बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

देसिल बयना - 53 : जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी ?

देसिल बयना - 53 : जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी ?

-- करण समस्तीपुरी
हा.... हा... हा.... ! उ दिन का घटना भी........ हें...हें...हें.... ! बाप रे बाप.... ! तौलिया से मुँह बाँधने पर भी हंसी का फब्बारा नहीं रुकता है....हा...हा...हा.... ! चल्लित्तर सेठ कने चकली वाला गिरामोफोन पर खूब सुने रहे 'रघुपति राघव राजा राम.... !" मगर गिरमिटिया कलकत्ता से बेजोर बिलायती बाजा लाया रहा। एकदम छोटकी बक्सा जैसा और नाम कहता रहा....उ का तो कहता रहा.... हाँ.... याद आया.... टेंजिस्टर। हा... हा...हा.... !!
एंह.... ! पदुम लाल गुरूजी का बड़का दालान करामा लोग से भरा हुआ था। गुरूजी के मचिया पर ललका गमछी बिछा के ऊपर से टेंजिस्टर को रखा। फिर अगरबत्ती दिखा के जैसे ही कनैठी दिया कि उ टेंजिस्टरबा कर्र-कर्र.... किहिस मगर दुइये मिनट में ऐसे बके लगा जैसे झींगुर भगत के मंतर से भूत बकने लगता है।
"ई आकाशवाणी है !"  रे तोरी के... ! ई कलयुग में भी आकाशवाणी.... ? चुल्हाई मिसर जय शिव-जय शिव करने लगे। सब आकाश को  निहारिये रहा था कि फिर आवाज आई, "अब आने वाला है इन्द्रधनुष....!"
"अहि तोरी के....! आकाशवाणी और अब इन्द्रधनुष। हम तो पहिलेही कह रहे थे, ई मलेच्छ बाजा है। ई को गाँव में लाया तो देखो सब अजगुत। ई दक-दक इजोरिये में इन्द्रधनुष। राम रच्छा करें.... !" कहते हुए मिसिरजी भागे घर दिश।
बिशुनी चौधरी बोले, "अरे मिसिर जी कहाँ जा रहे हैं... आगे तो सुन लीजिये... !"
मिसिरजी झटकते हुए बोले, "रुकिए ! घर से छाता लेकर आते हैं तब सुनेंगे।"
नन्ह्किया पूछा था, "मिसिर बाबा ! छाता ले के का कीजियेगा ?"
"मार खचरा.... ! सुना नहीं... आकाशवाणी क्या कहिस... ? इन्द्रधनुष आने वाला है... ! कहीं बरस गया तो.... ?"
हा...हा...हा.... ! उ तो और कितना आदमी डर जाता... मगर गिरमिटिया चट से बोला, "अरे नहीं इन्द्रधनुष आता नहीं है बस टेंजिस्टर पर रंग-बिरंग के गीत बजता है। सच्चे में टेंजिस्टर बाबा तो जनानी के आवाज में तो गाने लगे, "मेरे पिया गए रंगून... ! किया है वहाँ से टेलीफून.... !तुम्हारी याद सताती है....!" 
"हा...हा...हा.... "बेचारे मिसिरजी सुखले में ठगा गए.... !" पदुम लाल बतीसी निपोर कर बोले थे।  फिर ई बात पर कितना हंसी फूटा कि पूछिये मत। अभी भी हमको उ दिरिस याद आते ही पेट में बल पड़ने लगता है..... हें...हें...हें... हें.... !
मगर देखिये, तभी से अभी जमाना केतना बदल गया है। बिना पंखे के आदमी चाँद पर पहुँच गया। अरे चाँद से याद आया.... आज करवा चौथ है। टीवी और सनीमा तो चन्दा को करवा चौथ का 'बिरांड इम्बेस्टर' बना दिया है। पहिले तो अपने देश में तीज-मधुश्रावणी होता था अब करबा चौथ भी होता है।"
कल्हे सांझे से देखे रहे। कजरावाली, गजरावाली, उड़नपरी सब छमा-छम करते हुए पेठियागाछी दिश जा रही थी। नवगछिया वाली काकी से पूछे, "काकी ! पूर्णिमा में तो अभी पन्द्रहियो से ऊपर है, ई जानना लोग कौन मेला मे जा रही है...!"
काकी बोली, "मार बुरबकहा !अरे ई सब मेला में नहीं, पेठिया जा रही है, साज-सिंगार खरीदे। कल्हे करवा चौथ है ना.... ! कल्हे मेहँदी, गजरा, कजरा लगा के न उपवास करेगी!"
