फ़ुरसत में...
भ्रष्टाचार पर बतिया ही लूँ !
मनोज कुमार
आज फ़ुरसत में भ्रष्टाचार पर कुछ बतियाने का मन बन गया। जब यह विषय मेरे मन में आया और अपने एक मित्र से कहा कि इस विषय पर अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट लगाना चाहता हूँ तो उसने कहा कि इसके लिए हिम्मत और नैतिक साहस चाहिए।
मैं आज कुछ बतिया ही लूँ ।
कवि नीरज ने कहा था,
चाह तन-मन को गुनहगार बना देती है
बाग के बाग को उजाड़ बना देती है।
हम अपनी इच्छाओं पर क़ाबू नहीं पा सके हैं इसलिए इतना बढ गया है ये शैतान का बच्चा – “भ्रष्टाचार”। भ्रष्टाचार पर नजर रखनेवाली देश की सर्वोच्च संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग के मुताबिक हर तीन में से एक भारतीय भ्रष्टाचार में लिप्त है।
सरकारी नौकरियों में जहां एक ओर सुविधाएं बढ़ी हैं, वहीं दूसरी ओर भ्रष्टाचार में भी बढ़ोत्तरी हुई है।
इस सप्ताह की शुरुआत केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों में सतर्कता शपथ के साथ हुई है। ‘सतर्कता जगरूकता सप्ताह’ मनाया जा रहा है। ३१ अक्तूबर सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म दिन है। भारतीय कार्यपालिका परंपरा में उन्हें उनके मूल्यों पर आधारित काम करने में सर्वोत्कष्ट जाना जाता है इसलिए उन्हें याद करते हुए हम देश से भ्रष्टाचार उन्म्मूलन की शपथ लेते हैं।
आज मुझे याद आ रहा है वो दिन जब मैं सरकारी नौकरी की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका था। १९८० के दशक के अंतिम वर्ष की बात है। अपने घर के सामने सड़क पर खड़ा था। दरवाज़े पर टेम्परी नम्बर वाली (A/F) एक फिएट गाड़ी, आकर रुकी। उतरने वाले सज्जन ने मुझसे मेरे और मेरे पिता के बारे में पूछा। मैंने उन्हें जवाब दिया,
“आप अगर इसके बगैर आते (मेरा इशारा उनकी चमचमाती और प्रलोभन देती गाड़ी की तरफ़ था, जो कह रही थी के बेटा यदि तू हां कर दे तो बेटी के साथ-साथ यह भी तेरे लिए है) तो शायद मैं आपको बैठने और चाय पीने के लिए पूछता – पर अब तो यहीं से नमस्ते!”
वे बिहार के सचिव स्तर के अधिकारी रहे होंगे। हम रेलवे टाइप टू के क्वार्टर के निवासी।
भ्रष्ट हमें सिस्टम बनाता है, और हम सिस्टम को, … और यह शृंखला चलती रहती है।
बचपन से हमारी आदत घूस लेने-देने की होती है। ‘राइम सुनाओ तो टॉफी मिलेगी’.... ‘पहले टॉफी दो तो पोएम सुनाऊंगा’। यही मनसिकता लिए जब हम सरकारी नौकरी में पहुचते हैं तो कोई काम करने के एवज़ में पहले चाय-पानी का खर्चा मांगते हैं।
नौकरी पाते-पाते हमारा पेट और मुंह सुरसा के मुंह की तरह इतना बड़ा हो चुका होता है कि सिर्फ़ टॉफी से हमारा काम नहीं चलता!
पहले अगर कोई आदमी भ्रष्ट पाया जाता था तो इसे सामाजिक कलंक माना जाता था, पर आज........... लगता है भ्रष्टाचार की इस बीमारी को सामाजिक स्वीकृति मिल गई है।
जब मैं अपने राज्य या गांव जाता हूँ तो लोग पूछते हैं,
‘आंए हो बउआ, आब त लाले बत्ती वाला गाड़ी में घुमैइत होबहो।’
जब मैं उन्हें यह कहता हूँ कि
‘मैं इसके लिए अधिकृत नहीं हूँ’!
