मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

लघुकथा-पहरा

लघुकथा

पहरा

श्याम सुन्दर चौधरी़

सिपाही ने मेज पर चाय से भरे दोनों कप को रखा तो उन दोनों की बातों का तारतम्य एकाएक टूट गया। वे दोनों किसी मृतक के सम्बन्ध में बातें कर रहे थे। सिपाही के जाते ही इन्सपेक्टर वीरेन्द्र ने इन्सपेक्टर ज्ञानेश्वर सिंह की ओर एक कप बढ़ा दिया और दूसरे कप को अपने हाथ में लेकर सिप करते हुए पूछा, ‘हाँ भई, ...तुम कह रहे थे कि वह वेश्या मरते वख्त कोई चिट्ठी छोड़ गई है, क्या लिखा है उसमें?’

इन्सपेक्टर ज्ञानेश्वर ने सामने रखी फाइल में से एक कागज निकाला, एक बार इन्सपेक्टर वीरेन्द्र की ओर देखा और फिर पढ़ने लगा,

‘ – मैं खुदकुशी कर रही हूँ। दुनियाँ में इस वख्त मुझसे ज्यादा खुश और कौन होगा? लेकिन मेरे मरने के बाद मेरी लाश पर पहरा लगा दिया जाए। जीते जी कितने रंगे पुते बनावटी चेहरों ने मेरे जिस्म को खरोंचा है, उनकी गरम और कड़वी सांसों को मैं समेटती रही, कितने टेढ़े- मेढ़े, गन्दे- साफ लोगों की साँसें, उनमें से कोई अगर मेरी लाश पर भी..... ओह ! नहीं..... मुझ पर रहम करो, पहरा बढ़ा दो, मैं थक चुकी हूँ.......’

पत्र पढ़ कर इन्सपेक्टर ज्ञानेश्वर थोड़ी देर चुप रहा, और फिर एक तेज साँस छोड़ते हुए कहा, ‘स्साली.... नाटक करती है....;’

कुटिल मुस्कान के साथ इन्सपेक्टर वीरेन्द्र ने पूछा, ‘तो क्या पहरा लगाने का इरादा है....?’

ज्ञानेश्वर ने जवाब दिया, ‘अरे नहीं यार, ....... जो मर गया उसके लिए पहरा क्या ....लेकिन हाँ...’ रहस्यमय मुसकान के साथ वीरेन्द्र की ओर देखते हुए बोला ‘चीज थी जोरदार, जिस्म का एक-एक इंच किस कदर तराशा हुआ था.....’

‘क्या मतलब.....यानी तुम भी........।’ वीरेन्द्र को आश्चर्य हो रहा था।

‘यार आदमी तुम समझदार हो...’ इन्सपेक्टर ने कहा। और फिर दोनों जोरों से हँसते हुए अपने-अपने जबड़े फैलाते चले गए।

35 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत से लोग चेहरे पर कई चेहरे लगाए घूमते हैं । ऊपर से साफ सुथरे लेकिन भीतर से एक ही रंग में रंगे - बदरंग। बस आपस में खुलने का अवसर मिलना चाहिए, फिर कोई झिझक नहीं होती। कभी कभी तो असलियत पता लगने पर सहसा भरोसा ही नहीं होता। लाचारी का शोषण करते दरिंदों के ऐसे ही चरित्रों को उजागर करती संश्लिष्ठ लघुकथा है पहरा।
    उत्तम रचना के लिए श्याम सुन्दर चौधरी को साधुवाद ।

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  2. यह लघुकथा समाज के सफेदपोश लोगों के खोखलेपन को चित्रित करती है साथ ही समाज जिसे हेय दृष्टि से देखता है उसकी पीड़ा को भी व्यक्त कर जाती है।
    बधाई।

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  3. एक बे-रंग सा मंज़र है जहां तक सोचूं
    ज़िन्दगी ! मैं तेरे बारे में कहां तक सोचूं

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  4. समाज के पहरेदारों के असलियत को उजागर कर रही है यह कथा । कहां गया अंतिम इच्छा का मान............।

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  5. ओह , बहुत मार्मिक चित्रण ...और लोगों के चेहरे पर से नकाब उठाती लघुकथा

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  6. ये है समाज का चरित्र और उस पर से नकाब उठाती और झकझोरती एक मार्मिक कथा।

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  7. यथार्थ से परिचय कराती है आपकी कहानी ... हर किसी चेहरे के पीछे दूसरा चेहरा होता है ...

