योगदान
- सत्येन्द्र झा
पुरुष नाम-यश के लिए परेशान था और स्त्री घर के आर्थिक संकट के निवारण के लिए बेहाल। रचनाएं मष्तिष्क में ही दम तोड़ देती थी। घर में कागज़ का भी घोर अभाव था।
स्त्री सड़क और गलियों से रद्दी कागज़ और पुराने अखबारों को बीन कर घर लाने लगी। पुरुष उन्ही कागजों पर अपनी रचनाधर्मिता का निर्वाह कर लेता था। स्त्री पुनः उन कागजों को कवारी वाले के हाथों बेच आती थी। घर में कुछ पैसे आने लगे। दोनों संतुष्ट थे.... आखिर योगदान तो दोनों का था।
(मूल कथा मैथिली में "अहीं के कहै छी" में संकलित 'तालमेल' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित)
इस लघुकथा को पढकर छविनाथ मिश्र जी की दो पंक्तियां याद आ गई---
जवाब देंहटाएंमुन्ने की अम्मा कहती है, कविवर सुनो कहानी,
कविता क्या दहेज में दोगे, बिटिया हुई सयानी।
रचनाधर्मिता के निर्वाह के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है.. यह संघर्ष की कथा है या व्यंग्य.. बहुत सूक्ष्म अंतर है.. उत्कृष्ट लघुकथा ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सत्य के करीब लघुअकथा। बधाई आपको।
जवाब देंहटाएंकितना कुछ कह गयी कुछ पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंसन्देश प्रद लघुकथा के लिए सत्येन्द्र जी और करण जी को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंलक्ष्मी और सरस्वती का ताल-मेल बहुत दुर्लभ होता है .
जवाब देंहटाएंचंद पंक्तियों में गहन बात ...अच्छी लघुकथा
जवाब देंहटाएंशानदार लघुकथा...बधाई.
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'पाखी की दुनिया' में अंडमान के टेस्टी-टेस्टी केले .
गूढ़ लघुकथा . लेखन कभी सरल नहीं रहा ऐसा लगता है. ये विपरीत स्थितियों में ही जन्मता और फलता फूलता है .
जवाब देंहटाएंbahut sundar laghu katha... sadhuwaad
जवाब देंहटाएंअजब योगदान !
जवाब देंहटाएं... शानदार लघुकथा !
जवाब देंहटाएंJiwan ki wastwikta ko samne lati rachna
जवाब देंहटाएंshubhkamnayen
wah.....sadhuwad..
जवाब देंहटाएंbahoot hi sunder laghukatha
जवाब देंहटाएंछोटी सी लघु कथा...लेकिन समुद्र जैसा गहरापन और उतना ही फैला हुआ उस जीवन का कटु यथार्थ.
जवाब देंहटाएंसराहनीय.
योगदान - लघुकथा ने मन मोह लिया
जवाब देंहटाएंkaise kaise yogdaan!
जवाब देंहटाएंkismat ka mara naache har insaan!!
bahut sundar sangharsh katha