... तो वो मुझे फुटपाथिए टाइप का अधिकारी समझते हैं।
फिर कोई यह पूछता है,
“तोहर बउआ सब त सरकारिए गाड़ी से स्कूल जाइत हेतौ।”
और मेरे इस जवाब पर कि ‘नहीं, वे साइकिल से जाते हैं।’
तो मुझे ऐसे घूरते हैं मानों अब मैं फुटपाथिया अधिकारी भी नही भिखारी हूँ।
ये सोच है। अधिकारी मतलब......तंत्र का दुरूपयोग! ये सब भी भ्रष्टाचार की सीढ़ी है। ईमानदार होने और कहलाने में फर्क है। इसे हर पल जीना होता है। कांटों की राह है यह। भ्रष्ट नहीं बने रहने के लिए हर पल सतर्क रहना पड़ता है। हो जाने के लिए तो हज़ारों राहें हैं।
एक सज्जन दफ़्तर पहुंचे। दक्षिण भारत में एक फ़्लाइंग क्लब चलाते थे। उनका वायु यान हमारे लैंड के ऊपर से गुज़रे इसकी अनुमति चाहिए थी। हमने कहा ठीक है आपका आवेदन आने दीजिए हम उस पर उचित निर्णय लेंगे। शाम को मेरे घर पहुंच गए। मैंने कहा कि आपसे तो बात दिन में हो ही गई थी। फिर यहां? बोले हम दक्षिण से हैं आपको शॉल से वेलकम करना है। उन्होंने किया। फिर वो जाने लगे। जब वो दरवाज़े से बाहर निकल गए तो देखता हूं कि सोफ़े पर जहां वो बैठे थे वहां एक मैगज़िन है। मैंने उन्हें कहा कि आपका मैगज़िन छूट गया। इसे ले जाइए। बोले आप पढिए। मैंने कहा नहीं ले जाइए और उसे उठा कर उन्हें देने लगा तो उसके नीचे एक पैकेट था। अब मेरा गुस्सा चढा। मैंने कहा ये क्या है, तो बोले मैडम के लिए गिफ़्ट। तब तक मैं वो पैकेट उठा चुका था। मुझे कुछ कड़े और हरे नोट भी दिखे, … कुछ स्वर्णिम आभा भी। मैं इतनी ज़ोर से चिल्लाया और अंग्रेज़ी में (!!) ऐसी भद्दी-भद्दी गालियां दी कि वो सारी ज़िन्दगी उसका अर्थ ढूंढता फिरेगा। कहने का मतलब कि गिफ़्ट लेना भी उसे श्रेणी में आता है जिसे हम भ्रष्टाचार कहते हैं।
कई बार मैं साधारण दर (!) का उपहार लेकर किसी शादी-ब्याह में जाता हूं तो श्रीमती जी कहती हैं कि ये क्या ले जा रहे हो, लोग क्या कहेंगे? ये ‘लोग क्या कहेंगे’ का भूत जिस दिन उतर गया समझिए कि १० से २० % तो भ्रष्टाचार मिट ही गया। अरे सरकारी स्कूल में बच्चे का एड्मिशन -- लोग क्या कहेंगे? ये साधारण शर्ट -- लोग क्या कहेंगे? ये दो रूम का एल आई जी फ़्लैट -- लोग क्या कहेंगे?
मैं ५० हज़ार से एक लाख का सामान डाले जब किसी अधिकारी को दफ़्तर में ढुकते देखता हूं तो कई बार सोच में पड़ जाता हूं कि ये सब कहां से कर पाते हैं?
