बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

देसिल बयना – 52 :: चोर के अर्जन सब कोई खाए, चोर अकेला फांसी जाए !

देसिल बयना – 52

चोर के अर्जन सब कोई खाए, चोर अकेला फांसी जाए !

कवि कोकिल विद्यापति के लेखिनी की बानगी, "देसिल बयना सब जन मिट्ठा !"
दोस्तों हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतीम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप AIbEiAIAAAAhCOGGwPuf3efHRhC_k-XzgODa1moYsN388brgg9uQATABK_5TSqNcP8pRR08w_0oJ-am4Ew4सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज  ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रहे इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं

करण समस्तीपुरी

ओह... ! का कहें.... ? आज जो दिरिस देखे कि.... ! वेदना में हमरो मन भी एकदम शास्त्रीया गया है। सच्चे कहे थे युधिष्ठिरमहाराज। "मृतो स्यात पुरुषः !" मतलब कि दरिद्र पुरुष को मरा हुआ ही समझिये। दरिद्रा देवी जो न करा दे। "रहिमन वो नर मरचुके........ !"

दूर शहर बंगलौर में आज बोंगाई लाल का बेटा मिसरिया भेंटा गया। हट्ठा-कट्ठा जवान। यही मार्बल-गिरेनाईट का काम करता है। बोंगाई लाल गाँव में ही परचून के दूकान से गुजर बसर करते थे। उनका किस्सा भी पुश्तैनिये है। उनके बाबूजी जी गहुमन लाल उज़माना में नामी कारीगर थे। तांबा-पित्तर के ऐसा जेवर-जेवरात गढ़ते थे कि बनरसिया सोनार भी शरमा जाए। मगर उ रेवा-खंड में उके कारीगिरी का कौन कदरदान ? साल में एकाध बार ड्योढी दरबार से लगन-परोजन में काम भी मिल जाए वो बस एक पसेरी अनाज में हफ्ता भर।

बेचारे गहुमन लाल अजिया के गाँव-जवार में फेरी लगाने लगे। तब जा कर घर में दोनों सांझ चूल्हा पर खपरी चढ़ने लगा। उसके बाद तो गहुमन लाल फेरी करे दूर-दूर तक जाने लगे। सुनते हैं कि आरा-छपरा से लेकर अंग राज तक ठेका देते थे। अब तो घर में भी रौनक आने लगी थी। धीरे-धीरे चाननपुर वाली के साड़ी से चिप्पी भी गायब होने लगा था। पूरे दर्ज़निया चेहरा पर हरियरी बहाल हो गया था।

उन दिनों गहुमन लाल महीना में पंद्रह दिन फेरी कर के आते और पंद्रह दिन घरे पर रोहू का मूरा और खस्सी का रान तोड़ते थे। सबको अचरज होने लगा कि भई ! फेरी में ई कौन जिन्न बरसता है कि जहां भूजा पर आफत था वहाँ जल-परोर तलाता है।  दस मुँह दस बात। कोई-कोई तो कहे कि जरूर ई गहुमा कौनो गड़बड़ काम करता है।

हमरे बाबा तो छोटका कक्का पर शख्त पाबंदी लगा दिए थे, "खबरदार ! गहुमा से चूना-तम्बाकू भी बंद करो। वैसे दिन बहुरने से गाँव में गहुमन लाल के हितैषी भी बढ़ गए थे। झक्खन बाबू के दरबार में का होगा....  ? गहुमने लाल के द्वार पर भोर में केतली भर चाह छानाता था। दोपहर में तास के मंडली और सांझ में बम भैरोनाथ। कौनो घड़ी आप उसे अकेला देख नहीं सकते हैं।

एक दिन तो बटेसर झा उस से पूछिये दिए थे, "गेहुमन ! कैसा फेरी करते हो ? हमें भी कुछ बताओ न... ?" गेहुमन लाल तो लम्बा-लम्बा फुफकार छोड़ने लगे।

लेकिन गाँव की सरलता.... झाजी उलटे समझाए लगे, "देखो गेहुमन भाई ! गरमाओ मत। कुछ नाजायज मत करियो। वरना ई भरा पूरा परिवार..... !"