हम भी मने मन कहे 'चाबश ! तब तो कल्हे पीरपैंती वाली भौजी को चिढाने का बढ़िया मौका है।  कल तो उहो सजेगी। उनके सजने सँवरने का शौक तो हम पछिला होलिये में देख लिए थे। गिरमिटिया के टेंजिस्टर वाला गाना सुना के चिढाये भी थे, "झुमका बरेली वाला... कानो में ऐसाडाला... झुमके ने लेली मेरी जान.... ! हाये रे मैं तेरे कुर्बान.... !!"
दुपहरी बाद गाय को बाँध कर हाथ-पैर धोये और सीधे उतरवारी तोल के रास्ता पकड़ लिए। मने में फ़िल्मी गीत सब भी याद कर रहे थे जौन से भौजी को चिढायेंगे। "साँची कहें तोहरे आवन से हमरे अंगना में आईल बहार भौजी !" गुनगुनाते हुए, गीत गाते हुए, दो कदम का एक कदम बढाते हुए,  धायं से पहुंचे बिजली काकी कने।
"राम-राम काकी ! भौजी किधर है... ? द्वार पर हुक्का गुरगुरा रही काकी से बस औपचारिकता किया और काकी के आँगन की तरफ हाथ दिखाए से पहिले ही, "कहाँ बा रु हो भौजी...?" कहते हुए अंगना में दाखिल हो गए। आँगन में कोई था तो नहीं मगर अदृस आवाज आयी ठीक गिरमिटिया के टेंजिस्टर जैसे, "आते हैं बबुआ...!" ओह तो भौजी भीतरी कमरा में हैं। लगता है सिंगार-पटार कर रही होंगी। हम अपने मन में ही सोचे, चलो चिढाने का यही अच्छा बहाना है। वहीं दुआरी पर अखरे चौकी पर ताल देकर लगे गाने, "हाथ में मेहँदी, मांग सिंदूर, बर्बादी कजरबा होगइला.....  बा री बालम परदेसबा बिताबे उलझनमें सबेरबा हो गइला.... !"
भौजी निकले में देरी होने पर गीत रोक के बोले, "का हो भौजी ! अरे केतना सिंगार करोगी...! अरे बहरा भी आ जाओ ! हम कबे से चौखट पर भजन गा रहे हैं !" भौजी तो पाछे निकली। उ से पहिले बहराया जिबछी मौसी के आवाज़, "बहुरिया का सिंगार-पटार करेगी बाबुआ... ! उ तो रोये-रोये के आँख सुजा रही है।"
अरे... ई का... ! सच्चे में भौजी के चेहरा पर सिंगार-पटार का कौनो लच्छन नहीं था।   हम पूछे, "का हुआ भौजी ! ई बार करवा चौथ नहीं रख रहीहो... ?"
भौजी मद्धिम से बोली, "हाँ उपवास तो रखे हैं।"
हम कहे, "ई लो... ! कर दी न भागलपुरिया गप्प। अरे ई कौनो जितिया है कि सुखले उपवास कर लिए। करवा चौथ का उपवास कजरा, गजरा, मेहँदी, झुमका लगा के होता है.... ! औरत हो कि का हो... ? बिना सिंगार के त्यौहार.... ?"
भौजी तो कुछ नहीं बोली मगर जिबछी मौसी फिर कुहर के बोली, "तु अभी नादान हो बेटा ! तोहरे नहीं बुझाएगा... ! अरे कहते नहीं हैं कि "जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी"। बटेसर बौआ परदेस कमा रहे हैं, इहाँ बेचारे बहुरिया किसको दिखाए खातिर सिंगार करेगी।" जिबछी मौसी के डायलोग में दरद तो था मगर कुछ चुटकी भी था। लेकिन भौजी के कजराई आँखों आंसू नहीं छुपा सकी। चौबन्नी भर-भर के मोटा-मोटा लोर ज़मीन चूमने लगा।
हमको भी थोड़ा दुःख हुआ, "ओह ! खा... म... खा.... भौजी को चिढ़ा दिए...!" लेकिन हम ई नहीं समझे कि सोलहो सिंगार प्रिय भौजी को का हो गया ? अरे बटेसर भाई नहीं हैं मगर साज-सिंगार का समान, अपना दुन्नु हाथ और अलमारी में सेट बड़का आइना तो हैय्ये है। फिर सिंगार काहे नहीं करती है ? अच्छा जिबछी मौसी का कह रही थी, "जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी"।
ओ.... अब समझ में आया.... ! "जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी"। मतलब कि जिस वस्तु या संसाधन का कोई उपभोक्ता ही नहीं हो उसकी क्या उपादेयता। मतलब उनके सिंगार रस का उपभोग करने वाले बटेसर भैय्या तो परदेस में हैं तो इहाँ पीरपैंती वाली भौजी के सिंगार की क्या जरूरत है। हाँ.... तो ये बात ! अच्छा चलो ! कोई बात नहीं।  भौजी सिंगार करती तो चिढाते। नहीं की तो एगो कहावत तो सीखे, "जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी"।