अब इसका उत्तर आपको यहां ही मिल सकता है। सेवानिवृत केंद्रीय सतर्कता आयुक्त प्रत्यूष सिन्हा का कहना है कि बमुश्किल 20 प्रतिशत लोग ही ऐसे होंगे जो अपनी अंतरात्मा के बल पर ईमानदारी से जिंदगी जी रहे हैं। आज तो आलम यह है कि जिसके पास जितना अधिक धन होता है, उसे उतना ही सम्मानजनक माना जाता है। कोई यह प्रश्न नहीं उठाता कि उसने इतना धन कैसे कमाया?
दुनिया के सबसे अधिक भ्रष्टाचारी देशों की सूची में भारत 87 वें स्थान पर है और हमारा “करप्शन परसेप्शन इंडेक्स” 3.4 है। जबकि न्यूजीलैंड 9.4 अंक के साथ पहले स्थान पर है।
मैंने इसलिए बात की कि हमको जितनी ज़रूरत है उतना ही प्रयोग करें। हम कोई बात जब तक बाहरी उदाहरणों से नहीं करते लोग उसे औथेंटिक मानने को तैयार नहीं होते वरना यह बात तो हमारे उपनिषद् भी बोलते हैं --
ईषावास्यमिदम् सर्वम यत्किंच जगत्यामजगत्।
तेन त्य्क्तेन भुंजीथाह मा गृध: कस्यस्विद्धनम्॥
कुछ लोग खाने के लिए जीते हैं, कुछ जीने के लिए खाते हैं। मैं दूसरे तरह का आदमी बनना पसंद करूंगा। हर पल मैं जब कुछ करता हूं तो यह मेरे मन में घूमता रहता है कि ये जो मैं कर रहा हूं अगर मेरी मां देखती होती तो क्या वह गर्व से कहती ‘शाबस मेरे बच्चे!’ या शर्म से सिर झुका लेती। हम बदलते समय और आ रही नैतिक मूल्यों मे गिरावट की बात कर लेते हैं, लेकिन हमें सोचना चहिए कि दोष किसका है। धन-दौलत ही सब कुछ नहीं होता। बहुत से लोगों के पास काफ़ी धन है मगर वे फिर भी ग़रीब हैं। ये दौलत,ये धन, हमें हंसी दे सकते हैं, खुशी नहीं। बिस्तर दे सकते हैं नींद नहीं। चमक-दमक दे सकते हैं, खूबसूरती नहीं। खाना दे सकते है, भूख नहीं। मकान दे सकते है, घर नहीं।
नैतिकता और मूल्य अब शब्दकोश में दुबक गए हैं। नैतिकता और ईमानदारी सुविधानुसार, समय के साथ नहीं बदलते। हमारी नैतिकता और ईमानदारी आस्था पर टिकी होनी चाहिए सुविधा पर नही। इसके लिए लालच, डर और दवाब तीनों से जूझना पड़ता है। हो सकता है इसकी क़ीमत चुकानी पड़े। (तबादला, वार्षिक रिपोर्ट आदि के रूप में)।
पर
अपनी इच्छाओं को सीमाओं में बांधे रखिए,
वरना ये शौक गुनाहों में बदल जाएंगे।
ये हीरे जवाहरात और काग़ज़ के बंडल लेकर कोई उस लोक जाएगा क्या जो हर अनैतिक कर्म में लिप्त हैं। जाना तो सभी को है। कुछ लोग अगली सात पीढी को सुरक्षित कर देना चाहते हैं। तब एक कहावत मन में गूंजने लगती है – पूत कपूत तो क्यों धन संचय, और पूत सपूत तो क्यों धन संचय।
मैं तो ईश्वर से यही कहता हूं
बस मौला ज्यादा नहीं, कर इतनी औकात,
सर उँचा कर कह सकूं, मैं मानुष की जात
अब कुछ क्षणिकाएं--
होगया ज्ञानी मैं
जब सारी पोथी पढ़ ली
फिर अपने चारों ओर
उँची दीवारें कर ली।
थी यह अभिलाषा
ज्ञान इतना पा जाऊं
हो जाए मेरा परिचय
मुझसे।
पढ लिखकर
ज्ञान बढा
सीख लिया जग की
रीति और रिवाज़ को
जान गया
मैं हूं हिंदू, तू है मुस्लिम
शब्दों के भेद ने
भेद दिया समाज को
ययाति की तरह
पुत्र से भी यौवन लेकर
अनंत सुख भोग की कामना
आज भी
लोगों के जीवन से लिपटी है
तृष्णा।
होती है अतृप्त
भोगने की अनंत लिप्सा।
हम अपनी इच्छाओं पर क़ाबू नहीं पा सके हैं इसलिए इतना बढ गया है ये शैतान का बच्चा – “भ्रष्टाचार”
जवाब देंहटाएंपर
अपनी इच्छाओं को सीमाओं में बांधे रखिए,
वरना ये शौक गुनाहों में बदल जाएंगे।
बहुत संतुलित आलेख .. भ्रष्टाचार फैलने के कारण के साथ साथ इसे रोकने का उपाय भी तो साफ हो गया !!
