सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

दुर्नामी लहरें

 

आजकल मन में भावनाऒं का सैलाव उठा है। जब बात झकझोड़ती है तो मन उद्वेलित हो जाता है। फिर भावनाओं का आवेग सारे बांध तोड़ उमड़ पड़ता है। जैसे सुनामी!

प्राकृतिक आपदाओं में सुनामी अब बड़े पैमाने पर जान-माल की तबाही का पर्याय बनने लगी है। छह साल पहले 2004 में देश के पूर्वी तट पर आए सुनामी में लाखों लोगों की जिंदगी तबाह हो गई थी। लाखों लोगों ने अपना सब कुछ गंवा दिया था।

१४ अक्तूबर को वर्ल्ड डिजास्टर रिडक्शन डे (World Disaster Reduction Day) मनाया जाता है। उस दिन तो हम देसिल बयना लेकर आएंगे।  इसलिए आज ही उस पर विशेष प्रस्तुति करने का मन बन गया। सुनामी के कहर के बाद एक कविता लिखी थी। आज वही प्रस्तुत है।

दुर्नामी लहरें

IMG_0130मनोज कुमार

हुई पुलिन1 पर मौन,                                  1. पुलिन :: जल के हट जाने से निकली जमीन

उदधि की प्रबल तरंगे

           सिर धुनकर।

हतप्रभ है जग,

अब वसुधा की

विकल वेदना सुन-सुनकर।

 

अण्डमान की वह रसवन्ती,

देह हो गई क्षत-विक्षत।

ले अंतिम उच्छ्वास मौन है,

जड़-चेतन मय जीव-जगत।

लहरों के

घातक करघे से,

मौत गई बरबादी बुनकर।

 

थमी तरंगों पर पतवारें,

शिथिल हुई कमज़ोर मुट्ठियां।

शिशुओं के मुख, माताओं के

आंसू की भर गई घुट्टियां।

विधना ने खारा जल सींचा

सबकी

पलकों पर

                चुन-चुनकर।

 

आज नियति जीवन की,

टूटे नक्षत्रों जैसा भटकाव।

डोल रही धरती ख़बरों से,

आज यहां कल वहां पड़ाव।

उठे हाथ,

फिर गिरे जानु पर

अपना ही सिर धुन-धुनकर।

 

आशा जीवन की रही नहीं,

न साधन है न कोई साध्य।

पीड़ाओं के बस पहाड़,

नित नई मौत मरने को बाध्य।

बुझी हुई आंखों में सपने

मरते जाते

                घुन-घुनकर।

(चित्र आभार गूगल सर्च)

43 टिप्‍पणियां:

  1. मर्मस्पर्शी रचना है ... प्राकृतिक आपदाओं से मुक्ति नहीं है ... इससे पता लगता है की जीव जगत के प्रभु इन्सान प्रकृति के सामने कितना बेबस है

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  2. बहुत संवेदनशील रचना ... मनुष्य ने प्रकृति के नियमों का इतना उलंघन कर दिया है की वो अपने आपको को संतुलित करने में लगी है ...

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  3. आशा जीवन की रही नहीं,

    न साधन है न कोई साध्य।

    पीड़ाओं के बस पहाड़,

    नित नई मौत मरने को बाध्य।

    बुझी हुई आंखों में सपने

    मरते जाते

    घुन-घुनकर।

    बहुत संवेदनशील रचना !!

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  4. बहुत ही सुन्दर, सरस और संवेदनशील कविता है। सुनामी की त्रासदी को आँखों के सामने फिर से चित्रित कर दिया इसने। चुन-चुन कर पिरोए गए शब्द और आद्योपांत प्रवाह कविता का सौन्दर्य है। अलग तरह के बिम्ब और शब्दों में भरे नए अर्थ इसे अप्रतिम आभा से सम्पन्न करते हैं। देखिए -

    'अण्डमान की वह रसवन्ती,

    देह हो गई क्षत-विक्षत।

    ले अंतिम उच्छ्वास मौन है,

    जड़-चेतन मय जीव-जगत।

    लहरों के

    घातक करघे से,

    मौत गई बरबादी बुनकर।'

    शुभकामनाएं।
    - हरीश

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  5. आज आपने अपनी रचना के माध्यम से फिर सुनामी के दृश्य को उजागर कर दिया है ....

    बहुत संवेदनशील रचना है ...

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  6. हम अंडमान में बैठकर इस विभिषका को समझ सकते हैं..शानदार पोस्ट.


    ____________________
    'शब्द-सृजन..." पर आज लोकनायक जे.पी.

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  7. बेहद मार्मिक चित्रण कर दिया सुनामी का जीवन्त चित्रण्।

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  8. सार्थक शब्दों का बेहतरीन उपयोग कर आपने जैसे सुनामी का दृश्य फिर से जीवंत कर दिया .और तस्वीरों ने उसे और मर्मस्पर्शी बना दिया है.
    संवेदनशील रचना.

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  9. इसे विडंबना ही कहेंगे कि वे लोग भी प्रकृति के शिकार हो जाते हैं जिनका जीवन प्रकृति के सबसे निकट है!

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  10. भाव, प्रवाह व प्रंजलता के दृष्टिकोण से अत्यंत उच्च कोटि की रचना है। मनोज जी को इस उत्कृष्ट कविता के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

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  11. "आशा जीवन की रही नहीं,

    न साधन है न कोई साध्य।

    पीड़ाओं के बस पहाड़,

    नित नई मौत मरने को बाध्य।

    बुझी हुई आंखों में सपने

    मरते जाते

    घुन-घुनकर। "... आपने सुनमी की याद ताजा कर दी और ज़ख्म भी... विश्व त्रासदी दिवस ऐसा है जिसकी शुभकाम्ना नही दी जा सकती..काम्ना करें कि विश्व के किसी हिस्से मे ऐसी त्रसदी दोबारा ना हो...