26 टिप्‍पणियां:

  1. Post conntains entertaining words. The charecters have been choosen as oer the requirement of the dialogue.Realistic,entertaining and innovative post. Thanks. Good Morning.

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  2. इन्द्रधनुष की आखिरी पेशकशः
    सजन बिन रहब न हम ससुराल
    देवरवा बड़ा सतावेला........

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  3. "जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी"? की भाषा बड़ी लज्ज़तदार है, और पूरी समझ में आ रही है.
    आपके 'मनोज' ब्लॉग के लिए चयन किये गए मैटर में विविधता और स्तरीयता दोनों देखने को मिलती है. इसे आप की खूबी कह सकते हैं.लेखक को भी बधाई


    कुँवर कुसुमेश

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  4. जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी" बहुत सुंदर इस से प्रतीत होता हे कि भारतिया नारी पति को रिझाने के लिये सिंगार करती हे,ोर यह सच ओर सही भी हे, इस सुंदर लेख के लिये आप का धन्यवाद

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  5. वाह करन जी !
    इस बार भी कमाल कर दिया ! वही सोंधी मिट्टी की मिठास और वही लेखनी का जादू !
    पढ़ कर मन खुश हो गया !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ
    www.marmagya.blogspot.com

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  6. रेणु जी की याद ताजा कर दी। आभार

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  7. देसिल बयना पढकर बहुत अच्छा लगा.

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  8. अरे ई कौनो जितिया है कि "सुखले उपवास" कर लिए। करवा चौथ का उपवास कजरा, गजरा, मेहँदी, झुमका लगा के होता है.... !



    वर्तमान परिदृश्य में व्रत का आडम्बरपूर्ण यही रूप तो बच गया है...सार्थक और करारी चोट की है आपने..



    वैसे सजने के लिए साजन के उपस्थिति की अनिवार्यता नगण्य रह गयी है...बीते ज़माने की बात हो गयी यह..

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  9. देसिल बयना हस सब को बहुत लुभा रहा है। संकलन और प्रस्तुति की दाद देनी पड़ेगी। शुभकामनाएं।

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  10. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। करण जी, देसिल बयना की निरंतरता और आपकी लेखनी की बहुरंगी छटा आपकी निष्ठा की परिचायक है। साधुवाद।

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  11. रेणु जी की याद ताजा कर दी। आभार

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  12. अरे चाँद से याद आया.... आज करवा चौथ है। टीवी और सनीमा तो चन्दा को करवा चौथ का 'बिरांड इम्बेस्टर' बना दिया है। पहिले तो अपने देश में तीज-मधुश्रावणी होता था अब करबा चौथ भी होता है।"
    ....Bahut achhi prastuti...

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  13. सौंधी खुश्बुओं का बादल समेटे एक सुंदर प्रस्तुति. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

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  14. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.बधाई....

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  15. कहावतों का संग्रह के साथ ही साथ उसके अर्थ को भी एक कहानी के माध्‍यम से स्‍पष्‍ट करने का बहुत ही बढिया प्रयास .. सभी कहानियां ग्रामीण परिवेश की वास्‍तविक स्थिति को दिखाती तो है ही , प्रवाह को भी बनाए रखती है !!

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  16. .

    इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए आपका आभार। पढ़कर मज़ा आ गया।

    एक बात कहना चाहूंगी। सजने का और श्रृंगार का अपना एक अलौकिक आनंद होता है। आत्मा तृप्त हो जाती है। घर परिवार के सदस्य भी खुश होते हैं, और पास पड़ोस भी ।

    सबसे ज्यादा तृप्ति तो स्त्री के स्वयं के मन को होती है।

    इसलिए सजना चाहिए। --स्वयं के लिए। -- सजना है मुझे सजना के लिए [ बात हुई पुरानी ]

    .

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  17. करण बाबू छा गए। कहानी तो मज़ेदार है ही, बयना भी सटीक।

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  18. औ करण बाबू,, आपका जितना तारीफ करे काम है.. त्यौहार का बाजारीकरण और लोगो के मनोभाव का सटीक चित्रण...
    कहावत को बुझाने का कला कोई आपसे सीखे.... वाह मज़ा आ गया..........................

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  19. Desil bayna ka ye desil aada hume bahot pasand aaya...
    Mogambo khush hua :)
    Hum to ai he kahenge ki sajna sawarna to mahilaon ko chaiye he chahe u karwa chouth ho jitiya ho ya teej ho...lakn agar e sab me sajan ka sath ho to sajne sawarne ka maja he kuch aur hota hai....aur sath na ho to wahi bat ho jati hai...जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी ?"
    Bahoooooooooooooooot acha likha hai apne desil bayna....Mogambo k sath sath Rachna b bahute khus hui.

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  20. करन जी इस बार देर हो गई... बहुत सुन्दर ... मन मोह लेते है आप.. ये आधुनिकता कैसे घुस रहा है वो भी आपने बखूबी कहा है.. बहुत बारीकी से देख रहे हैं चीज़ों को.. हम तो गाव घूम आते है हर हफ़्ते आप्के साथ ...

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  21. आंचलिक भाषा में आंचलिक कहावतों को चरित्रार्थ करती सार्थक पोस्ट।

    आभार।

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