“आपकी तारीफ़?” “जी मैं पत्रकार! आप इन दिनों चर्चित और उभरते हुए कथाकार हैं, आपका इंटरव्यू लेने आया था।” “जी बैठिए।” “थैन्क्स!” “कहिए क्या लेंगे, मेरे वक़्त, और विचार के अलावा। वैसे मैं ये बता दूं कि आप जो लेना चाहेंगे मैं दे न पाऊंगा, और जो मैं दे पाऊंगा आप लेना नहीं चाहेंगे।” “जी मैं समझा नहीं...” “आपका न समझना ही इस साक्षात्कार की भूमिका है! आगे बढिए।” “आप तो आज कल चर्चाओं के हीरो हैं, कहानियों के बादशाह!” “दो मिनट ठहरिए। पानी तो है घर में। यह तो एक बैचलर का मकान है। नींबू-पानी का गिलास रखकर हम बातें करेंगे, तो हमारी नीरस बातें भी सरस लगेंगी.... ” “आपके कमरे में हर चीज़ें कुछ न कुछ कहती प्रतीत हो रही हैं। सरसरी तौर पर देखने से पूरे कमरे में अस्त-व्यस्तता का-सा महौल नज़र आता है, टेबुल, कुर्सियाँ, पुस्तकें, कपड़े ... सब अस्त-व्यस्त।” “अगर मुझमें सुरुचि-सम्पन्नता, क्रियाशीलता के साथ मौन और उर्ध्वगामी चिंतन, ‘हाई थिंकिंग’, की झलक होती, तो क्या आप यहां होते?” “तो क्या मैं ये मान कर चलूं कि आपकी कहानियां आपके व्यक्तित्व का संप्रेषण हैं?” “देखिये भाई साहब! कहानियों की चर्चा से मुझे अलग रखिये। मौसम की बातें कीजिये, कॉमन वेल्थ खेल-कूद की चर्चा कीजिये। ....और नहीं तो क्रिकेट या फ़िल्म जगत ही सही…!” “... ... लेकिन मैं तो कहानियों की चर्चा करने के ख़्याल से आया हूँ।” “... हम्म! शानदार ख़्याल है साब! लेकिन देर से आये। कुछ दिनों पहले तक मैं कहानियां रचता था, आज गढता भर हूँ।” “मैं समझा नहीं...” “मतलब, आप जैसे आलोचकों और अख़बारनबीसों ने हम जैसे कहानीकारों को डीप फ़्रीज़ करने का व्रत-सा ले लिया है। कोई भी चर्चा उठा लीजिये, दो-चार पंक्तियाँ तो मिल ही जायेंगी कि अब कहानी कोई पढ़ने की चीज रह गई है? किस्सागोई बीते दिनों की बात हो गई है। कहानियां तो फ़लां लिखते थे ….!” “लेकिन आपकी कहानियों की चर्चा तो हर जगह हो रही है।” “हमें भी तो सर्वाइव करना है ...! हम भी अब बार्टर सिस्टम में विश्वास रखते हैं।” “मतलब?” “तुम मुझे आलू दो, मैं दाल दूंगा।” “इससे तो न सिर्फ़ आपकी कहानियों का बल्कि साहित्यजगत का स्तर नीचे गिर जाएगा!” “देखो भाई यह है यथार्थवादी दृष्टिकोण! और इसके चलते साहित्यजगत को और साहित्यकारों को जो बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ हासिल हुई है, वह तो अंधे तक जान सकते हैं।... तुम्हें नहीं पता क्या? देखते नहीं कितने सम्मान मिल रहे हैं, बांटे जा रहे हैं।” “हां-हां, पता है! पर इस यथार्थवादी दृष्टि से तो आप और आपकी कहानियाँ कोई बहुत ऊँचे स्तर को तो ..... ” “मेरी कहानियों को अब गोली मारो। लो, निंबू-पानी पियो ..... !” “अगर आप बुरा न मानें तो एक बात पूछूं?” “यह तो पूछने के बाद कह सकता हूँ। लेकिन आप पूछिये जरूर, क्योंकि बग़ैर पूछे आप रह सकते नहीं ...” “आपकी कहानियों मे “वो” विषय बहुत होता है, आप समझ रहे हैं न मैं क्या कह रहा हूं?” “खूब समझ रहा हूं, “उस” विषय को...” “आप इस विषय पर क्यों लिखने लगे? कहीं प्रसिद्धि का कारण...” “देखो भाई! यह सही है या गलत, कहा नहीं जा सकता। पर अगर रचनाओं से रचनाकार और पाठकों के बीच समान संवेदना उभरती है तो उस रचना को महत्त्व का माना जाना चाहिये।” “मेरा मतलब कुछ और था। कई बार ऐसा भी होता है कि लोग-बाग तुरत ख्याति प्राप्त करने के लिए..... ” “असली मतलब यह है कि यह सत्य नहीं है। मेरे भाई, मैं तुम्हें ग़लत साबित करने के लिये कोई तर्क या वक्तव्य नहीं दूंगा। तुम्हें ग़लत साबित करके तो मेरा घाटा ही होना है। तुम मेरे बारे में लिखोगे तो मेरे शुभचिंतकों में वृद्धि हो या न हो मेरे पाठकों में वृद्धि तो अवश्य ही होगी।” “लेकिन .....” “... लेकिन, मेरे दोस्त, मेरी कहानियों में कहानी खोजो ना, अपनी महबूबाओं की तस्वीरें, उसका फ़िगर और उसका पता-ठिकाना क्यों तलाशते रहते हो...!” |
अच्छी लघुकथा !
