आँच-40 (समीक्षा) परअरुण राय की कविता ‘गोबर’हरीश प्रकाश गुप्त |
गोबर हूँ मैं कहा जाता रहा है बचपन के दिनों से जवानी के दिनों तक और अब बच्चे भी कहते हैं उम्र के ढलान पर गोबर वही गोबर जो गाय देती हैं नाक सिकोड़ कर निकल जाते हैं हम उठा कर अपने पैर नज़र चुराते बच्चों की तरह लांघ कर सदियों से प्रवृत्ति रही है मुझे उठा कर अलग रख दिए जाने की खेतों में दबा दिए जाने की सड़ कर उपयोगी बन जाने की अजीब सी खूबी है है मुझमें पवित्र भी माना गया है मुझे लीपा गया है मुझसे आँगन घर दालान पूजा घर लेकिन तभी तक जब तक कि नहीं चढ़ा है प्लास्टर पत्थर का घर और आँखों पर इन दिनों बहुत बदलाव आ रहा है बाजार जो आ गया है इसके आने से प्रतिष्टित हो गया हूँ मैं, हो गया हूँ पर्यावरण मैत्रीय और प्रीमियम भी वही पवित्र किन्तु बदबूदार गोबर हो गया हूँ 'आर्गेनिक ' ए़क विचलित कर देने वाली सम्वेदना आ गई है मेरे प्रति 'ओल्ड एज होम ' में रहने वाले माता पिता की तरह गोबर जो हूं मैं अरुण राय जी की पहले भी एक कविता ‘कील पर टंगी बाबू जी की कमीज’ आँच के लिए ली गई थी। आज उनकी एक अन्य कविता ‘गोबर’ आँच पर ली जा रही है। वैसे देखा जाए तो दोनों कविताओं में कुछ साम्य सा है। मानवीय संवेदनाओं के प्रति और मानवीय मूल्यों के प्रति, दोनों में। अपनी कविताओं में अरुण प्रयोगवादी कवि की तरह दिखते हैं। वे निरंतर प्रयोग करते रहते हैं। अपने आसपास बिखरे ऐसे सामान्य प्रतीकों को उठाते हैं जिन्हें आम जन अनावश्यक समझ उनसे दृष्टि फेर लेते हैं अथवा उनकी उपेक्षा कर जाते हैं। अरुण ऐसे ही प्रतीकों में जीवन के रंग भरते हैं, उन्हें सजीव बनाते हैं, जिसमें आहत मन की वेदना होती है और लोकमन से सहज सम्पृक्त होने वाली संवेदना भी होती है। प्रस्तुत कविता ‘गोबर’ उपयोगी परन्तु उपेक्षित मन की व्यथा कथा सी है। उपयोगी के साथ साथ उपेक्षित के अर्थ के लिए गोबर से उपयुक्त बिम्ब ढूंढना कठिन सा लगता है। वास्तव में आधुनिक बनने, विकसित होने की अन्धी दौड़ में हम महत्वपूर्ण मूल्यों को पीछे छोड़ते चले जाते हैं। गोबर चाहे वस्तु के रूप में अथवा व्यक्ति के रूप में व्यंजित कर रहा हो, तब तक पिछड़ेपन का बोध कराता है जबतक कि आधुनिक बयार पुनः उसके महत्व अथवा मूल्य को प्रतिष्ठित न कर दे। फिर वह स्वीकार्य हो जाता है। और फिर, जिसे हम त्याग चुके होते हैं, उसी में अनेकानेक विभूषण सुशोभित होते दिखाई देने लगते हैं। इस क्रम में उपेक्षा से आहत बुर्जुवा मन की अनभिव्यक्त पीड़ा ओल्ड एज होम में रहने वाले माता-पिता की सम्वेदना के रूप में प्रस्फुटित होती है। कविता का बिम्ब बहुत ही सार्थक है तथा उपेक्षा और महत्व दोनों ही गुणों के उत्कर्ष से सम्पन्न है। गोबर उपेक्षा के कारक अल्प बुद्धि का भी विशेषण है और राह पड़ी गंदगी का भी। कविता में इनका अर्थववत्ता उसी गरिमा के साथ विद्यमान है। चाहे कोई वस्तु हो या घर परिवार का कोई सदस्य। यदि वह अधिक काम का नहीं तो वह गोबर के सदृश व्यवहृत है। उम्र के पड़ाव पर यह वस्तुवादी समझ, जब सम्मान और स्वीकार्यता की आवश्यकता होती है तब, मानव मन को आहत करती है। गोबर का एक गुण पवित्रता का भी है। हर शुभ अशुभ अवसर पर अनिवार्य आवश्यकता की