही नित्य की रूटिन थी।

दर्शन कभी कभार हो भी जाता था, तो हमारी एक और मुसीबत थी। मेरी बड़ी बहन उस बलिका उच्च विद्यालय में पढती थी। अब उस ज़माने में दीदी के स्कूल की सारी बालिकाएं ‘दीदी’ ही तो होती थी!

ख़ैर यह मुसीबत एल.एस. कॉलेज में नहीं थी, क्योंकि एक तो दीदी, जिसे हम दिद्दा कहते थे, हमारे प्रथम प्रधान मंत्री अपनी बहन को दिद्दा कह कह संबोधित करते थे, यह कहीं पढा था, तो हमने भी अपनी बड़ी बहन को दिद्दा बुलाना शुरु कर दिया। उन दिनों हम अपने देश के महापुरुषों की बातों का अनुकरण कर गर्व की अनुभूति किया करते थे। आज ..... छोड़िए!

.... तो मैं यह कह रहा था कि दिद्दा का महाविद्यालय की पढाई के लिए दाखिला हुआ था महंत दर्शन दास महिला महाविद्यालय में और हम आए लंगट सिंह कॉलेज। और यहां रमन-चमन था! मतलब हरी-नीली-पीली-लाल, रंग-बिरंगी ड्रेस में ... सजी-धजी बालाएं। पहले दिन तो हम इतना शर्माए-घबराए कि क्लास में प्रोफ़ेसर के आने के पहले तक क्लास के बाहर ही रहे।

.... तो बात उन्हीं रमन-चमन वाले दिनों की है! अपना पहला-पहला ‘ब्रेकअप’ हुआ था। जी, ... ये शब्द तो इक्कीसवीं शताब्दी का है। हम तो बीसवीं शताब्दी के उन दिनों में उन्नीसवीं सदी वाला प्रेम कर बैठे थे। जब ‘ब्रेकअप’ हो ही गया था तो आहें भरने के दिन भी आ गए थे। उस ज़माने में लड़कियों को सर झुका कर चलना सिखाया जाता था। और वे बेचारी इतना आदेश मानती थीं कि सर ऐसे झुका के चलती थीं कि उन्हें उनके ही पैर का नाखून देखना होता था। उन दिनों यदि किसी लड़के को देख लिया तो बस समझिए कि शहर का बने-न-बने, मुहल्ले का समाचार तो बन ही जाता था, कि फ़लां ने फ़लां को देखा। ... और ख़ुदा-न-ख़ास्ता उसे देख कर हंस-मुस्कुरा दी, ... तो ख़ुदा ख़ैर करे, गॉसिप शुरु! फ़िर तो ऐसी ज़िल्लत होती थी, मानों कोई पाप कर लिया हो।

इस महौल के पारंपरिक वातावरण और ज़िला स्कूल के सुक्खाड़ के बाद एल.एस.कॉलेज की हरियाली में एक दिन ऐसा ‘हवा’ का झोंका आया कि मेरा तो पूरा का पूरा आशियाना ही उड़ गया। सफेद वस्त्रों में सजी, दुधिया रंग की उस तरुणी के गुज़रते ही विज्ञान संकाय के सुरम्य वातावरण में सुगंधों से भरी सुहानी हवा तैर गई! नाम-धाम मालूम होते-होते, हमारे ज़माने में चार-छह महीने तो लग ही जाते थे। क्लास में रॉल नम्बर से ही पहचान मिलती थी। हमारे क्लास की टू एट्टी एट तो आज भी हमें चेहरे के साथ याद है, पर नाम .... पता नहीं!

... तो ‘हवा’ जिस तेज़ी से आई, उसी तेज़ी से सर्र से चली भी गई! पर उसके इस आने में, अनजाने में, उससे इश्क़ हो गया, .... और हमारे सकुचाने, शर्माने के इश्किया हाव-भाव को बिना नोटिस किए, बिना दृष्टिपात किए सट्‌ से उसके चले जाने में, ‘ब्रेकअप’!!!

दिल के हज़ारों टुकड़ों को अपने आस-पास फैलाए प्रैक्टिकल लैब में उदास-सा, देवदास-सा, बैठा था। ग़मगीन चेहरा, ... मुकेश द्वारा गाए एक गाने “ज़िन्दा हूं इस तरह कि हमें ज़िन्दगी नहीं” के नायक के चेहरे से भी ज़्यादा दर्दनाक!! साथियो ने पहले पूछा, मेरा जवाब न पाकर चिढाया “– क्या हुआ? .... अबे ! कुछ तो बोल!!” पर देवदासी सूरत से आवाज़ कहीं इत्ती ज़ल्दी निकलती है!! कुछेक ने बार-बार आग्रह किया कि मैं उन्हें मन के भेद बताऊं। तो मुंह से जो निकला, वह जन्तुविज्ञान (Zoology) के छात्र होने के नाते ठीक ही बिम्ब था, आगे की बात के पहले वही सुन लीजिए ...

 

“मैं लटका रहा उनके कानों में रिंग (Ring) की तरह

उन्होंने डस लिया हनी बी (honey bee) के स्टिंग (sting) की तरह!”

इसे ग़ालिबाना शे’र का तमगा देते हुए मेरे यार-दोस्तों ने मेरे दर्द को सुने-समझे बग़ैर जो वाह-वाही की कि मैं पूरे कैम्पस में कवि-शायर घोषित कर दिया गया।

कॉलेज के ‘ब्रेकअप’ का असर घर तक पहुंच गया था। घर में नई-नई आई भाभी ने मेरा हाल-ए-दिल ताड़ लिया। बोलीं, “कुछ तो है जो मेरे देवर जी का चेहरा उतरा हुआ है!” अब किसी से तो अपना ग़म बताना था। बता दिया। अनुभवी भाभी बोलीं, “ऐसे रूखे-सूखे कॉलेज जाइएगा तो थोड़े न कोई घास डालेगी! थोड़ा बन-संवर कर जाइए।” बस भाभी के उकसाने से उम्मीद की किरण फूटी, ... कपड़ों की रविवासरीय साफ़-सफ़ाई का कर्यक्रम हुआ, ... टीनोपाल (नील) डाला गया, ... मांड़ के घोल से उसका कलफ़ बना, ... और आग वाली इस्तरी से उसके तह बैठाए गए।