मगर गोस्साया गेहुमन तो झाजी को भी झिरक दिया, "धुर्र मरदे ! जाइए अपनी यजमानी पुजाइये। इहाँ शास्त्र बघारने का कौनो जरूरत नहीं है।" बेचारे बटेसर झा बसिया जिलेबी जैसे मुँह लटकाए पुरुब बगल का रास्ता पकड़ लिए।

उ कहते हैं न, "साधु अवज्ञा कर फल ऐसा.... !" ब्रह्म कोप फूटते देर नहीं लगा।  "हुर्र-हुर्र.......... टोयं-टोयं-टोयं....हुर्र.... हुर्र....हुर्रायं....... !" अरे ई पहर रात गए ई कौन मोटर हरहराय रहा है.... ? और ई मोटर का हौरन इतना विचित्र काहे है भाई ? छोटका कक्का कोठरी का किवाड़ खोलने के लिए हाथे बढाए थे कि बाबा उन्हें पीछे खीच लिए। फिर फुसफुसा के बोले थे, "मार बेहुद्दा.... ! ऐसे कहीं किवाड़ खोलता है। हौरन सुने नहीं टोयं-टोयं...? लगता है पुलिस का छापामारी है। पता नहीं कौन अपराध कर के गाँव में घुसाबैठा है ? कहीं गेहुमा तो नहीं........ ?"

बाबा खुदे पछियारिया खिड़की का एगो पल्ला खोल कर देखे थे। हम भी झांके थे खिड़की से। बाप रे बाप ! पुलिस तो पलटन जैसे पूरे टोला को घेर लिया था। फिर ठायं-ठायं.... ! हमको तो सो जोर से लघुशंका लगा कि पूछिये मत। बाबा समझाए कि ई हवाई फायरिंग है मगर लघुशंका के लिए भी दरवाजा नहीं खोलने दिए। आधा घंटा तक पुलिसिया बूट ठक-ठक बजता रहा। फिर हुर्र-हुर्र कर के सारा मोटर फुर्र हो गया। धीरे-धीरे एकाध लोग कर के घर-घर से बाहर निकलने लगे। गेहुमन के घर से पुक्की उठ रहा था, "बाबू हो.... दद्दा हो.... !" चाननपुर वाली इहाँ भी काली माई और बजरंगबली को अराधना नहीं भूली थी, "ऊपर वाले इन्साफ करेंगे.... जौन हमरे मरदको फंसाया है। हमरे बाल-बच्चे के मुँह का कौर छीन लिया करमजलों ने...... !"

पुलिस गेहुमन लाल को हथकड़ी लगा के ले गयी थी। गाँव में पहली बार ऐसा अनर्थ हुआ था। ई से पहिले तो चौकीदार को देख के ही लोग घर में सुटुक जाते थे। सब खुसुर-फुसुर कर रहे थे। भोरे-भोर चाह छांकने वाली मण्डली के भी आधे से जादे सदस्य कह रहे थे, "हमको तो पूरा शक था। गेहुमा पक्का कौनो गड़बड़ कर रहा है।" समझू सिंघ भी कह रहे थे, "ससुर को कितना बार समझाये। मगर बात बूझे तब न... ! उका तो 'नाशे काल विनाशे वुद्धि' हो गया था। लेकिन उको पुलिस ले काहे गयी थी ई किसी को पता नहीं।

मुखिया जी और नमरू ठाकुर थाना गये थे। गेहुमन लाल के द्वार पर तो बूझिये राते से मजमा लगा था। सब फटफटिया के आवाज़ का इंतिजार कर रहे थे। दोपहर गये उ दुन्नु जने थाने से लौटे। सब धरफरा के बढे थे, गेहुमा का अपराध जानने। चाननपुर वाली आधा मुँह ढंके खड़ी थी। आस लगाई आँखें मुखिया जी पर अटकी थी और कान यह सुनने की प्रतीच्छा कर रहे थे कि पुलिस गेहुमन लालको गलती से पकड़ कर ले गयी थी। उ आ रहे हैं।

मगर ई का...? मुखियाजी ने तो बज्जरपात कर दिया, "ई ससुर गेहुमा... ! पूरे गाँव का नाम हंसा दिया। ससुर इहाँ-वहाँ नहीं..... चोरी भी किहिस तो 'हंसुआ इस्टेट' में। बहुत बड़ा ममला है। और सब जो चुराया सो चुराया.... गला से हंसुली खींचा, ऊ में उ जनानी का जान भी चला गया। ई सब का सौलिड गेंग था। सब धरा गया है।"

फिर तो गेहुमन लाल का द्वार-दरबाजा वही पुराने आषाढ़ के दोपहर जैसा निदाघ रहने लगा। कैय्येक साल तक मोकदमा चला। इधर कुछ साल में जो भी जमा पूंजी हुआ था उ भी वाजितपुर वाले कान्हू वकील को भेंट चढ़ गया।