तरह। वैसे ही जैसे हर घर परिवार को शुचिता का आकाश प्रकाश प्रदान करने के लिए सम्मानित बुजुर्गों की छाया की आवश्यकता महसूस होती है। विडम्बना यह है कि बुद्धि पर आधुनिकता का पलस्तर चढ़ा होने के कारण हमें इस सनातन सत्य में भी गोबर की बदबू दिखती है। उन्हें देखकर नाक मुँह सिकोड़कर, आदर सम्मान देने के बजाय उपेक्षित करके किनारे कर दिया जाता है और फिर दूसरे की दृष्टि से देखने के आदी हो चुके हमको अन्य स्रोतों से गोबर के प्रीमियम अर्थात महत्वपूर्ण और आर्गेनिक अर्थात उपजाऊ अथवा उपयोगी होने का ज्ञान होता है तो हम उन्हें ओल्ड एज होम में प्रतिष्ठित कर देते हैं। लेकिन इस क्रम में उपजी वेदना उन्हें असहज कर देती है। ‘कहा जाता रहा है ..................... उम्र की ढलान पर’ में अनुपयोगी के रूप में तथा ‘वही गोबर ............... बच्चों की तरह लाँघकर’ में अस्वीकार्य के प्रतीक के रूप में और ‘लीपा गया है मुझको ........... ’ में उपयोगी और पवित्रता दर्शाने में भी कविता की पंक्तियाँ पूरी तरह सफल हैं। हालाकि ‘प्लास्टर पत्थर का’ की व्यंजना घर और आँखों पर के लिए बिना लिखे ही स्पष्ट हो जाती है। अरुण की निष्ठा यथार्थ के प्रति असंदिग्ध है। वे जीवन के यथार्थ से मुँह नहीं मोड़ते, उसे छिपाते नहीं हैं, बल्कि उसे बेहिचक उद्गाटित करते हैं। वे अपनी बुद्धि का चतुरता से प्रयोग कर गंभीर बात को भी बड़ी सहजता से व्यक्त कर जाते हैं। उनकी रचनाएं मध्यम वर्ग की पीड़ा और उसके प्रति आस्था का प्रतिबिम्ब होती हैं और यह रचना भी उनकी ऐसी ही रचनाओं में से एक है। अरुण कविता को सरलीकृत रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस क्रम में कविता कहीं-कहीं संपूर्ण वाक्य का रूप ग्रहण कर लेती है और शब्द स्फीति की प्रतीति कराती है। कविता में भाव और अर्थ का गांभीर्य तो है लेकिन इसे संश्लिष्ट बनाने तथा आभा-वृद्धि के दृष्टिकोण से इसमें शिल्पगत संभावनाएं शेष हैं, तथापि यह कवि की अपनी शैली है। |
गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010
आँच-40 (समीक्षा) पर अरुण राय की कविता ‘गोबर’
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सही कहा आपने। कविता में भाव हैं, संवेदना है लेकिन इसे और संश्लिष्ठ बनाया जाता तो कविता में अधिक निखार आ जाता। समीक्षा से कविता के अर्थ को विस्तार मिला है। समीक्षक ने कविता के गुण दोषों पर निरपेक्ष भाव से दृष्टि डाली है। साथ ही रचना की कमियों की ओर भी हल्के से संकेत किए गए हैं।
जवाब देंहटाएंतीसरे पैरा की पंक्ति "कविता में इनका अर्थववत्ता उसी गरिमा के साथ विद्यमान है।" में 'इनका' के स्थान पर 'इनकी' होना चाह्ए था। यह टंकण त्रटि प्रतीत होती है।
तटस्थ समीक्षा के लिए आभार।
आचार्य राय जी से अक्षरशः सहमत हूँ। समीक्षा नितांत तथ्यपरक तथा तटस्थ रूप में प्रस्तुत की गई है। ब्लाग पर प्रस्तुत की जा रही समीक्षाओं से हम सब को रचना की गहराई तक पहुँचने में मदद मिलती है तथा रचना के आयामों का भी पता लगता है। अब यह कालम बहुत ही रोचक और सरस लगने लगा है। इस उल्लेखनीय कार्य के लिए आप सभी धन्यवाद के पात्र हैं। कृपया निरंतरता बनाए रखें।
जवाब देंहटाएंnice critical analysis!!!