बोम्बे सैलून, हमारे ब्रह्मपुरा चौक पर ही था! उसमें दाढी बनवाई गई। ... और नाई को सख़्त निर्देश दिया गया कि फ़िटकिरी ज़रा ठीक से रगड़े, ऊपरे-ऊपरे नहीं, ताकि चेहरे पर चमक आए! जब घर से सोमवार को कॉलेज के लिए निकलने लगा तो भाभी ने अपने मायके से मिले अफ़ग़ान स्नो और हिमालय पाउडर भी दिए लगाने को। उन दिनों बिहार में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फ़ेयर एण्ड लवली थी वह। अब उन दिनों लोरियाल, गार्नियर या शहनाज़ का ज़माना थोड़े ही था। पर, वाह क्या गमकौआ पाउडर था भौजी का। स्नो-पाउडर लगाकर हम टनाटन कॉलेज पहुंचे।

कॉलेज में जिस किसी दोस्त के पास जाते, ऐसा नांक-भौं सिकोड़ता, मानों हम कोई अन्य ग्रह से आए प्राणी हों। एक ने तो कह ही दिया, “क्या मौगी की तरह आज स्नो-पाउडर लगा कर आए हो!” प्रथमे ग्रासे मच्छिका पातः! ऐसी दुर्गति!! पहले पीरियड के बाद कॉलेज के लॉन में इधर से उधर भटकते दिन बिताया।

हम ज़िन्दगी की क्लास में तुक मिला पाएं हों या न हों, कविताओं के तुक मिलाने लगे।

कुछ तो जानकी वल्लभ शास्त्री के शहर के होने का प्रभाव, कुछ हमारे उपकुलपति डॉ. श्याम नंदन किशोर, जो हमारी हिन्दी की क्लास भी लेने आते थे, के व्याखानों का कमाल और कुछ उसी क्लास में उनकी, उन दिनों कवि के रूप में उभर रही, पुत्री अनामिका को सुनने-पढने का असर, --- कि हम ज़िन्दगी की क्लास में तुक मिला पाएं हों या न हों, कविताओं के तुक मिलाने लगे। ... जब तुक मिले तो दोस्तों को सुनाने भी लगे। यार-दोस्त, कुछ भी हो, यार-दोस्त ही होते हैं! ऐसी-ऐसी दाद देनी शुरु किए कि उन दिनों हम तो ख़ुद को काका हाथरसी से कम थोड़े ही समझते थे। पर दिक्क़्त यह आई कि काका की तरह मनोज तो ठीक ठाक है, पर हाथरसी की तरह के बिना किसी उपनाम के कोई कवि या शायर थोड़े ही कहलाता है? अब मुज़फ़्फ़रपुरी तो पहले से ही थे उस क्षेत्र में। तो समस्या यह आई कि कुछ नया सोचना था। विचार मंथन का दौर शुरु हुआ और जो कुछ यार-दोस्तों ने सुझाए मुझे पसंद नहीं आया, और जो मैंने ख़ुद चुना अपने लिए, मेरी मित्र मंडली ने रिजेक्ट कर दिया।

एक दिन झटके में कुछ ऐसा वाक़या हुआ कि एक उपनाम सूझ गया मुझे। चूंकि हमारे स्वभाव में ही था झट से किसी के प्रेमपाश में बंध जाना और नसीब में था फट से उस बंधन का टूट जाना। ... तो बस मुंह लटका कर बैठे रहना मेरी नियति हो गई थी। ऐसे में एक दिन यार दोस्तों की फ़ौज़ ने कैंटिन के कोने में हमें धर लिया और लगे रगड़ने, “क्या मनहूस सी सूरत बनाकर बैठे हो?”

इस नामाकरण में ‘म’ का अनुप्रास तो है ही, और यही तो पचास फ़ीसदी कवि या शायर के रूप में मुझे स्थापित किए दे रहा है।

उनके मुंह से यह सुनकर मुझे लगा कि इससे बेहतर और क्या हो सकता है मेरे लिए उपनाम, तख़ल्लुस! आख़िर जिस व्यक्ति का साल के ५२ हफ़्तों में ५२ बार दिल टूटता हो, उसके लिए इससे बेहतर उपाधि कुछ हो ही नहीं सकती! तो उस दिन से अपना नाम रखलिया मनोज “मनहूस”। इस नामाकरण की विशेषता भी मन ही मन गढ ली, एक तो इसमें ‘म’ का अनुप्रास तो है ही, और यही तो पचास फ़ीसदी कवि या शायर के रूप में मुझे स्थापित किए दे रहा है। दूसरी विशेषता यह कि इसको रखने वाला उन दिनों क्या आज तक मुझे कोई दूसरा नहीं मिला!!

इस नाम से जो पहली रचना मेरी आई वह ‘हवा’ को ही समर्पित थी। दो लाइन देखिए –

“प्रेयसी तेरा रूप सलोना

अपनी इस भोंडी सूरत पे रोज़ मुझे आता है रोना!”

उन दिनों स्थानीय अख़बार था एक। कुछ झकाझक समाचार टाइप का। उसमें छप भी गई यह रचना। इसके छपते ही मैं स्वघोषित स्थानीय कवि से शहरी कवि हो गया। जब शहरी कवि हो गया तो करने निकला शहर भ्रमण। वरना आपको तो मालूम है, हम थे बिना सायकल वाले, और पदयात्रा करने वाला यह फ़कीर, मानों मुज़फ़्फ़रपुर के कूप का मंडूक हों। जब शहर घूम-घाम लिया तो काका हाथरसी की रचना के कुछ अंश की नकल की और कुछ अंश सीधे चुरा लिए और एक कविता बनाई – कुछ अंश देखिए

घाट अखारा गए तो, अखारा मिला न एक,

देखे मुर्दे घाट पर जलते हुए अनेक।

पहुंचा जिस बाज़ार में पूरी हुई न आस,

मूड बिगड़ कर हो गया मन का सत्यानास।

मन का सत्यानास पहुंचा जब मैं गोला,

मूड बनाना चाहा तो मिला न भांग का गोला।

हम तो मोती झील जाकर के पछताए,

मोती की झील के बदले कुत्ते मोती पाए।

कुत्ते मोती पाए भागा रखकर सिर पर पैर,

धर्मशाला पहुंचा तो देखा नहीं धर्म की खैर।

धर्म-कर्म के नाम पर पैसे जाते लूटे,

नयाटोला पहुंच कर घर सब पाते टूटे।

बिना सायकल के मैं चार साल स्कूल के, चार साल महाविद्यालय के तथा दो साल विश्‍वविद्यालय के झेलता रहा था। उस ज़माने में सायकल से स्कूल जाना चभरलेट (Chevrolet) से जाने के समान होता था। पूरे ज़िला स्कूल में एक ही ऐसा खुशनसीब था, और सूतापट्टी के एक कपड़ा व्यवसायी का वह सुपुत्र जिस दिन नई रेल्ले सायकल से स्कूल पहुंचा तो यार-दोस्तों ने स्वागत में कहा था, “की रे! रविया! आज एम्पाला से!! तनी ठाट देख लाटसाहेब के!!!”