थी यह अभिलाषा
जवाब देंहटाएंज्ञान इतना पा जाऊं
हो जाए मेरा परिचय
मुझसे।
पर शायद संसार की चकाचोंध में हम इस बात को भूल जाते हैं , और फिर करने लगते हैं भ्रष्टाचार ,
यह बात भी सही कही की भ्रष्टाचार को हमने स्वीकार कर लिया है .....
सारगर्भित पोस्ट , शुभकामनायें
मनोज बाबू!आज तो बुझाता है एकदम फुर्सत में हैं... भ्रष्टाचार पर गजब गजब बात लिखे हैं कि भ्रष्टाचारी सरम से डूब जाए...उसपर से गजब का क्षणिकाएँ एक से एक!!कभी कभी फुर्सत को भी फुर्सत दिया कीजिए!बहुत बढिया लेखन!!
जवाब देंहटाएं"लोग क्या कहेंगे?" आपने बिलकुल सही कहा. हमारी अधिकतर सामजिक बुराइयों का कारण यही एक छद्म सी सोच है की हमारे आस-पास के लोग क्या कहेंगे. सार्थक पोस्ट है और अंतिम के क्षणिका सुन्दर है!
जवाब देंहटाएंhttp://draashu.blogspot.com/2010/10/blog-post_27.html
सही कहा आपने। समाज में व्यापित बड़ी बड़ी आकांक्षाएं भ्रष्टाचार की जनक हैं। भ्रष्टाचार के बीज तो हमारे अंदर प्रारम्भिक समय में ही अनजाने अनचाहे रोप दिए जाते हैं, प्रलोभन देकर बच्चों से काम करवाकर या उनके समक्ष इसी प्रकार की बातें करके। उपयुक्त माहौल मिलने पर, बाद में, तो केवल यह विष बेल विस्तार ही पाती है। कुछ मामलों में जहाँ ज्ञान और विवेक प्रखर होता है वह इस बेल को जड़ मूल से नष्ट कर देता है लेकिन ज्यादातर की अपेक्षाएं धन वैभव की चमक दमक और प्रतिष्ठा के मोह का संवरण नहीं कर पाती हैं।
जवाब देंहटाएंइस अवसर पर सामाजिक जीवन में मूल्यों के प्रतिमान प्रतिष्ठित करने वाले सरदार पटेल को सादर श्रद्धांजलि।
आपकी यह पोस्ट भ्रष्टाचार के प्रति लोगो को जागरूक करने में विचार मंथन का आधार बनेगी।
जवाब देंहटाएंसामाजिक उत्थान के लिए जा रहे आपके प्रयासों के लिए आपको साधुवाद।
बहुत संतुलित, सारगर्भित और प्रेरक आलेख। शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंभ्रष्टाचार के कारण और निवारण दोनों पर ही सधी हुई लेखनी चली है ...क्षणिकाएं सब एक से बढ़ कर एक ...ज्ञान प् कर अपने चरों ओर दीवारें खड़ी कर लेना ... खुद से परिचय की लालसा ..तृष्णा का बढ़ना और अपने ही प्रतिबिम्ब से डरना ...बहुत अच्छी और सार्थक पोस्ट ...
