मेरे छाता की यात्रा कथाऔरसौ जोड़ी घूरती आंखें!!भाग- 4 :: नज़रिया--- मनोज कुमार |
पिछले अंकों के लिंक – भाग-१ (बरसात का एक दिन) , भाग-२ (बदनसीब) , भाग-३ (नकारा)
बादल उमड़-घुमड़ कर मुझे मुंह चिढ़ा रहे थे। वर्षा की लपकती-झपकती बूँदें मेरा रास्ता रोके खड़ी थी। बिजलियों की चमक और कड़क मुझे ललकार रहे थे – “है हिम्मत तो निकल बाहर!”
अनवरत, रात भर की बारिश के कारण. रोज की सुबह एक घंटे की सैर का क्रम टूटने के कगार पर था। पर अंदर के स्वाभिमान और कील पर टंगे मेरे छाते ने मेरा हौसला बढ़ाया। अपना छाता ले कर निकल पड़ा गिरीश पार्क में टहलने।
पानी की बूंदों से खुद को बचते-बचाते, जल के जमाव को लांघते-फांदते पहुंच ही गया गंतव्य पर। पार्क में टहलते हुए कुछ ही दूरी तय किया था कि सामने रामू नजर आ गया। मेहता साहब के घर में काम करता है। मुंह लटकाए बैठा था। चेहरे पर गहन उदासी और वेदना के भाव थे। पहले तो उसे नजर अंदाज कर आगे बढ़ा पर फिर उसके चेहरे से उभरी हुई दर्द की रेखाओं ने मुझे वापस उसकी ओर खींच लिया। पूछा, “क्या हुआ? इस तरह से उदास, गुम-सुम क्यूं दिख रहे हो ?”
“कुछ नहीं!” सदा प्रफुल्लित रहने वाले रामू के कातर स्वर थे।
उसके इस उत्तर से आशवस्त न होता हुआ मैंने पुनः पूछा,- “कुछ तो बात है। आज इतने दुख में डूबे दिख रहे हो।”
“हम छोटे लोगों की किस्मत में हंसी-खुशी कहां, साहब!”
“कुछ बताओ तो।”
****
और जो उसने बताया उसका सार ये था कि कल शाम में अर्जेन्टिना का जर्मनी के साथ मैच था। रामू को बचपन से ही फुटबाल का शौक था और मराडोना उसका भगवान। कल अर्जेन्टिना का मैच चल रहा था और ड्राइंग रूम के कोने में बैठा वह भी घर के अन्य सदस्यों के साथ टी.वी. पर दिखाये जा रहे मैच का मजा ले रहा था। तभी छोटकी बबुनी, मेहता साहब की बेटी, चीखी, “अरे रमुआ! तू वहां टी.वी. देख रहा है और यहां जॉंटी भूख से तड़प रहा है।”
“आधा घंटा पहले ही तो उसे खिलाया छोटकी बबुनी।” रामू ने वहीं से, मैच देखते हुए जवाब दिया।
“... और इसे दूध कौन देगा?....... तेरा बाप .......? हराम.........।” रामू अपने पिता के प्रति कहे गए अपशब्द को पचाता किचन में गया और प्लेट में दूध डालकर जॉंटी के आगे रख दिया। कूं-कूं करता वह डेलमेशियन प्रजाति का जीव चपर-चपर पीने लगा। इधर छोटकी बबुनी चिल्लाई, “यहां नहीं इसे उधर बारामदे में ले जाकर दो। ... नालायक ....! .... किसी काम का नहीं है ....!!”
रामू उस कुत्ते को बारामदे में ले गया और दूध की प्लेट उसके सामने रखने लगा तो जॉंटी की हरकतों से प्लेट को झटाका लगा और रामू के हाथ से प्लेट गिर कर टूट गई। दूध इधर-उधर बिखर गया।
यह देख कर छोटकी बबुनी चिल्लाई, “भैय्या! ... देखो रमुआ को। गुस्से से ... तमतमा रहा है। जॉंटी को दूध पिलाने बोली थी, तो करमजले ने पटक कर प्लेट ही तोड़ डाली।”
छोटे मेहता वहां पहुंचे और आब देखा न ताव, फटा-फट दो थप्पड़ उसके गालों पर जड़ते हुए बोले, “साले गुस्सा दिखाता है।”
और न जाने क्या-क्या, कौन-कौन-सी उपाधि उससे मिलती रही! शरीर पर लगी चोट से कहीं अधिक और गहरी पीड़ा अपमान की थी। रातभर दुख और अवसाद में डूबा वह सो नहीं पाया। बार-बार उसे ख्याल आता श्वान से इतना प्रेम और इंसान से........ । वर्षो की वफादारी का ये सिला मिला। मेरा क्या दोष था?
सुबह-सुबह बड़े मेहता का हुक्म हुआ जॉंटी को घुमा लाओ। रोज तो वे खुद ही ले जाते थे उसे, पर आज बारिश थम नहीं रही थी, तो रामू को यह दायित्व दे दिया गया था और वह उसे निभा रहा था।
****
यह सब सुन कर ऐसे बड़े लोगों के प्रति वितृष्णा हुई। मैंने अपना छाता मोड़ा और रामू से कहा, “रामू ........... ले बदला। लगा एक लात इस जॉंटिया को और सोच, ....कि तू उन्हें मार रहा है....!”
रामू कई पल किंकर्तव्यविमूढ़ मेरी ओर देखता रहा......!
मैनें फिर कहा, “सोच क्या रहा है ? जड़ दे साले को। बढ़ आगे....!!!”
रामू के चेहरे पर चमक आई। फिर वह आगे बढ़ा....... उसके पैर हवा में लहराए..... और जब वह पैर चला रहा था तो ऐसा लगा कि अर्जेन्टिना के स्टार स्ट्राइकर मैसी का चेहरा उसके सामने तैर रहा हो।
वह आगे बढा इस हौसले से कि जाए और जौंटी के बच्चे को जोर से एक किक लगाए। पर जब वह पैर आगे बढा रहा था तभी उस निरीह की आंखों में करुणा और कातरता के भाव देख उसके मन में ख़्याल आया, ’इस बेचारे का क्या दोष?’ … और वह रुक गया।
वह आगे बढकर जॉंटी को उठा कलेजे से लगा लिया। जॉंटी की प्यार भरी कूं-कूं से पास खड़े लोग हमारी तरफ मुडे़। फिर से शुरु हो चुकी वर्षा की फुहारों से बचने के लिए जब मैं छाता तान रहा था तो रामू का सीना गर्व से फूला हुआ था! ज्यों-ज्यों मुड़े हुए छाते का आकार बढ़ता और फैलता गया मुझे लगा इस छाते में रामू का कई गुना बढ़ चुका कद समा सकता है। मैंने रामू को अपने छाते में समा लिया।
रामू के चेहरे पर परम संतोष के भाव थे। जिस आनंद में हम, यानी मैं और रामू थे, उससे वहां मौजूद सौ जोड़ी घूरती आंखें हमारे उस आनंद से अनभिज्ञ थी। आज रामू मेरे छाते के पंखों पर सवार बादलों से भी ऊपर उड़ा जा रहा था ठीक उस पंछी की तरह जो वर्षा से बचने के लिए बादलों के ऊपर उड़ने लगता है, अन्य पंछी तो वर्षा से बचने के लिए ठिकाना ढूंढने में लगे होते हैं। अपने-अपने नज़रिए का फ़र्क है।
बेहतरीन प्रस्तुति...इंसानियत की भी अपनी अपनी परिभाषा हो गई है आजकल..कोई इंसान को जानवर समझता है तो कोई जानवर को भी इंसान.
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिख रहे हैं आप .. बधाई !!
जवाब देंहटाएंमनोज जी, बेहतरीन मानवीय सम्वेदनाओं को समेटे यह पोस्ट... एक पल को जब आपने छाते से उस पशु को मारने की बात कही तो मुझे लगा कथानक “विष के दाँत” की तरफ जा रहा है, किंतु अगले ही पल आपकी छाप दिख गई. आपकी छतरी का प्रसार और विस्तार ऐसे ही फैलता रहे, यही हमारी कामना है!
जवाब देंहटाएंvisham paristhiti mein bhi Ramu ki shudh chetana ka adig hona aur aapke chate ke andar aloukik sukh ki anubhuti sarahniya hai.
जवाब देंहटाएंछाते की पूरी कथा अद्भुत रही। बधाई
जवाब देंहटाएंमंगलवार 06 जुलाई को आपकी रचना ..तेरी अनुकम्पा से ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com/
इस पोस्ट को बाद में पढ़ती हूँ..
सच में रामू का कद बहुत बड़ा हो गया ...मेहता साहब लोगों जैसों का तो कोई कद ही नहीं है....
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति...
bahut acchee prastuti.......
जवाब देंहटाएंगजब का कथानक है..एक तरफ आदमी के साथ कुत्ता के जईसा ब्यवहार हो रहा है अऊर दोसरा तरफ ऊ आदमी कुत्ता से आदमी जईसा ब्यवहार कर रहा है... पढा लिखा मेहता जी से ऊ रामुए न अच्छा है...ई बड़ा आदमी लोग सच्चो ताड़ खजूर जईसन होता है न छाए दे सकता है न फल... आप त सचमुच देखा दिए कि एक्के परमात्मा बसता है सब का अंदर...
जवाब देंहटाएंमाफ़ी चाहता हूँ.... आजकल टाइम ही नहीं मिल पा रहा है.... पोस्ट पढ़ पाने का.... और आपको कॉल नहीं कर पाया इसकी भी माफ़ी चाहता हूँ.... अबी आपकी पूरी सिरीज़ पढ़ता हूँ....
जवाब देंहटाएंछाते के माध्यम से
जवाब देंहटाएंसभी कुछ तो उजागर कर दिया आपने!
रामू के अन्दर क्रोध के आवेश में बदले के भाव पनपना सामान्य मनुष्य का स्वभाव है लेकिन उस बदले की भावना को कार्यरूप में परिणत करने से पूर्व मानवीय चेतना का जागृत होना रीमू के चरित्र को श्रेष्ठ बनाता है उन तथाकथित बड़े लोगों से। मानवीय संवेदना की पराकाष्ठा।
जवाब देंहटाएंउत्तम प्रस्तुति।
बधाई स्वीकार करें।
वाह...प्रेम दया कुंठा क्रोध की अनूठी दास्तान बयां की है आपने...अनुपम रचना...बधाई...
जवाब देंहटाएंनीरज
सच है ... समझने वाली बात है ... जो बात मालिक में नहीं है वो नौकर में है ...
जवाब देंहटाएंपेश करने का अंदाज़ कुछ अलग सा है। पर है बहुत अच्छा। रचना का संदेश दिल छूने वाला है।
जवाब देंहटाएंरचना का संदेश बड़ा ही दिल छूने वाला है।
जवाब देंहटाएंआपके पेश करने का अंदाज़ अलग-सा है।
मानवीय सम्वेदनाओं को समेटे बहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंसंवेदना के स्तर पर भावुक कर देने वाली कथा.... शिल्प के मामले में पिछली कड़ी के जोरदार स्ट्रोक के बाद हलके हाथों से खेला गया शोट लगा.... ! धन्यवाद !!!
जवाब देंहटाएंसंवेदना के स्तर पर भावुक कर देने वाली कथा... शिल्प में पिछली कड़ी के जोरदार स्ट्रोक के बाद यह हलके हाथों से खेला गया शोट प्रतीत होता है !! इतनी सुन्दर विचार श्रृंखला शुरू करने के लिए धन्यवाद !!!
जवाब देंहटाएंकल पता नहीं क्या हो गया था कि कई टिप्पणियां प्रकाशित ही नहीं हि पाइं। उन्हें पुनः प्रकाशित कर दे रहा हूं।
जवाब देंहटाएंआप सब सुधि जनों का आभार .. इस छाता यात्रा में मेरा संगी होने के लिए।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंछाते के माध्यम से
सभी कुछ तो उजागर कर दिया आपने!
महफूज़ अली ने की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंमाफ़ी चाहता हूँ.... आजकल टाइम ही नहीं मिल पा रहा है.... पोस्ट पढ़ पाने का.... और आपको कॉल नहीं कर पाया इसकी भी माफ़ी चाहता हूँ.... अबी आपकी पूरी सिरीज़ पढ़ता हूँ....
निर्मला कपिला की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंछाते की पूरी कथा अद्भुत रही। बधाई
Parashuram Rai की टिप्पणी:
जवाब देंहटाएंvisham paristhiti mein bhi Ramu ki shudh chetana ka adig hona aur aapke chate ke andar aloukik sukh ki anubhuti sarahniya hai.
संगीता पुरी की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिख रहे हैं आप .. बधाई !!
हर्षिता की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति है।
सम्वेदना के स्वर की टिप्पणी:
जवाब देंहटाएंमनोज जी, बेहतरीन मानवीय सम्वेदनाओं को समेटे यह पोस्ट... एक पल को जब आपने छाते से उस पशु को मारने की बात कही तो मुझे लगा कथानक “विष के दाँत” की तरफ जा रहा है, किंतु अगले ही पल आपकी छाप दिख गई. आपकी छतरी का प्रसार और विस्तार ऐसे ही फैलता रहे, यही हमारी कामना है!
जुगल किशोर की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंरचना का संदेश बड़ा ही दिल छूने वाला है।
आपके पेश करने का अंदाज़ अलग-सा है।
प्रेम सरोवर ने की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंमानवीय सम्वेदनाओं को समेटे बहुत सुंदर रचना।
संगीता स्वरुप ( गीत ) की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंमंगलवार 06 जुलाई को आपकी रचना ..तेरी अनुकम्पा से ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार
संगीता स्वरुप ( गीत ) की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंमंगलवार 06 जुलाई को आपकी रचना ..तेरी अनुकम्पा से ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार
संगीता स्वरुप ( गीत ) ने की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंमंगलवार 06 जुलाई को आपकी रचना ..तेरी अनुकम्पा से ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार
http://charchamanch.blogspot.com/
इस पोस्ट को बाद में पढ़ती हूँ..
संगीता स्वरुप ( गीत ) की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंसच में रामू का कद बहुत बड़ा हो गया ...मेहता साहब लोगों जैसों का तो कोई कद ही नहीं है....
बहुत अच्छी प्रस्तुति...
Apanatva ने की पोस्ट टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंbahut acchee prastuti.......
चला बिहारी ब्लॉगर बनने की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंगजब का कथानक है..एक तरफ आदमी के साथ कुत्ता के जईसा ब्यवहार हो रहा है अऊर दोसरा तरफ ऊ आदमी कुत्ता से आदमी जईसा ब्यवहार कर रहा है... पढा लिखा मेहता जी से ऊ रामुए न अच्छा है...ई बड़ा आदमी लोग सच्चो ताड़ खजूर जईसन होता है न छाए दे सकता है न फल... आप त सचमुच देखा दिए कि एक्के परमात्मा बसता है सब का अंदर...
हरीश प्रकाश गुप्त की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंरामू के अन्दर क्रोध के आवेश में बदले के भाव पनपना सामान्य मनुष्य का स्वभाव है लेकिन उस बदले की भावना को कार्यरूप में परिणत करने से पूर्व मानवीय चेतना का जागृत होना रीमू के चरित्र को श्रेष्ठ बनाता है उन तथाकथित बड़े लोगों से। मानवीय संवेदना की पराकाष्ठा।
उत्तम प्रस्तुति।
बधाई स्वीकार करें।
Indranil Bhattacharjee ........."सैल" की टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंसच है ... समझने वाली बात है ... जो बात मालिक में नहीं है वो नौकर में है ...
कुत्ते व नौकर घर में रहे हैं। नौकर से ऐसा व्यवहार कैसे मनुष्य करते हैं नहीं जानती। परन्तु कुत्ते व नौकर एक दूसरे को सदा ही प्रेम करते थे।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा हुआ कि नौकर ने कुत्ते को मारा नहीं। मेहता परिवार जैसा भी रहा हो कुत्ता तो भला ही था।
घुघूती बासूती