अब अपने पिताजी थे रेलवे में मामूली लिपिक। खुद तो १९३० मॉडेल खटारा सायकल से दफ़्तर जाते थे, तो हमारे लिए एम्पाला कहां से जुगाड़ते!

कवित्व मेरा चल पड़ा और हम तो छाने लगे। कारण जो भी हो ये नए उपनाम का कमाल था इससे मैं इन्कार करना नहीं चाहता। पर ऐसा नहीं था कि हमारे नाम के आगे उपनाम शुरु से ही नहीं था। उन दिनों देश के प्रसिद्ध रजनीतिक घराने के एक उभरते हुए नेता के आह्वान पर समाज से जात-पात के भेद-भाव हटाने के उद्देश्य से अपने नाम के आगे का उपनाम, जो जाति सूचक भी था हटा दिया था। अब इसका हमारे समाज से इस प्रथा को हटाने में कितना योगदान हुआ कह नहीं सकता, पर एक घटना आपसे शेयर करने का प्रसंग तो आ ही गया है। मंडल की घोषणा के साथ जो जातीय विद्वेष चारो तरफ़ फैला था, उसका असर कॉलेज के कैम्पस तक भी पहुंच गया था। परीक्षा का एडमिट कार्ड लेने जब कॉलेज पहुंचा तो सारे वातावरण में तनाव का-सा माहौल लगा। कारण मेरी समझ से परे था। ज्योंही काउण्टर से एडमिट कार्ड लेकर बाहर आया कि छात्रों का एक समूह आया और उसे छीनने लगा। मैंने प्रतिरोध किया तो स्वर आया, “मार ... साले ... को! वही है...!” मैं कुछ समझूं, तब तक मेरा एडमिट कार्ड किसी के हाथ में था। उसने पढा नाम मेरा और कोई जातीय उपनाम न पाकर बोला, “अपने ही ग्रूप का है, ... छोड़ दे...!”

भगवान को लाख-लाख धन्यवाद देता आगे बढा। प्रशासन भवन के बहार आने पर कॉलेज की गेट की तरफ़ जाते हुए बीच में बेनीपुरी कॉलेज पड़ता है। उसके सामने एक और ग्रूप खड़ा था। अब उनकी जांच का केन्द्र बिन्दु मैं और मेरा एडमिट कार्ड बना। मेरे नाम के आगे जातीय उपनाम न होने के कारण शंका की सूई मेरी ओर घूमी। ... एक लपका मेरी तरफ़, शोर उठा, “मार ... स्साले को ...!” तभी किसी की नज़र पिता वाले कॉलम पर पड़ी और पिता के नाम के आगे के उपनाम ने उनमें से एक को सद्बुद्धि दी। वह चिल्लाया, “अरे! अपना है!! छोड़ दे!!” ... और मुझे घूरकर बोला, “साला बोल नहीं सकता था कि तू (....) जात का है?”

इस तरह बचते-बचाते आगे भागा। तभी पीछे शोर हुआ। घूम कर देखा तो पाता हूं कि एक छात्र उन दो समूहों में से एक की चपेट में आ चुका है। उसे चार-छह छात्रों ने जकड़ रखा था। फिर न सिर्फ़ उसकी ठुकाई की गई, बल्कि एक ने उसके हाथ को सड़क पर रख कर ईंट से उंगलियों पर दे मारा! फिर अपनी बहदुरी प्रदर्शित करते हुए बोला, “जा.... साले ... जा, अब दे परीक्षा!”

इतने सालों के (चार दशक) बाद एक बार फिर से मुझे लोगों को जात क्या है मेरी, बताना पड़ेगा? सुना है जनगणना करने वाले आएंगे, और पूछेंगे कि मेरी जात क्या है? अब इस देश के नागरिकों में गिना जाना है तो बताना तो पड़ेगा ही! मैं तो मन बना चुका हूं कि कहूंगा, “मोची!!”

“देख लो ! ... बाबू देख लो... हो सके तो चेहरा देख लो !!! ... बीते हुए कल का और आने वाले कल का भी ... चेहरा!!! ......”

जी, हा! मोची! ... जो लोगों के फटे जूते सिलता है। उनपर पैबंद लगाता है, सोल चढाता है, ताकि इंसान आराम से चल सके। साथ ही उनके गंदे हो चुके, मैले हो चुके, जूते चमकाता है, ... चमक आ जाने के बाद उनसे कहता है, “देखिए साहब! ऐसा चमका दिया है कि आप इसमें अपना चेहरा देख लें!”

मैं उस पल की कल्पना में अक्सर खो जाता हूं। ... मेरे सामने मेरे घर के सामने वाला फुटपाथ होता है। उस फुटपाथ पर मैं बैठा हूं और मेरे हाथ में जूता है, जिसे मैं चमका चुका हूं, ब्रश और काली पॉलिश से! .... जूते में चमक आ गई है, और मेरे सामने उस जूते का स्वामी है, जो मेरी जात पूछ रहा है .... उसे मैं कहता हूं, “देख लो ! ... बाबू देख लो... हो सके तो चेहरा देख लो !!! ... बीते हुए कल का और आने वाले कल का भी ... चेहरा!!! ......”

मेरे चेहरे पर तो इस बूट पर पॉलिश करते हुए कुछ कालिख चढ ही गई है, पहले से ही चेहरा मेरा भौंडा था, क्या फ़र्क़ पड़ता है इस जूते के रास्ते कुछ और कालिख मल दी गई तो....!

.... मुझे अब लग रहा है जिन्न बोतल से फिर निकल रहा है....! मैं उससे कहता हूं .....