जवाब देंहटाएंBahut hi sundar lekh.
जवाब देंहटाएंbadhai
मनोज जी, आप सही कह रहे हैं कि जीवन के छोटे-छोटे प्रलोभन ही एक दिन भ्रष्टाचार का रूप लेते हैं। हमारा समाज न जाने हमें कितने प्रकार के भ्रष्टाचार सिखाता है। लेकिन यदि हम अपनी जरूरतों को सीमित कर लें तब अनावश्यक भ्रष्टाचार की आवश्यकता नहीं पड़ती। बहुत अच्छा आलेख।
जवाब देंहटाएंनैतिक मूल्यों का ह्रास दुनिया भर में हो रहा है। हिमालय से कोई गंगा निकले,तभी निचले स्तर पर शीतलता संभव।
जवाब देंहटाएंबहुत संतुलित, सारगर्भित और प्रेरक आलेख। शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंhttp://sanjaykuamr.blogspot.com/
आप के विचार पढ कर मुझे बहुत अच्छा लगा, सत्य बात क्ही आप ने, इस सुंदर ओर विचारणिया लेख के लिये धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआदर्णीय मनोज जी , आपका यह पोस्ट बहुत ही अच्छा लगा.आपकए विचार अच्छे लगे.बहुत बहुत आभार और शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएं@ संगीता पुरी जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका। लगता है कि हमारे देश की बढी आबादी भी इसका एक कारण है।
@ केवल राम जी
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा कि संसार की चकाचोंध में हम सब बात को भूल करने लगते हैं भ्रष्टाचार। कभी-कभी तो लगता है आज देश में केवल भ्रष्टाचार ही जीवित है।
एक बेहद उम्दा और सशक्त आलेख आज के हालात पर्……………उसी के साथ ्क्षणिकाये भी बेहतरीन हैं। जीवन के सत्य को उजागर करती हैं………………
जवाब देंहटाएं@ सलिल भाई
जवाब देंहटाएंफ़ुरसत को फ़ुरसत तो दे-दें पर क्या आपको नहीं लगता कि आज अगर ख़ामोश रहे तो कल हमारा सब कुछ लुट जाएगा।
भ्रष्टाचार एक तरह से रग रग में समा गया है.. आप बिजली नहीं लगा सकते बिना घूस दिए.. पानी का कनेक्सन नहीं लगा सकते बिना घूस दिए... टेलीफ़ोन नहीं लगा सकते.. सरकार में , सरकार का कोई काम नहीं होता बिना घूस के... एक टेंडर नहीं छूटता बिना १०% कमिसन के.. अब तो कोर्पोरेटाजेसन हो गया है.. गिफ्ट.. डोनेसन... सपोर्ट.. के नाम पर... हमको तो लगता है कि ईमानदारी से यदि अध्यनन किया जाय तो पूरे जी दी पी का १०% भ्रस्ताचार का प्रतिशत है... और इसकी वृद्धि डर जी दी पी से अधिक है...
जवाब देंहटाएं@ आशु जी,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका।
@ हरीश जी
जवाब देंहटाएंमन में यह प्रश्न आता रहता है कि क्या भ्रष्टाचार का अंत संभव है?
@ परशुराम राय जी
जवाब देंहटाएंस्नेह और आशीष बनाए रखिएगा।
@ निशांत जी, मोहसिन जी,राज जी, संजय जी, बूझो तो जानें
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आभारी हूं।
@ संगीता जी
जवाब देंहटाएंकहा गया है जब दृष्टि बदलती है तो सृष्टि बदल जाती है। आज के हालात में पता ही नहीं चलता कि दुनिया की निगाह में क्या बुरा है क्या भला?
