गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

समीक्षा आँच-41- तन सावित्री मन नचिकेता

समीक्षा

आँच-41पर डॉ. जे.पी. तिवारी की कविता

तन सावित्री मन नचिकेता

हरीश प्रकाश गुप्त

डॉ. जे.पी. तिवारी की कविता तन सावित्री मन नचिकेता
हमें जाना है सुदूर.... इस महीतल के भीतर.. अतल-वितल गहराइयों तक. हमें जाना है भीतर अपने मन के दसों द्वार भेद कर अंतिम गवाक्ष तक. अन्नमय कोश से .... आनंदमय कोश तक. छू लेना है ऊंचाइयों के उस उच्चतम शिखर को, जिसके बारे में कहा जाता है - वहीँ निवास है, आवास है इस सृष्टि के नियामक पोषक और संचालक का. पूछना है - कुछ 'प्रश्न' उनसे, मन को 'नचिकेता' बना कर. पाना है - 'वरदान' उनसे तन को 'सावित्री' बनाकर. और करना है- 'शास्त्रार्थ' उनसे, "गार्गी' और 'भारती' बन कर.

डॉ. जे. पी. तिवारी की कविता तन सावित्री मन नचिकेता एक ऐसी कविता है जो अपने अर्थ, भाव और प्रतीक विधान से सामान्य कविताओं से अपने को अलग करती है। प्रस्तुत कविता विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक चिंतन की परिणति है जो भौतिकता का परित्याग करके अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने को उद्यत है। यह कोरा बौद्धिक ज्ञान नहीं है, वरन, अन्तर के ज्ञान - मैं कौन हूँ ? क्या हूँ ? – पथ पर आगे बढ़ते हुए आत्मा और ब्रह्म के एकाकार होने की पराकाष्ठा के स्तर तक है। यह ज्ञान स्वयं के भीतर है। स्वयं का यह ज्ञान मनोमय के अंधकार से घिरा हुआ है और इस अज्ञानता का कोई आदि अंत नहीं है। इसे कवि महीतलके भीतर अतल वितल गहराइयों तक’ कह व्यक्त भी करता है। इस स्वयं की खोज के पथ पर आगे बढ़ने में हमारी कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ बाधक है, क्योंकि ये विषयासक्त हैं और आत्मज्ञान के लिए विषयों के बंधन तोड़े बिना कोई उपाय नहीं है।

ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही बाधक दस द्वार हैं जो ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति की दिशा में भौतिकता के अवरोध स्वरूप उपस्थित होते हैं। इन्हें ही कवि अंतिम गवाक्ष तक भेदने की बात कहता है। सत, रज और तम – तीनों गुणों के समन्वय से व्यक्त यह पंचकोशात्मक शरीर है। ये सभी अनात्म हैं। त्वचा, रुधिर, अस्थि, मल, मांस और मज्जा से निर्मित यह अन्नमयकोश है। पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच प्राणों से युक्त विषयासक्त मनोमयकोश है। इसका सारथी मन है और मन से बड़ी बेड़ी कुछ भी नहीं है, इसका जन्म से पूर्व तथा जन्म के पश्चात कोई अस्तित्व नहीं है और यह अन्नमयकोश से तृप्त होकर कर्मों में प्रवृत्त है। यह विकारी है। पाँच कर्मेन्द्रियों तथा अंतर्भूत मन, अहं से संचालित बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियों का समूह विज्ञानमयकोश है तथा प्रिय गुणों से युक्त और तमोगुण से प्रकट वृत्ति आनन्दमयकोश है। ये आत्मा से अभिन्न नहीं हो सकते हैं। अतः कवि इन्हें पराभूत कर अपने ज्ञान का विकास उस उत्कर्ष तक करना चाहता है जहाँ आत्मा – स्वयं - और परमात्मा, अर्थात् जो सृष्टि का रचयिता, नियंता और पालनकर्ता है और बुद्धि का नियंत्रण करने वाले विवेक का प्रदाता है, का एकाकार है।

नचिकेता भौतिक कामनाओं के प्रति ‘कुछ नहीं चाहिए’ का भाव लेकर विवेकहीन निर्णयों को स्वीकार न करते हुए अपने विवेक से सत्य की तलाश करने तथा उसके लिए मृत्यु तक का वरण करने वाली प्रबुद्ध चेतना का प्रतीक है। वहीं, सावित्री तप, सुचिता, समर्पण, निष्ठा और त्याग के बल पर मृत्यु तक को परास्त कर अपनी आकांक्षा पूर्ति का प्रतीक है। गार्गी और भारती विद्वत मनीषा का प्रतीक हैं, जो स्वाभाविक विनम्रता से युक्त होते हुए विद्वत्ता के सनातन एकाधिकार वाले अहं को चुनौती प्रस्तुत करती हैं और क्रमशः ऋषि याज्ञवल्क्य और आचार्य शंकर के समक्ष अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने में सफल होती हैं। पुनःश्च, अपनी अभिमान रहित कर्त्तव्यपरायणता का परिचय देते हुए सामाजिक उत्थान जैसे बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सहगामी भी हो जाती हैं।

कवि की यह रचना आध्यात्मिक चिंतन से उद्दीप्त है तथा जीवन में दिशा प्रदान करने के लिए एवं प्रेरणा प्रदान करने में सहायक हो सकती है। कवि ने कविता की अंतिम पंक्तियों में अनेक रूढ़ से लगने वाले पौराणिक प्रतीकों का प्रयोग किया है जो कविता की भाव गंभीरता को देखते हुए जोखिम भरे हो सकते हैं, क्योंकि इन प्रतीकों में विशिष्ट अर्थ अति व्यापक रूप में विद्यमान है और वे कविता की आभा को ढक देते हैं। यहाँ प्रतीकों की बाढ़ सी भी है जो शेष कविता के शब्द विधान से पृथक है। कविता का शिल्प साधारण है तथा भाव गांभीर्य अपने वैभव के साथ विद्यमान है।

26 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी समीक्षा |बधाई बहुत सी नई बातें भी जानने को मिलीं |
    आशा

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  2. बहुत सुन्दर समीक्षा की है बधाई। कविता भी बहुत अच्छी लगी। धन्यवाद मनोज जी।

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  3. एक अच्छा दर्शन प्रस्तुत करती कविता और उसकी स्वस्थ समीक्षा...