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चित्र आभार गूगल सर्च

73 टिप्‍पणियां:

  1. मनोज बाबू..देख लिए हैं...पढ लिए हैं..ऑफिस से लौटकर बिस्तार से लिखते हैं...आज त आप हमको हमरे एक साथी का याद दिला दिए..वो उन्हीं अनामिका के मारे थे..

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  2. कुछ अंश पढ़े! अच्छे हैं! पूरा फुरसत से पढ़ेंगे!

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  3. @ रवि जी
    हां, ब्लॉग के लिहाज़ से लंबा आलेख तो हो गया है। मैंने मूल पोस्ट दो खंडों में बनाया था। पहला भाग मुज़फ़्फ़रपुर भ्रमण पूरी कविता के साथ खत्म होता था। पर जब देखा तो लगा कि दो खंडों में भाव खंडित हो जाते।

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  4. @ सलिल भाई
    आपने तो उत्सुकता बढा दी है। इंतज़ार रहेगा।

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  5. @ उदय भाई
    प्रोत्साहन के लिए आभार!

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  6. Very good article. Too much interesting and provides multi dimentional experience at all. Thanks for interesting materials.

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  7. मनोज जी हम तो एक ही सांस में पढ़ गए.. और जहाँ लाके आपने इसे ख़त्म किया है.. सचमुच वहां की उम्मीद नहीं थी.. हम भी एक बार एक लड़की को इम्प्रेस करने के लिए बाबूजी की नै कमीज पहन कर चले गए थे.. दोस्तों के कहा था.. ''क्या झोला पहन के आ गए हो''... बहुत अलग सा होता है छोटे शहरों का प्रेम.. एक बार फिर कुछ दिनों की फुर्सत छीन ली आपने... ना जाने क्या क्या याद आ रहा है.. धनबाद के एक प्रसिद्द महिला कालेज के आगे तो लोग एक लड़की को दुबारा देखने के लिए महीनो गुजर देते थे.. और जिस दिन दिखती थी .. स्टेशन के रामचरित्तर चाय वाले के यहाँ लिट्टी चोखा.. रामप्यारी चाय की पार्टी होती थी.. आज भी रामचरित्तर चाय वाला है धनबाद स्टेशन के सामने लेकिन सुना है छोले भठूरे बनाने लगा है... छोडिये इन बातों को.. लेकिन एक गुदगुदाने और संजीदा कर जाने वाले संस्मरण के लिए बधाई..

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  8. आलेख बहुत अच्छा है। विशेष रूप से अंत में जो व्यंजना उभर कर आई है वह बहुत ही आकर्षक है। ब्लाग के लिहाज से लेख थोड़ा बड़ा है। हालाकि इसका एकीकृत स्वरूप उपयुक्त है तथापि इसे कम से कम दो विषयों में अलग किया जा सकता था। पहला बालिका विद्यालय वाला भाग और दूसरा शेष भाग। मैंने यह केवल ब्लाग के लिहाज से कहा है। इसके अतिरिक्त कुछ लिंग संबंधी टंकण त्रुटियाँ दिखती हैं। जैसे- फेयर एण्ड लवली - था, में थी होना चाहिए। परीक्षा की एडमिट कार्ड में का होना चाहिए। प्रशासन भवन के बहार में बाहर होना चाहिए। केन्द्र बिन्दू में बिन्दु होना चाहिए। फूटपाथ में फुटपाथ होना चाहिए। पहली पीरियड में पहला होना चाहिए। तनाव का सा महौल में माहौल होना चाहिए आदि। छात्र विद्यालय की जगह बाल विद्यालय आधिक उपयुक्त लगता है। "बाम्बे सैलून हमारे... .....दाढ़ी बनवाई" में - "में दाढ़ी बनवाई" को अलग वाक्य बनाते हुए - "उसमें दाढ़ी बनवाई" करके हिन्दी के अनुरूप वाक्य संरचना हो सकती थी। मूल वाक्य अंग्रेजी की तरह का बना है। हालाकि ऐसा कई जगह है लेकिन यहाँ थोड़ा अखरता है। 'चूँकि स्वभाव से ............ नसीब में था........टूट जाना।' में व्यंजना बहुत अच्छा लगी।

    इसमें कई रोचक कथाओं को करीने से एक दूसरे से जोड़ा गया है। मनोरंजन के साथ साथ अद्भुत व्यंजना के साथ समाप्त होता है यह फुरसत नामा। बहुत बहुत बधाई।

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  9. आप माने ना माने मैंने तो पूरा पढ़ लिया... बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने.. और ये जनगणना में जाति पूछने का मैं सख्त विरोध करता हूँ..यह क्या नौटंकी है....

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  10. @ अरुण जी
    वाह भाई!आंखों में आंसू आ गए।
    इस पोस्ट के महत्व को आपने सही समझा है। ऐसे कई पात्र मिलते हैं जीवन में जिनसे हम संयमित, स्वच्छ चरित्र, दृढ प्रतिज्ञ, और न जाने क्या-क्या बनते हैं।

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  11. मनोज जी.. आपके फुर्सत में ने जब फुर्सत छीन ली है तो कुछ और बातें शेयर करे बिना मेरी टिप्पणी अधूरी रहेगी.. आपने जिस जात के बारे में बात की है.. समाज में वह खाई मंडल कमीशन के बाद और भी बड़ी है.. और मैंने अपना एक मित्र खोया है उसके लागू होने के साथ ही... मेरे एक मित्र थे अपना उपनाम मधुप लिखते थे.. उन्हें बोन टी बी था.. और यहाँ तक की परिवार ने उन्हें अलग सा कर दिया था.. चूँकि बाबूजी मेरे बी सी सी एक में थे.. मैंने अपने नाम पर बी सी सी एल के अस्पताल में इलाज करवाया था.. वो आज ठीक हैं लेकिन नयी आरक्षण नीती ने ऐसी रेखा खींची कि उनकी और से मैं उनका दोस्त नहीं रहा.. ऐसे कई वाकया हैं जिससे लगता है कि राजनीति ने आम आदमी के बीच.. आम समाज के बीच खाई को पाटने की बजाय बढ़ा दी है.. एक लडकी थी 'तबस्सुम' अंग्रेजी प्रतिष्टा में ... सेक्स्पीअर से लेकर लारेंस को वो बुर्के में पढ़ा करती थी.. आज उसकी आँखे बहुत याद आ रही है.. और ना जाने क्या... उसके लिए अंग्रेजी में एक कविता लिखी थी.. यहीं शेयर करता हूँ...
    "
    There some one
    for every one
    But not his anyone
    He is poor
    in sense of money
    His Heart
    full of Honey
    He live for you
    and die for you
    You are not for him, thus
    More or less
    he is good
    still for you, stood "

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  12. @ हरीश जी
    अशुद्धियों की तरफ़ ध्यान दिलाने के लिए आभार। ठीक कर दिया है। आपकी समीक्षा की आंच पर तप कर ही तो हम ठीक होते हैं। आभार।

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  13. @ सुमन जी
    अच्छा लगा आपसे मिलना। आते रहिएगा। प्रोत्साहन और अच्छे विचारों के लिए धन्यवाद!