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  12. jo ghata tha sab aankho ke samne jeevant ho utha hai........
    Bahut hee samvedansheel rachana.........

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  13. बहुत ही भावपूर्ण और मार्मिक प्रस्तुती! सुन्दर और संवेदनशील रचना !

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  14. उफ़...... ! विभीषिका की भीषण पीड़ा और यह कोमल-कान्त शब्द..... लेकिन उस पहाड़ जैसी पीड़ा को भी लहर के साथ अभिव्यक्त करने में सक्षम ! वस्तुतः सामयिक रचनाये इतनी उच्चकोटि की बन जाए तो कवि को बरबस धन्यवाद देने का मन करता है ! अस्तु !!

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  15. बेहद संवेदनशील रचना, जिन्होने इस त्रासी को भुगता होगा उन पर क्या बीती होगी. धन्यवाद

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  16. आशा जीवन की रही नहीं,

    न साधन है न कोई साध्य।

    पीड़ाओं के बस पहाड़,

    नित नई मौत मरने को बाध्य।

    बुझी हुई आंखों में सपने

    मरते जाते

    घुन-घुनकर।
    --


    -------
    पीड़ा को भी शहनाई की भाति बजाया गया है!

    --
    बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना रची है आपने!

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  17. सुनामी का चित्रण प्रस्तुत करती उत्कृष्ट कविता के लिए बहुत बहुत आभार। - : VISIT MY BLOG :- मेरे ब्लोग पर पढ़िये इस बार........ जाने किस बात की सजा देती हो?..........गजल।

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  18. एक एक शब्द दिल को बेंइन्तहा दुख की सुनामी से मिलवाता हुआ. सशक्त शब्दों, एहसासों से सृजित रचना उत्कृशट बन पड़ी है. और जो चित्र लगाए हैं रचना को और भी प्रभावशाली बना रहे हैं.

    एक उच्चकोटि की रचना.

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  19. बहुत ही भावपूर्ण रचना . बधाई

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  20. मनोज बाबू,
    कम से कम तीन चार बार आपकी इस कविता का सस्वर पाठ करने के बाद जो उद्वेलन अनुभव किया शब्दों का, किंचित वही आघात रहा होगा उन सूनामी लहरों का...उन प्रचंड लहरों का वेग आपकी कविता में स्पष्ट चित्रित हो रहा है...

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  21. मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण अभिव्यक्ति

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  22. ये कविता तो ऐसी है कि जैसे आप तकली से सूत काढ रहे हों।
    और उस सूत से गढ दिया चित्र सुनामी के कहर का।

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  23. अपकी यह पोस्ट अच्छी लगी।
    हज़ामत पर टिप्पणी के लिए आभार!

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  24. आशा जीवन की रही नहीं,

    न साधन है न कोई साध्य।

    पीड़ाओं के बस पहाड़,

    नित नई मौत मरने को बाध्य।

    बुझी हुई आंखों में सपने

    मरते जाते

    घुन-घुनकर।.....

    बहुत ही संवेदनशील प्रस्तुति....इतना सुन्दर शब्द चित्र है की सुनामी की तबाही आँखों के सामने नाचने लगी...बहुत सुन्दर...बधाई...

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  25. dard ko vidhvans ko lay dekar aapne aapne samvedna ko chune kee kashamta ko aur badha diya hai ...behad umda rachna hai manoj jee

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  26. बेहद संवेदनशील प्रस्तुति ।

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  27. मर्मस्पर्शी रचना है जीव जगत के प्रभु इन्सान प्रकृति के सामने कितना बेबस है

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  28. बहुत ही सुन्दर, सरस और संवेदनशील कविता है। सुनामी की त्रासदी को आँखों के सामने फिर से चित्रित कर दिया इसने।

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  29. aadarniy sir,
    aaj aapki sunami par likhi gai kavita ne fir se us vibhats ghatna ki yaad dila di jo sabhi ke manas patal par apni amit chhap chhod gaya hai.bahut hi sanvedan shil v va aakhon ko nam kar gai aapki yah kavita.

    आशा जीवन की रही नहीं,

    न साधन है न कोई साध्य।

    पीड़ाओं के बस पहाड़,

    नित नई मौत मरने को बाध्य।

    बुझी हुई आंखों में सपने

    मरते जाते

    घुन-घुनकर।
    basab dil me aapki kavita ghar gai gai hai.
    poonam

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  30. बहुत भाव पूर्ण रचना। मन को छू गई आपकी यह रचना।

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  31. दर्द और मानव कि विवश्ता का सटीक चित्रण किया है। पहली बार इस शब्द से परिचय उसी दिन हुआ था और उसकी विकरालता का अहसास भी।

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  32. "आशा जीवन की रही नहीं,
    न साधन है न कोई साध्य।
    पीड़ाओं के बस पहाड़,
    नित नई मौत मरने को बाध्य।
    बुझी हुई आंखों में सपने
    मरते जाते घुन-घुनकर।"

    बेहद मार्मिक और ह्र्दय विदारक एवं संवेदनशील प्रस्तुति. उस घनीभूत पीड़ा संसार के चित्रों को देख उसके आगे कुछ कह पाने की गुंजाईश ही नहीं रह जाती.
    सादर
    डोरोथी.

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  33. संवेदनशील मर्मस्पर्शी मार्मिक प्रस्तुति।

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