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  4. ये कविता बहुत ही गहन और उन्नत भाव भरे हुये है और इसकी उतनी ही उन्नत समीक्षा की गयी है……………आभार्।

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  5. गह्न विवेचना। समीक्षा से भे ऊपर!

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  6. समीक्षा की कड़ी में
    डॉ. जे.पी. तिवारी की कविता
    तन सावित्री मन नचिकेता की सुन्दर समीक्षा आपके द्वारा की गई है!

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  7. एक दर्शन प्रधान कविता की बेहतरीन समीक्षा.

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  8. प्रतीकों में कविता के दबे भाव को स्पष्ट करती समीक्षा अत्यंत संतुलित और कसी हुई है।

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  9. अच्छी कविता की बेहतरीन समीक्षा की है
    आपने। यह समीक्षा जहाए पौराणिक और आध्यात्मिक प्रतीकों को स्पष्ट करती है वहीं कविता से भी आगे बढ़कर गरिमा बनाए हुए है।

    आभार।

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  10. इस कविता में जीवन दर्शन छुपा है। समीक्षक के रूप में हरीश जी आपने पूरा न्याय किया है इस कविता के साथ।
    आभार!

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  11. बहुत सधी हुई समीक्षा.. कविता को पढने के लिए प्रेरित कर रही है...

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  12. उच्चतम ऊर्जा के साथ जब एकाकार हों,तब मन प्रश्नाकुल नहीं रहना चाहिए। जिसे सभी प्रश्नों के उत्तर यहीं मिल गए हों,उसी को भग्वत्प्राप्ति हो पाती है। आत्मज्ञानी प्रश्नों के उत्तर देता है,प्रश्न नहीं करता।

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  13. हरीश जी बधाई के पात्र हैं,एक अच्छी प्रस्तुति.

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  14. सुन्दर समीक्षा की है बधाई। कविता भी बहुत अच्छी लगी।

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  15. बहुत गूढ़ भावो से सम्पृक्त दुरूह कविता की बहुत ही सार्थक समीक्षा की है आपने ! प्रतीत होता है रचनाकार ने स्वांत:सुखाय इस कविता की रचना की है जिसे रच कर वह स्वयं मगन हैं ! पुराणों का अल्पज्ञान रखने वाले और शुद्ध हिन्दी से कतराने वाले वर्तमान युग के कई पाठक कदाचित इसको पूरी तरह से नहीं समझ पायेंगे ! आपने अपनी समीक्षा के द्वारा उनकी बहुत मदद की है ! सुन्दर समीक्षा के लिये आभार !

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  16. अपने सभी पाठकों को प्रोत्साहन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। आपकी प्रतिक्रियाएं मुझे प्रेरणा प्रदान करती हैं और आगे बढ़ने के लिए ऊर्जा देती रहती है। सभी को पुनः आभार।

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  17. जीवन की गहराईयों में डूब कर जीवन का सार समझाती जितनी सुंदर कविता है, वहीं उसकी उतनी ही गहन विवेचना ने उसमें अर्थों के नए आयामों को जोड़कर और उसके उजास को फ़ैलाकर उनकी रोशनी में उन्हें बार बार समझने की कोशिश करने के लिए विवश भी कर दिया है. नचिकेता सी प्रश्नाकुलता लिए मन और सावित्री सा तन यानी आत्मविश्वास और दृढ़ता जिसने यमराज को भी उसके हठ के सामने झुकने के लिए विवश कर दिया, अगर हम इन्हीं विचारणीय बिदुओं को सम्मुख रखकर जिएं तो कदाचित हमारा जीवन भी किसी क्षण सफ़ल और सार्थक हो उठे. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  18. मनोज जी, एवं गुप्ता जी
    सादर प्रणाम!!
    समीक्षक की कुशलता और साथकता पर बहुत कुछ कहा जा चुका है, इस लिए धन्यवाद देने की ध्रिश्तता नहीं करूंगा. केवल इतना ही कहूँगा कि समीक्षक मेरे लिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सदृश महान है. इन्होने मुझे चंद्रधर शर्मा गुलेरी जैसा बना दिया है. 'उसने कहा था' कहानी की समीक्षा यदि शुक्ल जी की लेखनी ने नहीं किया होता तो कितने लोग उस कहानी के गाम्भीर्य, उस निष्कलुष पवित्र प्रेम की पराकाष्ठा को समझ पाते? मुझे याद है ८-१० कमेंट्स ही आये थे मूल कविता पर. लेकिन समीक्षा पर ३० से भी ज्यादा. यह कविता की मूल भावना के साथ न्याय है. सच तो यह है की मेरे मन में जो बांते उठी उसे उसे सरल शेली में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया. प्रतीक तो खुद ब खुद आते चले गए शायद इसका कारण यह था की मैं खुद नहीं चाहता था की कविता लम्बी हो. प्रतीक बहुत कुछ थोड़े में कह देते हैं. समीक्षक को प्रणाम उसके गूढ़ ज्ञान के लिए, चिन्तां के मूल विन्दु को आदि अन्त तक मजबूती से पकडे रहने के लिए. बहुत- बहुत आभार.........'

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