उ दिन चाननपुर वाली काली माई का खोइंचा भर के और बजरंगबली को परसाद चढ़ा के कहचरी गयी थी। कान्हू वकील ने कहा था कि बहस पूरा हो गया है और अब गेहुमन लाल को रिहा होने से कौनो क़ानून नहीं रोक सकता है। वकील साहेब ने कोट में साबित कर दिया था कि गेहुमन लाल स्वभाव से अपराधी नहीं है। उ तो गरीबी से मजबूर होकर दर्जन भर का परिवार पालने के लिए, छोटी-मोटी चोरी कर लिया करता था। उससे हत्या भी अनजाने में हो गयी। चाननपुर वाली को देस के नियाय और उ से भी जादे कान्हू वकीलपर भरोसा था।

इधर गाँव में दुपहरे से फैसला का इंतिजार था। जौन कोई शहर दिश से आये, सब उसी से मोकदमा का हाल पूछने लगे। साँझ ढल गया मगर अभी तक कौनो सन्देश नहीं मिला था। कुछ लोग सोचे कि लगता है रिहाई हो गया.... थनेसर थान में पूजा पाठ कर रहे होंगे।

ऐन सांझ-बत्ती के बेला में फिर वही पुक्की गूंजा..... ! बुद्दर दास का रिक्शा सीधे गेहुमन लाल के दरबाजे पर रुका था। दू चार लोग मिल कर निढाल चाननपुर वाली को उतारे। बुद्दर बता रहा था कि हाकिम ने गेहुमन लाल को फांसी का सजा सुना दिया है। अब तो चाननपुर वाली के साथ-साथ अगल-बगल की जर जनानी भी ऐसे रुदन पसारने लगी जैसे कि गेहुमन लाल को फँसी हो ही गया हो।

मनसुक्खी बुआ रोते-सुबकते कही थी, "रे चाननपुर वाली ! अरे हाकिम से अंचरा पसार के पति के जान का भीख काहे नहीं मांग ली रे... ? आरे काहे नहीं कहिस कि उ जो कछु किहिस उ सब इ पलिवार के खातिर..... !" चाननपुर वाली भी अलापते हुए बोली, "सब कहा बुआ..... अं...अं...अं..... ! हम तो एतना तक कहे कि ई के फांसी के बाद वैसे भी सारा परिवार भूखे मरेगा.... सो पूरे परिवार को फांसी दे देओ.... ! आखिर वही के लिए तो सारा तिकरम करना पड़ा। लेकिन कोढ़िया जज सुखली के बापू को फांसी सुना दिया....आं.... आं.....आं.... आं.... !"

गेहुमन लाल के परिवार का माहौल तो दरदनाक था मगर उ का पिछलग्गू सब को जान में जान आ गया। अब फाइनल फैसला के बाद उ सब को जान में जान आ गया। बेचारा सब डर रहा था कि कहीं उ भी नहीं फंस जाए कि चोरी का माल खाया है......... ! अभी सब पाला बदल कर गेहुमे को कोस रहा था, "धत.... ! ऐसा करम नहीं करना चाहिए... ? का हुआ इस से... ? एक दिन घी-शक्कर और एक दिन भूजो पर आफत। ई से अच्छा तो मेहनत मजूरी से जीवन तो निवाह जाता.... !"

छोटका कक्का से सारा किस्सा सुन कर बाबा बोले, "देखा ! यही होता है। 'चोर का अर्जन (कमाई) सब कोई खाया। चोर अकेला फांसी जाय !!' परिवार या दोस्त जिसके लिए भी करे, अपराध तो गेहुमे किये था, सजा उसी को मिली। चोरी का माल तो सब चटकारा ले कर खाए, मगर अभी सजा कोई बांटा ? बहरिया तो खिल्लिये उड़ा रहा है और घरबैय्या अब जिनगी भर रोयेगा मगर उसके अपराध की सजा तो उसी को भुगतनी होगी।"

हमरा मन भी तीता हो गया था। फिर सोचे, सच्चे तो कहे बाबा। 'चोर का अर्जन सब कोई खाय ! चोर अकेला फांसी जाय !!'ब मिलकर उ के नाजायज आमदनी पर मौज किया लेकिन सजा मिली तो सिर्फ गेहुमन को। मतलब कि अपराध की सजा अपराधी को ही मिलती है भले उसके अपराध से फले-फूले कोई और.... !

आज वही गेहुमन लाल के पोता को देख कर ई परसंग याद आ गया। पता नहीं बेचारा गेहुमन लाल तमाम तिकरम से भी परिवार को पोसे नहीं होते तो मिसरिया कहाँ होता.... ! परिवार का वारिश इहाँ गिरेनाईट काटने के लिए पहुँच गया और बेचारे गेहुमन लाल.....च.... च.... ! सोलहो आने सच है, "चोर का अर्जन सब कोई खाय ! चोर अकेला फांसी जाय !!"