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  14. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  15. आज तो फुर्सत में आपने ज़िंदगी के पिछले पन्ने खोल कर रख दिए हैं ...
    ३०-४० साल पहले का कैसा होता था प्रेम ?

    ‘हवा’ जिस तेज़ी से आई, उसी तेज़ी से सर्र से चली भी गई! पर उसके इस आने में, अनजाने में, उससे इश्क़ हो गया, .... और हमारे सकुचाने, शर्माने के इश्किया हाव-भाव को बिना नोटिस किए, बिना दृष्टिपात किए सट्‌ से उसके चले जाने में, ‘ब्रेकअप’

    आपकी यह बात पढ़ कर ही आज समझ पा रही हूँ लडकों की आहें .. :):) क्यों कि हम तो इसी पर खरे उतरते थे ....
    (बेचारी इतना आदेश मानती थीं कि सर ऐसे झुका के चलती थीं कि उन्हें उनके ही पैर का नाखून देखना होता था )

    वो बात दूसरी थी कि भले ही सिर झुका रहे खबर सारी रहती थी ..हा हा हा ..

    अब आपकी उस देवदास वाली बात पर हँस नहीं रहे हैं ..संजीदगी से मुस्कुरा रहे हैं ...

    आपका यह फुर्सत नामा रूमानी से ज्यादा रूहानी हो उठा है ...बात का अंत जिस तरीके से किया और जाति गणना पर खत्म किया है ..

    “देख लो ! ... बाबू देख लो... हो सके तो चेहरा देख लो !!! ... बीते हुए कल का और आने वाले कल का भी ... चेहरा!!! .

    यहं आ कर सोच एक ही जगह स्थिर हो जाती है ...क्या हम कभी इस जाति भेद भाव से ऊपर उठ पाएंगे ....

    आपको एक बात बता दूँ ..मेरे पति भी अपने नाम के आगे जाति सूचक उपनाम नहीं लगाते ...इस लिए बहुत कम लोंग ही जाति के आधार पर मुझे पहचानते हैं ...अब आप मुझे ब्राह्मण से ले कर हरिजन तक कुछ भी समझ सकते हैं ...
    :):):):)

    बहुत अच्छा लगा आपका आज का फुर्सत नामा

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  16. @ संगीता जी
    आपकी इस विस्तृत टिप्पणी के लिए धन्यवाद!
    प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ... और इस बात के लिए तो शब्द ही नहीं है कि "आप मुझे ब्राह्मण से ले कर हरिजन तक कुछ भी समझ सकते हैं ..." बस नतमस्तक हूं।

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  17. .

    ....लड़कियां तो रिक्शा पकड़ती थीं, तीन-चार जने कुच्चम-कुच्चा करके बैठतीं और घर आकर चार-चार आने के शेयर में काम चला लेतीं। .....

    -----

    इसी बात से याद आया --एक बार थर्ड इयर में , बनारस में अस्पताल से होस्टल लौट रहे थे। मेरे पास पैसे नहीं थे। एक बैचमेट अरुण ने ऑटो का किराया दे दिया । मैंने भी उधार समझ उन्हें पेमेंट करने दिया और आभार व्यक्त किया । अगले दिन शिष्टाचारवश उधार वापस करना चाहा , तो उन्होंने बुरा मान लिया। शायद इतनी छोटी राशि लौटाने से उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंची थी। कॉलेज में बवाला मच गया। उस दिन भी मित्र संजय ने स्थिति को संभाला था। मैंने अरुण से माफ़ी मांगी तब मामला शांत हुआ। उस दिन मजेदार सबक मिला।

    रोचक अंदाज़ में लिखी इस सुन्दर पोस्ट के लिए बधाई एवं आभार।

    .

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  18. हमको तो ब्रेक अप वाला मामला ,भा गया । इस तरह के इकतरफा प्यार और ब्रेक अप से जाने कितने लोग गुजरे हैं और गुजर भी रहे हैं ।

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  19. उन दिनों हम अपने देश के महापुरुषों की बातों का अनुकरण कर गर्व की अनुभूति किया करते थे। आज ..... छोड़िए! अजी हमने तो कब का छोड दिया है। पहले इतनी लम्बी पोस्ट देख कर सोचा कि इस समय फुरसत नही इसे बुकमार्क कर लिया जाये मगर जब जरा सा पढा तो रोचकता से पता ही नही चला कब समाप्त हो गया। बहुत सुन्दर संस्मरण। शुभकामनायें।

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  20. बहुत सटीक और रोचक, शुभकामनाएं.

    रामराम

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  21. सबसे पहले आभार.
    बढिया पोस्ट. मैं तो चाहुंगा कि आप सातों दिन "फ़ुर्सत में" लिखें.

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  22. wonderfully written memoir!!!
    mention of l.s college and m.d.d.m seemed so own...
    (my nanaji was a proffessor in muzaffarpur... and i m familiar with these names and heartwarming wonderful tales of the city of accharya janaki vallabh shashtri)
    ..........
    bahut sundar prastuti...aur sansmaran ka ant man mohak hai!!!!
    koti koti aabhar!

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  23. manoj ji,
    suru me to hum aapke kakchha me khud ko pa rahe the,
    aur apni hasi muskilo se daba pa rahe the.
    fir mamla gambhir ho gaya ,
    ye lekh mano apna naseeb ho gaya.

    palish kar ke aapne juto ko to chamka diya,
    par is pyare desh ki chamak ko ye kya ho gaya???

    bataye manoj ji ...

    aamtaur pe mai lambe lekh nahi padh pata..par aapke lekh pe koi bich me ruk ke dikhaye..to janu..

    kamal ka lekh hai ye...kavitaye to bus kamaal hai...

    aapko aur desh ko naman

    anand
    www.kavyalok.com

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  24. बहुत अच्छा लगा आपका आज का फुर्सत नामा

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  25. @ ज़ील जी
    प्रोत्साहन और अपने अनुभव शेयर करने के लिए धन्यवाद!