जवाब देंहटाएंसच बात है आम खाने से मतलब होना चाहिए :)
कहानियां रचता था ...अब गढ़ता हूँ ....
जवाब देंहटाएंबाजार की मांग पर लिखने लगे लेखकों और साहित्यकारों की पीड़ा दिखा रही है यह लघुकथा ...!
आज की स्थिति पर व्यंगात्मक प्रहार।
जवाब देंहटाएंएक रचनाकार की व्यथाकथा पर सटीक व्यंग्य... किंतु मनोज जी यह लघुकथा की श्रेणी में नहीं होनी चाहिए.. जो भी है, एक तमाचा है आज के स्यूडोकथाकार बिरादरी के चेहरे पर!!
जवाब देंहटाएंशानदार
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया...लघुकथा अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंये हुई न बात! क्या व्यंग्य है! बहुत अच्छी लघुकथा।
जवाब देंहटाएंacchi laghukatha hai...
जवाब देंहटाएंkalamkaaron ki sthiti ko ubharta sateek vyangya!
regards,
बहुत ही अच्छी व्यंगात्मक लघुकथा । शुरू से अंत तक इस कथा का एक-एक वाक्य वर्तमान परिस्थिति पर सटीक वार कर रहा है । आपकी इस लघुकथा का ये वाक्य मुझे बहुत पसंद आया -
जवाब देंहटाएं"वैसे मैं ये बता दूं कि आप जो लेना चाहेंगे मैं दे न पाऊंगा, और जो मैं दे पाऊंगा आप लेना नहीं चाहेंगे।"
बिल्कुल सही बात है । समय की मांग एवं परिस्थितियां लेखकों को उनकी लेखन कला में परिवर्तन लाने के लिए मजबूर कर देती है ।
लघुकथा मे छुपा व्यंग्य आज के स्तर का दिग्दर्शन कराता है।
जवाब देंहटाएंहम भी अब बार्टर सिस्टम में विश्वास रखते हैं।” “मतलब?” “तुम मुझे आलू दो, मैं दाल दूंगा।”
जवाब देंहटाएंलघु कथा में माध्यम से बहुत कुछ कह दिया आज के बारे में
वक़्त का तकाजा है. हम भी आज कल कहानी गढ़ ही रहे हैं. लघु कथा के भाव, शिल्प, संवाद सब में एक नवीनता अनुभूत हो रही है.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद.
kahani acchi hai ...
जवाब देंहटाएंसही बात है "तुम मुझे आलू दो मैं तुम्हें दल दूँगा " बढ़िया कहावत कही है .
जवाब देंहटाएंमैं तुझे पन्त कहूँ त मुझे निराला " पुरानी हो गई अब :)
शानदार व्यंग में दर्द भी झलक रहा है.
अच्छा व्यंग्य है आज के सन्दर्भ में.
जवाब देंहटाएं--
मनोज जी
जवाब देंहटाएंप्रणाम !
लघु कथा का कथानक अच्छा है मगर इसे थोड़ी और कसावट आप और प्रदान करते तो और सुन्दरता प्राप्त हो जाती , फिर भी अच्छी है ,
साधुवाद
सादर !
ळघु कथा का प्रस्तुतिकरण अच्छा लगा। भाषा शैली
जवाब देंहटाएंएवं शिल्प विधान प्रशंसनीय है।
ek raqchnakaar ki vytha ko laghu katha men bakhoobi ubhaara hai...bahut achchhi kahaani
जवाब देंहटाएं4/10
जवाब देंहटाएंऔसत
शिल्पगत ढांचा कमजोर...कसाव नहीं है
एक बेहद अच्छे विषय पर ढीला लेखन
संवाद का अनावश्यक विस्तार अखरता है
इसी वजह से मारक क्षमता खो गयी है
अद्भुद लघुकथा... लगा मानो हमारे भीतर का भी कवि/कथाकार/लेखक दम तोड्ने लगा है.. थोडी देर तक तो स्तब्ध रहा...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लघुकथा !!!
जवाब देंहटाएंKahani ka plot blog ke liye naya hai. pathakon aur patrakaron ki lekhakon se apeksha karti aur lekhakon ki pathakon aur patrakaron se apeksha ki or sanket karti kahani bahut hi sugathit hai.
जवाब देंहटाएंबड़ी अच्छी और सोचने के लिए मजबूर करती लघुकथा - सुन्दर .. आज की वर्तमान मार्केट स्ट्रेटजी के हिसाब से लेखन और इनाम मोल भाव से .. ... मुद्दा जबरदस्त है ..और कहानी भी एकले से चली है..बहुत खूब
जवाब देंहटाएंमनोज जी माफ करें। यह तो कुछ भी नहीं बन पाई, न कथा,न लघुकथा,न व्यंग्य। ऐसा लगा जैसे आपने अपनी किसी रचना का कोई हिस्सा निकालकर यहां पोस्ट कर दिया हो।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर व्यंग्य है, बाबा यह कहानी चोरी तो नही करतेचार लाईन इन की चार लाईन उन की.ओर इस प्रकार कहानी गढ ली,मस्त जी धन्यवाद
जवाब देंहटाएंकहानियों ने न जाने कितनों की ज़िंदगी बदल दी है। एक अच्छी कहानी पर्याप्त होती है जीवन भर की सीख के लिए। मगर,जीवन के बदलते मायनों के बीच आखिरकार कहानी को भी बदलना पड़ा है।
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों के बाद कोई कथा या लघुकथा पढ़ी. अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएं... बहुत खूब ... छा गये ... बेहतरीन ... लाजवाब !!!
जवाब देंहटाएंआपकी लघु कथा पढ़ कर आज उन लेखकों की मजबूरी ध्यान में आती है जो एक बहुत उत्तम लेखक हैं लेकिन बोलीवुड में अपनी शोहरत के लिए कैसे अपनी कला को ताक पर रख कर डिमांड के हिसाब से गाने लिखते हैं...और यही नहीं भक्ति काल में पृथ्वी राज रासो और रानी पद्मावती जैसी रचनाये भी इसी अपेक्षा का ही परिणाम हैं.
जवाब देंहटाएं"कहानी कैसे बनी" का असली एपिसोड तो ये वाला है!
जवाब देंहटाएंसंवाद शैली में लिखी गई कथा प्रभावी बन पड़ी है। कथा का व्यंग्य तीक्ष्ण है। पत्रकार द्वारा साक्षात्कार के माध्यम से पाठकों की अपेक्षाओं का संकेत है, वहीं बदलते परिवेश में लेखक की अपनी पीड़ा भी मुखर हुई है। यह कथा कथानक, भाव, भाषा, संप्रेषण और शिल्प आदि विषयों में लघुकथा के मानकों को समाहित किए हुए है। कुछ संभावनाएं हो सकती हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसे लघुकथा की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंपुनश्च :
जवाब देंहटाएंहरीश जी की बात को पूरी तरह खारिज करते हुए कहना चाहूँगा कि यह रचना किसी भी एंगल से लघुकथा के मानकों को समाहित किये हुए नहीं है.
खरे शब्दों में कहूँ तो पात्रों का पूरा संवाद ही बनावटी लगता है. मेरी बात की पुष्टि कोई भी दिग्गज साहित्यकार कर देगा.
मनोज जी, आप पूरा लेखन लाइवराइटर से एक टेबल में करते हैं। मैं सुझाव दूंगा कि वह टेबल बनाने के इतर करें।
जवाब देंहटाएंमेरा अन्दाज है कि सर्च इंजन टेबल में लिखे शब्दों को कम ही पकड़ते हैं। देर सबेर जब आपका लेखन पर्याप्त हो जायेगा ब्लॉग पर तब यह शायद कमी महसूस हो।
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंये हुयी न बात
अब आ गयी ये रचना फार्मेट के अन्दर.
साथ ही धार भी.
एक सुझाव भी है :
अपनी हर रचना का स्वयं ही सजग पाठक भी बनें तब ऐसी खामियां नहीं होंगी.
चोट करती धारदार कथा..
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा !
जवाब देंहटाएंआज की स्थिति पर सटीक व्यंग ... सब जगह यही होता है ...
जवाब देंहटाएंएक हाथ ले दूजे दे ...