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  8. यथार्थ से परिचय कराती है आपकी कहानी ... हर किसी चेहरे के पीछे दूसरा चेहरा होता है ...

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  9. आज स्त्री भी एक चीज बन गई इन कमीनो के लिये.... इन के घरो मे भी तो ऎसी चीजे होंगी ही, किसी को पिंजरे मे बंद कर के उस से खेलना.... क्या यही हे आज हमारे संस्कारी समाज की असली सुरत? बहुत कुछ सोचने को मजबुर करती हे आप की यह लघु कथा....

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  10. एक वेश्या का भावनात्मक पक्ष और प्रहरी का मानसिक पक्ष ......

    कहानी दमदार है - नग्न सत्य की तरह.

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  11. आज देश कितना भी प्रगति कर रहा है लेकिन तस्वीर का दूसरा रुख ये भी है जिसे कुछ प्रगतिशील लोग मानने को तैयार नहीं.

    ऐसे ही नहीं लोगो का विश्वास कानून पर से उठा हुआ है .

    एक वैश्या की मजबूरी और अंत के बाद का नंगा सच प्रभावशाली लघु कथा के माध्यम से बहुत निपुणता से उकेरा है.

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  12. उफ़...इंसानियत बची ही नहीं क्या बाकी ..मृत आत्मा तक का लिहाज नहीं .
    कड़वी सच्चाई दिखाती मार्मिक कथा.

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  13. बेहतरीन लघुकथा!
    समाज कि बदरंग सच्चाई को सामने लाए हैं .... वैसे भी हमारे देश में IPS को छोड़ दिया जाये तो बाकि के पुलिस जिस तरह के लोग बनते हैं उनसे इससे ज्यादा कि उम्मीद भी नहीं रख सकते ...

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  14. समाज का छिपा हुआ चेहरा.....सुन्दर लघुकथा.

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  15. सच्चाई को आपने बहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! बेहतरीन लघुकथा! बधाई!

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  16. बहुत से लोग चेहरे पर कई चेहरे लगाए घूमते हैं । ऊपर से साफ सुथरे लेकिन भीतर से एक ही रंग में रंगे - बदरंग।

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  17. ओह , बहुत मार्मिक चित्रण ...और लोगों के चेहरे पर से नकाब उठाती लघुकथा

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  18. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है!
    या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
    नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

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  19. समाज के पहरेदारों के असलियत को उजागर कर रही है यह कथा ।

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  20. दिल हिला दिया........ मंटो की 'खोल दो' की याद ताज़ा हो आई कहीं से...

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  21. उफ्फ्फ के सिवाय क्या कहूँ अब. सर चकरा गया पढ़ कर इतना कड़वा सच .

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  22. समाज के पहरेदारों की असलियत को उजागर कर रही है यह कथा। समाज का चरित्र और उस पर से नकाब उठाती और झकझोरती एक मार्मिक कथा।
    आपका आभार।

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  23. @ शिखा जी,

    क्षमा करें।
    आईपीएस को क्यों छोड़ दिया जाए। सब नहीं, लेकिन कुछ तो हैं जो समाज को कलंकित कर रहे हैं। राठौर जी अभी अधिक पुराने नहीं हुए हैं।

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  24. गलती से शिखा जी टाईप हो गया। @ इन्द्राणिल भट्टाचार्जी शैल के लिए लिखना चाहता था।

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  25. मनुष्य अनेक परतों में जीता है। दुनिया देखे न देखे,आत्मा तो गवाही देती ही है!

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