मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

कथांजलि : योगदान

योगदान
- सत्येन्द्र झा
पुरुष नाम-यश के लिए परेशान था और स्त्री घर के आर्थिक संकट के निवारण के लिए बेहाल। रचनाएं मष्तिष्क में ही दम तोड़ देती थी। घर में कागज़ का भी घोर अभाव था।
स्त्री सड़क और गलियों से रद्दी कागज़ और पुराने अखबारों को बीन कर घर लाने लगी। पुरुष उन्ही कागजों पर अपनी रचनाधर्मिता का निर्वाह कर लेता था। स्त्री पुनः उन कागजों को कवारी वाले के हाथों बेच आती थी। घर में कुछ पैसे आने लगे। दोनों संतुष्ट थे.... आखिर योगदान तो दोनों का था।
(मूल कथा मैथिली में "अहीं के कहै छी" में संकलित 'तालमेल' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित)

18 टिप्‍पणियां:

  1. इस लघुकथा को पढकर छविनाथ मिश्र जी की दो पंक्तियां याद आ गई---
    मुन्ने की अम्मा कहती है, कविवर सुनो कहानी,
    कविता क्या दहेज में दोगे, बिटिया हुई सयानी।

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  2. रचनाधर्मिता के निर्वाह के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है.. यह संघर्ष की कथा है या व्यंग्य.. बहुत सूक्ष्म अंतर है.. उत्कृष्ट लघुकथा ..

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  3. बहुत सुन्दर सत्य के करीब लघुअकथा। बधाई आपको।

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  4. सन्देश प्रद लघुकथा के लिए सत्येन्द्र जी और करण जी को साधुवाद।

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  5. लक्ष्मी और सरस्वती का ताल-मेल बहुत दुर्लभ होता है .

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  6. चंद पंक्तियों में गहन बात ...अच्छी लघुकथा

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  7. शानदार लघुकथा...बधाई.
    ________________

    'पाखी की दुनिया' में अंडमान के टेस्टी-टेस्टी केले .

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  8. गूढ़ लघुकथा . लेखन कभी सरल नहीं रहा ऐसा लगता है. ये विपरीत स्थितियों में ही जन्मता और फलता फूलता है .

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  9. छोटी सी लघु कथा...लेकिन समुद्र जैसा गहरापन और उतना ही फैला हुआ उस जीवन का कटु यथार्थ.

    सराहनीय.

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  10. योगदान - लघुकथा ने मन मोह लिया

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  11. kaise kaise yogdaan!
    kismat ka mara naache har insaan!!
    bahut sundar sangharsh katha

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