जवाब देंहटाएंregards and best wishes!
वाह ! साधु समीक्षा !! नीर-क्षीर विवेचन !!!
जवाब देंहटाएंसत्यम् शिवम् सुन्दरम् !!!!
यह निष्पक्ष समीक्षा केवल आप ही कर सकते हैं!
जवाब देंहटाएंआलोचना या समालोचना का अर्थ है देखना, समग्र रूप में परखना। किसी कृति की सम्यक व्याख्या या मूल्यांकन करना।
जवाब देंहटाएंइस दृष्टि से आपका यह मूल्यांकन कवि और पाठक के बीच की कड़ी है। रचना कर्म का प्रत्येक दृष्टिकोण से मूल्यांकन कर उसे पाठक के समक्ष प्रस्तुत कर आपने पाठक की रूचि का न सिर्फ़ परिष्कार किया है बल्कि उसकी साहित्यिक गतिविधि की समझ को भी विकसित और निर्धारित किया है।
एक निष्पक्ष और उच्च स्तरीय समीक्ष के लिए साधुवाद।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
जवाब देंहटाएं(समीक्षा) पर अरुण राय की कविता ‘गोबर’!
साहित्यकार-फणीश्वरनाथ रेणु
गोबर के गणेश बनने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। नाक-भौं सिकोड़ने वाले सावधान!
जवाब देंहटाएंआदरणीय राय जी,
जवाब देंहटाएंत्रुटि की ओर संकेत करने के लिए धन्यवाद।
Kavita ek ajeeb see tees chhod jati hai padhne wale ke man men .aur sameeksha....hamesha kee tarah bahut achhee.
जवाब देंहटाएं6/10
जवाब देंहटाएंसंतुलित और ठोस समीक्षा
अरुण राय की कविता "‘कील पर टंगी बाबू जी की कमीज" एक ऐसी कविता है जो किसी के दिल में भी हाहाकार मचा सकती है.
यह रचना दिल में अमिट प्रभाव छोडती है.
एक गहन समीक्षा . जहाँ कवि ने बहुत ही सरलता से एक साधारण विषय का असाधारण चित्रण किया है वहीँ समीक्षक ने सटीक विवेचना कर कविता को पढने के लिए आकृष्ट किया है .
जवाब देंहटाएंआदरणीय गुप्त जी जब यह कविता मन में आयी थी बहुत दुविधा में था कि गोबर पर कविता लिखू या ना लिखू.. लेकिन मन में बहुत बेचैनी थी.. और लिख ली... लिखने के बाद पोस्ट भी कर दी... कुछ वरिष्ठ ब्लागरों ने उत्साह बढाया तो कुछ ने आलोचना भी की... तब से अब तक मैं शासंकित था कि 'गोबर' वास्तव में कविता है भी या नहीं.. लेकिन आज आपकी समीक्षा से वह शंका तो जाती रही मन से.. आपकी समीक्षा से दो बातें हुई हैं मन से.. एक तो कि ग्रामीण पृष्ठभूमि से बिम्ब उठाने का विश्वाश बढ़ा है... और लगा है कि भले ही कुछ लोग आपकी कविता को नकार दें लेकिन कवि को अपनी कविता के प्रति सशंकित नहीं होना चाहिए... आपकी समीक्षा को पढने के बाद मैं खुद भी प्रेरित हुआ अपनी कविता को पुनः पढने को.. पुनः समझने को . .. और 'गोबर' को मनोज जी ने तो गोइठा(उपले) में बदल कर मूल्य संवर्धन (value addition) तो पहले ही कर दिया था.. आज आंच पर चढ़ कर ऐसा लग रहा है मानो माँ के चूल्हे में जल कर कुछ नया स्वादिष्ट पका रहा हो... ह्रदय से धन्यवाद एवं आभार !