27 टिप्‍पणियां:

  1. हालाकि यह कहावत अपेक्षाकृत आसान है लेकिन इसे अच्छे घटनाक्रम में पिरोया गया है।

    सुन्दर,

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  2. भाषा की मिठास अभिव्यक्ति को भावपूर्ण बनाने में पूर्णतः सफल हुई है!
    -ज्ञान चंद मर्मज्ञ

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  3. बहुत अच्छी कहानी। अच्छा लगा देसिल बयना का यह अंक भी।

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  4. kahawat ki prishthbhoomi aur us se judi kahani ko sundarta se bataya gaya hai!
    regards,

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  5. aadarniya sir, aapki yah rachit ghatna vastuhtah is kakhavat ko puri tarah se charitarth karti hai .ha!aapka yah blog padhne se to kahavato aur muhavaro ka pura khajana
    mill jaata hai jo hamain bahit kuchh sikha jaata hai.
    dhanyvaad-----
    poonam

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  6. "चोर का अर्जन सब कोई खाय ! चोर अकेला फांसी जाय !!"

    sahi kaha !

    .

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  7. Ram Ram Karan Babu...
    Kahani to apne khube acha likha hai...thoda serious ho gaya es bar..

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  8. बहुत दिन से नेट से कटे हुए थे...
    आज जो पढ़ा तो मन हरिया गया...

    वैसे ई खिस्सा पढके सटाके में एकगो नाम जेहन में आया अभी - मधु कोड़ा !!!

    बहुत सही फकरा है...

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  9. रंजना जी के शब्द उधार ले रहा हूँ, सचमुच मन हरिया गया।

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  10. इस बार का देसिल बयना गंभीर, शिक्षाप्रद और सार्थक है।

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  11. उत्साहवर्धन के लिए सभी पाठकों का हृदय से आभारी हूँ ! एक बार फिर आप सबों को कोटि-कोटि नमस्कार और धन्यवाद !!

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  12. करन बाबू! सबसे पहिले छमा माँग लेते हैं, देरी के लिए. दू चार दिन से परेसान हैं सामाजिक दायित्व के फेरा में. अभियो ओहिं से आ रहे हैं. खैर हम जानते हैं कि आपको सफाई देने का कोनो जरूरत नहीं है. आप समझ जाइएगा.
    आपका ई देसिल बयना, सोरहो आने सच है. अऊर ई कोनो दिन भी पुराना नहीं पड‌ने वाला है. डाकू रत्नाकर एही पीढी का पहिला चोर (डकैत) था.. लेकिन सभे कोई त बाल्मीकि नहिंए बन जाता है. हमरे ऑफिस में भी एगो इस्टाफ पईसा गबन किया था. मगर जब तक धराया नहीं था, सभे लोग को रोज मालपूआ खिलाता था. जब धरा गया त पईसो लौटाना पड़ा अऊर नौकरी गया सो अलग. लोग बोलना सुरू किया कि हमहीं लोग जेतना दरमाहा पाता था, मगर एतना रहीसी से रहता था कि हमको डाऊट होता था. लेकिन डाऊट के बावजूद भी भाई लोग मालपूआ नहीं छोड़े.
    ई देसिल बयना कहियो पुराना नहीं होगा. हमरे तरफ से त आप दस में दस नम्बर ले लीजिये!

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  13. "चोर का अर्जन सब कोई खाय ! चोर अकेला फांसी जाय !! अजी आज कल के चोर बहुत होसियार हे, वो खुद बच जाते हे, वेकसुर को फ़ंसा देते हे....

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  14. बहुत सुन्दर कहानी! बढ़िया लगा!

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  15. आज इस लोकोक्ति को पढ़ कर बाल्मीकि का वृतांत याद आ गया. यही बात तो उनको समझाई गयी जो वो बाल्मीकि बने.

    सुंदर सृजन.

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  16. उस्ताद जी कहीं नज़र नहीं आ रहे। एक्जामिनी कहीं एक्जामिनर से बेटर तो नहीं निकला!

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  17. कहावत को सार्थक बनाने में बढ़िया वृत्तांत रचा है। बिलकुल सटीक। सही है आजकल समझदार चोर खुद माल हजम कर दूसरों को फंसा देते हैं, लेकिन यह कहावत के मूलार्थ से परे है। अतः यहाँ सम्बद्ध करना संगत नहीं है।

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  18. विलम्ब से आये पाठकों का भी सादर अभिनन्दन एवं आभार व्यक्त करता हूँ !!

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  19. अति सुन्दर. मेरा आभार स्वीकार करें.

    मेजर ध्यानचंद

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