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  26. @ अजय भाई
    बस इसी तरह ऊबड़-खाबर रास्ते पर चलते रहे। आभार आपका।

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  27. @ निर्मला दीदी
    आपका आशीष पाकर धन्य हुआ।

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  28. @ ताऊ जी, बूझो तो जाने, सुज्ञ जी
    प्रोत्साहन और अच्छे विचारों के लिए धन्यवाद!

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  29. @ आनंद भाई
    बहुत अच्छी कविता कर डाली आपने टिप्पणी के साथ। आभार।

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  30. @ अनुपमा जी,
    आपका धन्यवाद अपने संस्मरण भी हमसे बांटने के लिए।

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  31. मनोज बाबु........ बढिया और उम्दा पोस्ट लिखी आपने. बधाई स्वीकार करें.

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  32. सच उन दिनो का प्रेम भी क्या प्रेम होता था……………एक अलग ही दुनिया की सैर करा दी आपने और ज़िन्दगी के उन पहलुओं से भी मिलवा दिया जो यादो के कोनो मे बसर करते हैं।

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  33. अरे अरे आप बडे वो हे जी.... हमे रिक्क्षा दिखा के पीछे पीछे चलने पर मजबुर कर दिया ओर बातो बातो मे इतनी लम्बी पोस्ट पढवा दी:) बहुत सुंदर लगी आप की आप बीती, पुरानी यादे,ऎसा ही कुछ कुछ हमारे साथ भी हुआ था, धन्यवाद

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  34. बहुत सुंदर संस्मरण, बहुत सुंदर आलेख। यह केवल इस ब्लॉग का एक पोस्ट मात्र नहीं है बल्कि साहित्य जगत की संस्मरण विधा का एक बढ़िया उदाहरण है,...बधाई।

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  35. भई वाह ....क्या मस्त लिखा है आपने ...
    शुरुआत ही आपने इतनी दिलचप्स की,
    कि बस पढ़ते ही चले गए .. पोस्ट थोड़ी
    बड़ी ज़रूर थी ....लेकिन मज़ा आया .
    हँसी भी बहुत आई ..और अभी भी आ रही है.
    बाद में आपने बहुत ही संवेदनशील मुद्दा जातिवाद का भी ज़िक्र किया .
    सच में बहुत ही बढ़िया संस्मरण ...........
    पढ़कर मज़ा आ गया. सभी ब्लोगेर्स को नवरात्रों के अवसर पर शुभकामनाएँ और बधाई.......

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  36. सजीव चित्रण इतिहास का, लगा अभी हो रहा हो।

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  37. बहुत ही रोचक संस्मरण, अलग-अलग भावनाएं जगाता हुआ...

    प्रारम्भ में तो कई जगह मुस्कान...हंसी में बदल गयी...वो स्कूल-कॉलेज के किस्से...किसी का किसी को देख भर लेना, पूरा एक खबर बन जाना.....हवा की तरह किसी का गुजर जाना...और आपका स्नो-पौडर से लैस होकर जाना....उसपर दोस्तों के कटाक्ष...और आपका बार-बार टूटता दिल...

    लेकिन अंत में वो जाति वाली घटना द्रवित कर गयी....उस लड़के की उंगलियाँ जख्मी कर दीं ...वह भी ऐन परीक्षा के दिन...वहशीपना हुआ वह तो..

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  38. ताऊ पहेली ९५ का जवाब -- आप भी जानिए
    http://chorikablog.blogspot.com/2010/10/blog-post_9974.html

    भारत प्रश्न मंच कि पहेली का जवाब
    http://chorikablog.blogspot.com/2010/10/blog-post_8440.html

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  39. मनोज बाबू..दोबारा लिख रहा हूँ..सुबह जल्दी में देखा था..अभी जब देखा तो मन भर आया. बल्कि मुझे शर्म आने लगी अपनी सुबह की टिप्पणी पर… इसलिए वो कहानी फिर कभी. आपने जिस घटना का ज़िक्र किया है उससे मैं भी अछूता नहीं.. तीन तीन साल पीछे हो गए थे सारे इम्तिहान और रिज़ल्ट. कितनों के कैरियर तबाह हो गए.
    और आपकेइस फुरसतिया लेखन के अंतिम हिस्से तक आते आते तो मेरे हाथों में एक जकड़न समा गई. क्या लिखूँ. उस चमकते जूतेमें अपनी शक्ल भी धुंधली नज़र आ रही है!!

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  40. रिक्शा भरकर जाती लड़कियां , नाम पूछने तक में महीनों लग जाना ...
    कस्बाई कॉलेज की स्मृतियाँ ताजातरीन सी लग रही है...
    रोचक यात्रा ठहरी भी तो बूट पोलिश पर ...
    अच्छी रोचक पोस्ट ...!

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  41. बहुत सुन्दर पोस्ट जिसने आखिरी पंक्ति तक बांधे रखा...आभार..

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  42. आपकी जिंदगी की दास्ताँ पढकर मज़ा आ गया ... कई बातें फिर से मानस पटल पर उतर आई ...

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  43. संस्मरण से कुछ कुछ यादें अपनी सी लगी...:)

    बहुत खूबसूरत बयानी की है..उन दिनों की.वाह!

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  44. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  45. संस्मरण द्वारा कोई बना-बनाया निर्णय पाठकों को न थमा कर, बल्कि पाठक को एक मद्धिम आंच देता हुआ विचार नियामक सौंप दिया है आपने, इस नीति के कारण आपका यह संसमरण कोई ठोस निर्णायक उपसंहार देकर स्माप्त नहीं होता बल्कि पाठक के हिस्से यह बेचैनी छोड़ कर चुप हो जाता है कि जूते में पोलिश तो हुई पर चमक खत्म क्यों हो गई। आपकी लेखनी का यह शिल्प इसकी ताकत है।

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  46. जीवन के शिक्षा सत्र के उमड़ते आवेगों का दर्शन कराकर आपने ऐसा अनुभव करा दिया शायद मेरे अपने जीवन को। पूरी रचना आद्योपांत रोचकता से भरी हुई है। एक बार शुरु करने के बाद अंत में पहुंचने के बाद भी लगता है कि अभी कुछ बाक़ी है। शुरु से अंत तक पूरी रचना समरस रूप में सजीव है। धन्यवाद।

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  47. मनोज जी आपकी पोस्ट को पूरा पढ़ने में कितना टाइम लगा बता नहीं सकती...मनोज मनहूस तक तो होंठ सिकुड़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे...ये सब वृतांत पढ़ कर अमृता प्रीतम जी की एक बात याद आ गयी, चाह रही थी ज्यु की त्यु यहाँ प्रस्तुत करूँ लेकिन संभव नहीं हो पा रहा...उन्होंने अपनी पुस्तक रसीदी टिकट में अपने बारे में लिखा था...की इंसान के अंदर एक १६ साल की उम्र का लड़कपन हमेशा रहता है...और उसे जिन्दा रखे रखना चाहिए..वर्ना कभी कभी जिंदगी की कड़वाहटें जीना दूभर कर देती हैं...इसी १६ साल के लड़कपन को जिन्दा रख कर ही अमृता प्रीतम अपनी जिंदगी की कड़वी सच्चाईयों से लड़ने में कामयाब हो पाई.
    तो ये कुछ ऐसी यादे होती हैं जो तमाम उम्र इंसान के साथ चलती हैं. और गाहे-बगाहे गुदगुदा जाती हैं.
    आप आती हूँ आपकी फुर्सत के अंतिम पड़ाव पर...
    बात जो आपने जाती गडना की लिखी...एक दम सारी सोचों को सारी मुस्कुराहटों को स्थिर कर गयी.
    गंभीर आवरण में पहना दिया विवरण के अंत को.

    हाँ अंत में एक बात और अब आपकी जब भी कोई प्यार पगी रचना पढेंगे तो ये आपकी रमण-चमन वाला किस्सा जरूर याद आ जायेगा..:)

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  48. सर आपके संस्मरण से गुज़रना एकदम ने अनुभव से गुज़रना है क्योंकि इसमें यथार्थ इकहरा नहीं है, बल्कि यहां आज के जटिलतम यथार्थ को उघाड़ते अनेक स्तर हैं।

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  49. आपकी चेष्टाएं झिलमिला उठीं हैं। आपकी ईमानदारी व प्रयासों की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। इसमें आपने अपनी पैनी निगाह ख़ूब दौड़ायी है। साधुवाद। लेख की व्यंगात्मक शैली ने रचना के हुस्न में चार चांद लगा दिए हैं।

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  50. सरस, रोचक और एक सांस में पठनीय रचना के लिए बधाई। बेहद रोचक और मार्मिक व्यंग्य है। आपका सृजनात्मक कौशल हर पंक्ति में झांकता दिखाई देता है। इस रचना के लिए मेरे पास एक ही शब्द है – जिंदाबाद।

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  51. प्रवाहमान भाषा और विनोदपूर्ण शैली के साथ ही प्रतीक और यथार्थ के सोने में सुगंध वाले योग के कारण यह रचना काफी आकर्षित करती है। इसमें एक सशक्त हास्य-व्यंग्य के अनेक लक्षण मौज़ूद हैं।

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  52. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  53. मनोज जी पूरे आलेख में रोचकता के मामले मे आप टापोटाप रहे हैं । और आनन्द तो हमने लिया ही साथ ही आपकी सहज भाषा के भी कायल हो गये । यह कुच्चम कुच्चा ,टनाटन , मनोज मनहूस और ऐसे ही जाने कितने शब्द ..ऐसा लगा जैसे आप दोस्तो से बतिया रहे हैं ।

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  54. जाति टूटे,यह एक आदर्श स्थिति होगी मगर फिलहाल वह एक हक़ीक़त है,यह स्वीकारने में भी संकोच नहीं होना चाहिए।

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  55. एक ईमानदार मन कैसा होता है,यह पोस्ट इसका प्रमाण है। परिवेश,अर्थव्यवस्था,संबंधों की मर्यादा और कवि-हृदय की कमज़ोरी का जिस सूक्ष्मता से चित्रण हुआ है,उसे कोई भी सहृदय ताड़ लेगा।

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  56. मनोज कुमार जी!
    सबसे पहले तो जिन्दगी के बसन्त की
    बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
    --
    आपके जीवन से जुड़ी यह महत्वपूर्ण कड़ी यह सन्देश देती है कि साहित्य के कीटाणु तो जन्मजात होते हैं! यानि कि - "गॉड-गिफ्ट"
    --
    इस आत्मकथा में दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि-
    आपने जाति-पाँति के घिनौने रूप को बखूबी समाज सामने प्रस्तुत किया है!
    --
    आपकी पोस्ट रोचक होने के साथ-साथ
    समाज को दिशा देने में सक्षम है!
    एक बार पुनः बधाई!

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  57. कभी कभी फ़ुर्सत निकाल कर जीवन के बीते लम्हों को देखना अच्छा लगता है .... आपका संस्मरण पढ़ना बहुत सुखद लगा ... उस दौर में लगाव और ब्रेकअप कितना सकूँ और क्षोभ देते हैं .... पर आज उनको सोचकर बरबस मुस्कान तेर जाती है होठों पर ...

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  58. आपकी रचना पढ़ने में बहुत आनंद आया |बस थोड़ी बड़ी जरूर लगी |भाई हम तो इतनी सारी टिप्पणी देख कर सोच में पड| गए कि टिप्पणी पढ़ी भी जायेगी या नहीं |यही कारण है कि हमें क्या अच्छा लगा बता नहीं पाए |अच्छी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
    आशा

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  59. ईमानदार स्वीकृतियाँ आनन्द की तरंगों में भिगो गईँ !

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  60. तो पीले पड़े हुए पन्नों वाली डायरी आज खुली है ..बड़ा सवेंदन शील टॉपिक है ये तो भई...
    जो वहां सफल नहीं होता ,उसके लिए कुदरत ये दरवाजा खोल देती है .सटीक कहा ...
    बेहतरीन कहा कि इतना चमका दिया है ,चेहरा देख लो आज का भी और आने वाले कल का भी ...

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  61. मेरी बड़ी बहन उस बलिका उच्च विद्यालय में पढती थी। अब उस ज़माने में दीदी के स्कूल की सारी बालिकाएं ‘दीदी’ ही तो होती थी
    त्रासद है ....:)
    संस्मरण पढना शुरू किया तो रुकने का नाम ही नहीं लिया शुरू से एक मुस्कान जो ठहरी होंटों पे तो कई जगह खिलखिलाने के लिए ही खुली .पर आखिर में एक बहुत ही संजीदा सवाल पर आकर ठहर गई .
    एक बहुत ही रोचकता लिए हुए लाजबाब संस्मरण.