जवाब देंहटाएंसमीक्षा अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंकविता बहुत ही अलग सी है...थोड़ा व्यथित करती मन को...बढ़िया समीक्षा से इसे समझने में आसानी हुई
जवाब देंहटाएंये होती है समीक्षक की दृष्टि…………कितनी गहनता और सरलता से समीक्षा कर दी………………कविता को नया अर्थ दे दिया और कवि का भी मनोबल बढा दिया…………………सटीक और निष्पक्ष समीक्षा।
जवाब देंहटाएं@ परशुराम राय जी
जवाब देंहटाएंसमीक्षा के साथ साथ कविता अच्छी लगी यह देख ख़ुशी हुई. कभी फुर्सत में कविता की त्रुटियों के बारे में बात करके मार्गदर्शन दीजियेगा...
@मनोज जी
जवाब देंहटाएंआंच पर आज गोबर को स्थान देकर ना केवल मेरे बिम्ब चयन का विश्वास बढाया बल्कि मेरी कविता को एक नई दिशा मिली है.. बहुत बहुत आभार.. इस मंच पर अपनी ही कविता को नई दृष्टि से देख रहा हूँ...
@शिखा जी
जवाब देंहटाएंकविता अच्छी लगी इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद... गोबर की टीस आपके ह्रदय तक पहुंची मेरी कविता सफल हुई..
@उस्ताद जी
जवाब देंहटाएंमेरी इस कविता के साथ साथ 'कील पर टंगी बाबूजी की कमीज' कविता प्रभावित की, पढ़ कर मन पुलकित हो उठा ... आगे भी मार्गदर्शन दीजियेगा
@मेरे भाव
जवाब देंहटाएंआपने कविता पढी.. आभार !
@रश्मि रविजा जी
जवाब देंहटाएंकविता अच्छी लगी.. बहुत बहुत आभार. कभी मेरे मूल ब्लॉग पर भी पधारें ! आपका इन्तजार है !
एक उच्चस्तरीय समीक्षा। रचना तो अच्छी है ही, समीक्षा भी उत्कृष्ट है। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंअरुण बाबू को आज दूसरी बार आँच पर चढ़ते देख दो बातें स्पष्ट हो गईं कि ये प्रतिभावान हैं और आँच से गुज़र कर इनकी प्रतिभा में और निखार आता जा रहा है. खूँटी पर टंगी कमीज़ से लेकर गोबर तक इन्होंने जिन मानवीय मूल्यों का परिचय और सम्बंधों के महत्व को रेखांकित किया है, वह इनकी सम्वेदनशीलता को स्थापित करता है.
जवाब देंहटाएंगोबर के सम्बंध में मूल कविता पर भी कहा है मैंने और आज उसमें एक बात और जोड़ना चाहता हूँ कि फिल्म दिल्ली 6 एक दार्शनिक फिल्म थी और उसका सबसे बड़ा दार्शनिक चरित्र था गोबर. वह व्यक्ति जिसे सारी दुनिया प्रारम्भ से अंत तक गोबर यानि बेकार समझती रही, किंतु वही था सबसे बुद्धिमान व्यक्ति. गोबर एक कविता के केंद्र में स्थित हो स्वयम् पर कविता लिखवा सकता है यह शायद अरुण जी के ही बस की बात है. यह कलम के ही नहीं पारखी दृष्टि के भी स्वामी हैं.
गुप्त जी ने मद्धम आँच पर इस तरह चढ़ाया है कि मूल कविता का सौंदर्य द्विगुणित हो गया है! दोनों का आभार!
@संवेदना के स्वर
जवाब देंहटाएंसलिल जी बहुत बहुत आभार . बचपन से सुनता रहा कि माथे में मेरे गोबर भरा हुआ है , यही गोबर थोड़ी ख्याति दिलाएगा नहीं पता था.. बाबूजी की कमीज जेहन में आपके है.. सुन के मैं आह्लादित हूँ..
@ सलिल जी
जवाब देंहटाएंगोदान के गोबर को भी याद कर लिए हैं हम आपका कमेंट पढ कर।
पुनश्चः
जवाब देंहटाएंमैं तो बहुत डरते डरते टिप्पणी करने आया था कि क्या लिखूँ... न क्षमता है, न साहस. अरूण जी की कविता और हरीश जी की समीक्षा /समालोचना. वर्त्तमान संदर्भ और परिप्रेक्ष्य में दिल्ली 6 का गोबर ही याद आया.
लगता है टिप्पणी लिखना सफल हुआ. डर था कहीं गुड़ गोबर न हो जाए!!
निष्पक्ष समीक्षा !
जवाब देंहटाएंसंतुलित और ठोस समीक्षा !
जवाब देंहटाएंतटस्थ समीक्षा के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंकाव्य की समीक्षा करना कोई आसान बात नहीं , इसके लिए भाव और दृष्टि दोनों की जरूरत होती है , आज की समीक्षा पढ़ कर आपका समीक्षा के प्रति तटस्थ और स्पस्ट नजरिया सामने आया बिम्ब प्रधान कविता होते हुए भी आपने सुंदर तरीके से इसकी समीक्षा को प्रस्तुत किया है . शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंआज गहनता से इस समीक्षा को पढ़ा और समीक्षा द्वारा रचना के उतार-चडाव् को समझा..शायद मेरे ख़याल से इस से बहतर समीक्षा हो ही नहीं सकती.
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रयास.
SAMEEKSHA BAHUT SANTULIT RAHEE.....
जवाब देंहटाएंJANHA TAK TIPPANEEYO KA SAWAL HAI SALIL KEE LIKHEE HAR TIPPANEE YE ZAHIR KARTEE HAI KI VO POST KO KITNA LEKHAK KEE SOCH SE JUD KAR PADTE AUR SAMJHTE HAI............
जवाब देंहटाएंISE SAMVEDAN KSHAMATA KO NAMAN..........
कविता बहुत कुछ कह गयी. अरुण जी की कविताये स्तरीय होती हैं. समाज में और अपने इर्द गिर्द घटी कोई भी बात उनकी पारखी निगाहों से नहीं बच पाती. मैं तो उनकी पहले से ही प्रशंसक रही हूँ फिर मनोज जी की आंच में पक कर और भी कुंदन सी निखरी है कविता इतने जतन से उसका विश्लेषण जो किया गया है.मनोज जी अरुण जी दोनों का आभार
जवाब देंहटाएंयह समीक्षा केवल कविता के नहीं,समीक्षक के बारे में भी बहुत कुछ बयां करती है।
जवाब देंहटाएंअरूण जी की रचनाएँ उत्कृष्ट होती है और उनका वर्ण्य विषय आमतौर पर अतिसामान्य होते हुए भी विशेष होती हैं.
जवाब देंहटाएं@ अरुण जी,
जवाब देंहटाएंआपकी विनम्रता प्रशंसनीय है। आप अपनी कविताओं की समीक्षा को जितने सरल भाव से लेते हैं वही आपकी रचनाओं के परिष्कार का मूलमंत्र है। बिम्ब चाहे ग्रामीण परिवेश से हों अथवा शहरी, बिम्ब ही हैं। ग्रामीण परिवेश से उठाए गए बिम्ब तो सनातन हैं, उनमें मूल्यों की गरिमा भी है और संस्कारों की सोंधी महक भी विद्यमान है। अतः ग्रामीण बिम्ब अधिक प्रभाव छोड़ने में समर्थ हैं। समीक्षा के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण के लिए आपको धन्यवाद।
समीक्षा के प्रति तटस्थ भाव से मूल्यांकन तथा उत्साहवर्धन के लिए अपने सभी पाठकों को आभार।
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