@ अजीत जी
जवाब देंहटाएंआपसे सहमत होते हुए यह कहूंगा कि इमानदारी की पहचान लोगों के कपड़ों की सफ़ेदी से नहीं उसके आचरण की स्वच्छता से की जानी चाहिए।
@ राधारमण जी
जवाब देंहटाएंआपने तो दुष्यंत जी को याद करने का महौल बना दिया
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
@ वंदना जी, अरुण जी
जवाब देंहटाएंदुष्य़ंत जी फिर याद आ गए
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कंवल के फूल कुम्हालाने लगे हैं।
अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम,
आदमी को भून कर खाने लगे हैं।
8/10
जवाब देंहटाएंक्या खूब बतियाया है ..
स्व-महिमा मंडन को किनारे कर दें तो बेहतरीन लेख. आपने सबकुछ तो कह दिया :
"नैतिकता और ईमानदारी सुविधानुसार, समय के साथ नहीं बदलते। हमारी नैतिकता और ईमानदारी आस्था पर टिकी होनी चाहिए सुविधा पर नही। इसके लिए लालच, डर और दवाब तीनों से जूझना पड़ता है। "
क्षणिकाएं भी बेहतरीन हैं
मजोज जी बहुत बनिया लिखे हो..... हाँ जरा बूझिये तो हम काहे ऐसा कह रहे हैं... अरे भाई हम खुदे भी ई सरकारी भ्रष्टाचार के तालाब में पल रही एक बहुत छोटी से मछरिया हैं.
जवाब देंहटाएंआपने ऐसा विषय उठाया है कि इसपर अपने अबतक के अनुभवों को हजार पन्नो में लिखूं तो भी पूरा न पड़े.....
जवाब देंहटाएंईश्वर ने बहुत निकट से सब देखने का अवसर दिया है...क्या कहूँ और क्या छोड़ दूं...
मन विचलित और क्षुब्ध तो हुआ ही विषय ध्यान में आने पर , पर यह संतोष भी मिला कि अच्छे लोग धरती से ख़तम नहीं हुए हैं.....
आपकी क्षणिकाएं बेजोड़ हैं...
@ उस्ताद जी
जवाब देंहटाएंले लिया न डिस्टिंक्शन।
ये स्व-महिमामंडन नहीं है, उदाहरण में जो पात्र है वह "क-ख-ग" की जगह "मैं" है।
@ विचार शून्य जी
जवाब देंहटाएंतालाब और सड़ी मछली पर फिर से दुष्यंत जी का शे’र
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कंवल के फूल कुम्हालाने लगे हैं।
@ रंजना बहन
जवाब देंहटाएंपहले हरि अनंत हरि कथा अनंता था, अब तो भ्रष्टाचार ही रह गया।
होगया ज्ञानी मैं
जवाब देंहटाएंजब सारी पोथी पढ़ ली
फिर अपने चारों ओर
उँची दीवारें कर ली।
sundar likha hai!
aalekh bhi sateek saargarbhit!!!!
regards,
वाह! सतर्कता सप्ताह ब्लॉग पर मन गया। जय हो!
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया पर्स्तुती सर जी
जवाब देंहटाएंमज़ा आ गया
पतीले का एक चावल देख कर ही
जवाब देंहटाएंअनुमान हो जाता है!
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होगया ज्ञानी मैं
जब सारी पोथी पढ़ ली
फिर अपने चारों ओर
उँची दीवारें कर ली।...
--
एक क्षणिका से ही हमने भी पोस्ट का अनुमान लगा लिया!
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वाकई में भ्रष्टाचार पर बतियाने की किसी को फुरसत नहीं है!