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  62. ओह.... पढ़ा था ताजा मगर टिपियाते-टिपियाते........ लेकिन यह पोस्ट ऐसी है जिसकी ताजगी कभी ख़त्म नहीं हो सकती.
    फटाफट बदलते दृश्य और उनमे निहित व्यंग्यार्थ 'थ्री इदिअट्स" जैसे क्रिस्प चलचित्र की भांति प्रतीत होते हैं. बहुत खूब..... रोमांटिक धरातल से शुरू लेख का यह रोमांचक अंत तो अपेक्षातीत था. धन्यवाद !!

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  63. पढ त पहिलहिए लिए थे। तनी पता लगा तहे थे कि ये हवा कौन है और कहां है।
    हम्म।
    बस तैयार रहिए.. आंधी आने वाली है...!
    अपर्ट फ़्रॉम दैट,ये कॉलेज सीरिज़ ज़ारी रहना चाहिए ... ताकि और भी भेद खुले। आपकी मनहूसियत का राज़ पता चला ... जो आज भी आपके चेहरे पर छाई और पाई जाती है।
    बाक़ी जात बाला परसंग पर त हमहूं एके मत रखते हैं।
    इतना लंबा लेख पढबा के त आप मोसीबत मोल ले लिए हैं, और आपको द्न्ड दिया जाता है ... कि .....
    एक ठो और ऐसहीं लंबा लेख लिखना होगा, पढने की गरन्टी हम देते हैं।

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  64. "फुर्सत में... बूट पालिश"
    मनोज भाई साहब,मुझे दिल्ली में रहते २० वर्ष होने को हैं..इससे पहले इतना भावुक मैंने स्वयं को एक बार तब पाया था जब चन्द्र कान्त ने मुझे मेरे समय के शिक्षकों की याद दिलाई थी.आज आपने भी मुझे वहां जाने को विवश कर दिया .आज भी लंगट सिंह कालेज का एक-एक पेड़ ,एक-एक हॉस्टल. बेनीपुरी कालेज और इनदोनों के बीच में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की शाखा .विश्वविध्यालय जाने का रास्ता हमारा वही था क्योंकि मैं थाना होकर चंद्रलोक होटल के आगे से निकल कर जाता था.तब हमारे पास एक पुरानी साईकिल हुआ करती थी. आपका एक-एक वर्णन मुझे मेरी नजर के आगे से चलचित्र की भांति गुजर रहा है.मैं खादी भंडार से रोज साईकिल से ही जाया करता था.हाँ ,आपनी ने जो रमन्स की बातें कही है,उसका सौभाग्य मुझे प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि लड़कियां समझदार हो गई थी. लेकिन जो मोड़ आपने अंत में अपनी लेखनी को दिया है और जिस तरह से उसे उस समय के लंगट सिंह कालेज से जोड़ा है
    एक कटु सत्य की ओर इशारा है.वोट की राजनीति नें उस आग को आज भी जलाये रखा है. पूरी संवेदना के साथ अपने अतीत को वर्तमान से जोड़ा है .इसके लिए बधाई.
    पढ़ाने के लिए धन्यवाद.

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  65. मनोज जी आपने तो मोची कहकर अपने आपको साध लिया है लेकिन हम तो अभी भी असमंजस में हैं कि क्‍या बताएंगे? कहाँ से जाति की गणना करेंगे? आपने तो उपनाम के चक्‍कर में उपनाम बदल दिया लेकिन यहाँ तो आवश्‍यक वैवाहिक कानून के अनुसार बदल गया। आज कुछ देर पहले ही चर्चा कर रहे थे कि हम ना जाने कितने मुकामों को पार करके आज यहाँ आए हैं, पता नहीं कितनी जातियां और कितने धर्म पीछे छोड़ आए हैं। लेकिन वर्तमान के लिए इतना आग्रह क्‍यों हैं? भारत सरकार क्‍या सिद्ध करना चाहती है? आपकी सरस पोस्‍ट को मैंने गम्‍भीर चिंतन में डाल दिया लेकिन यह मेरे मन की भी बात थी। पुराने जमाने का वर्णन सरस और पठनीय था। बहुत कुछ लिखा जा चुका है, मैं तो देर से आयी इसलिए बस इतना ही।

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  66. पल-पल को इतिहास बनाती पोस्‍ट.

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  67. सर ...जबरदस्त..मैं क्या बताऊ मुझे अब जाकर अफ़सोस हो रहा है की मैं इतनी जल्दी कॉलेज क्यों छोड़ दियां..दिल्ली के दकियानुशी समाज में ( मेरे हिसाब से) घु-घुट के जी रहा हूँ..लेकिन जो अंदाज गवई स्टाइल में मुजफ्फरपुर में मौजूद था वो यहाँ नहीं...अच्छा लगा ...Abhishek Ranjan,2009 batch(Eco-h) now at faculty of law,du,delhi...kumarabhishek.du@gmail.com..plz read lscollege.blogspot.com

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  68. सर ...जबरदस्त..मैं क्या बताऊ मुझे अब जाकर अफ़सोस हो रहा है की मैं इतनी जल्दी कॉलेज क्यों छोड़ दियां..दिल्ली के दकियानुशी समाज में ( मेरे हिसाब से) घु-घुट के जी रहा हूँ..लेकिन जो अंदाज गवई स्टाइल में मुजफ्फरपुर में मौजूद था वो यहाँ नहीं...अच्छा लगा ...Abhishek Ranjan,2009 batch(Eco-h) now at faculty of law,du,delhi...kumarabhishek.du@gmail.com..plz read lscollege.blogspot.com

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  69. वाह-वाह....मनोज 'मनहूस' साहब....मज़ा आ गया ये लेख पढ़कर...आप भी कम रसिया नहीं थे अपने ज़माने में...मस्त है..

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  70. mast hai jijaji (just trying dont want to waist my precious cmnt.)

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  71. hmm jijaji aap to pure ashiq mijaj se social reformer bangaye.ekdum 'rang de basanti ' ke aamir khan ki tarah.it'll be good example for youth.masti karo par galat mat karo aur na karne do.

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