--
आप धन्यवाद के पात्र हैं!
"ये दौलत,ये धन, हमें हंसी दे सकते हैं, खुशी नहीं। बिस्तर दे सकते हैं नींद नहीं। चमक-दमक दे सकते हैं, खूबसूरती नहीं। खाना दे सकते है, भूख नहीं। मकान दे सकते है, घर नहीं।"
जवाब देंहटाएंजीवन की सच्चाई जिस हम अक्सर नज़रंदाज़ करते हैं.
बेहतरीन विचार.
बधाइयां एवं दीपावली की शुभकामनाएँ.
आदर्णीय मनोज सर,
जवाब देंहटाएंबहुत बढिआ आलेख. आपका शनिवार का पोस्ट जानदार और शान्दार रहता है.हर शनिवार को आपके पोस्ट का इन्तज़ार रहता है. आगे भी रहेगा. शुभकामनायें...
सच्ची बात के लिये आभार
जवाब देंहटाएंविरहणी का प्रेम गीत
एक गंभीर विषय पर रोचक आलेख, जो विषय के अनेक पहलु को बहुत संवेदनशीलता और स्पष्टता से सामने रखता है। समाधान के लिए आपने लेक्चर मारने की कोशिश नहीं की वह तारीफ़ के क़ाबिल है, क्योंकि इस रोग को दूर करने के लिए हर इंसान में भावना स्वयं से उपजनी चाहिए।
जवाब देंहटाएंक्षणिकाएं --- सारगर्भित हैं।
बहुत शानदार एवं सार्थक आलेख.
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार एवं सार्थक आलेख.
जवाब देंहटाएंमन रे तू काहे न धीर धरे।
जवाब देंहटाएंसच में इमानदारी को निभाना बहुत ही मुश्किल है वो भी तब जब देश की भ्रष्टाचार में ये रेंकिंग हो.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट.
स्स्स्सस्स्स्स.......स्स्स्सस्स्स्स............ कोई सुन लेगा............ !!
जवाब देंहटाएंमनोज जी,
जवाब देंहटाएंइस गंभीर विषय को आपने बहुत रोचकता से लिखा है. प्रत्युष सिन्हा का आकलन कि २०% लोग ही ईमानदार होंगे....यह कुछ ज्यादा ही आशावादी विचार नहीं हैं? मुझे तो लगता है..इमानदारों की ५ % ही होगी कम है. पर हाँ, आप जैसे लोग हैं जरूर. तभी ये दुनिया कायम है.
आपके गिफ्ट वाले संस्मरण से मैं भी रु-ब-रु हो चुकी हूँ...जब मुझे मोहरा बना किसी ने पापा को रिश्वत देने की कोशिश की थी. अपनी १० साल की बेटी को मुझसे दोस्ती के लिए प्रेरित किया. फिर बेटी की दोस्त के बहाने माँ के साथ, मुझे और भाइयों को खाने पर बुलाया (पाप को बुलाने की हिम्मत नहीं हुई, उनकी ) और जाते समय नौकर के हाथों में बड़ा सा पैकेट थमा दिया था. जिसे हमने घर आकर देखा. उसी रात में पापा ने चपरासी के हाथों वो पैकेट लौटवा दिया. और हमें डांट पड़ी सो अलग...कि ध्यान क्यूँ नहीं रखा.
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 28 -06-2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... चलो न - भटकें लफंगे कूचों में , लुच्ची गलियों के चौक देखें.. .
थी यह अभिलाषा
जवाब देंहटाएंज्ञान इतना पा जाऊं
हो जाए मेरा परिचय
मुझसे।
सार्थकता लिए सटीक लेखन ... आभार
भ्रष्टाचार पर बहुत सजग तरीके से खुलकर मन की बात पढ़कर अच्छा लगा ... इस पर जितना लिखा जाय शायद कम ही होगा ..बहुत बढ़िया सटीक चिंतनशील प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं