मूलवासी(लघुकथा) -- सत्येन्द्र झा |
"आपका नाम ?" "संतोष।" "पिता का नाम ?" "जी आत्मबल" "घर का पता ?" "घर नहीं है, साहब ! किराए के मकान में रहता हूँ। पता उसी दिन बदल जाता है, जिस दिन घर का किराया नहीं दे पाता हूँ।" "कोई बात नहीं। स्थाई पता बताइये।" "कुछ स्थाई नहीं है सर ! इंच भर भी जमीं नहीं है, जिसे अपनी कह सकें।" "आप तो अलबत्त हैं महाराज ! आपके जैसा तो आज तक कोई नहीं मिला मुझे.... !" "मिलेंगे क्यूँ नहीं... लाखों मिलेंगे मेरे जैसे.... ! कभी-कभार नीचे भी तो देखा कीजिये.... । अजी... ! हमारे बिना आप कहाँ रह सकेंगे... ?आखिर भारत का मूलवासी तो मैं ही हूँ।" मूल कथा मैथिली पुस्तक 'अहीं के कहै छी' में संकलित 'मूलवासी' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित। |
यह विचार कितना गहरा प्रहार कर गया देश की स्थिति पर। हम कितने नीचे पहुँच गये हैं कि अपने निवासियों को एक स्थायी पता भी नहीं दे सकते हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी पोस्ट...
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी पोस्ट...
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी पोस्ट...
जवाब देंहटाएंदिल को छूं लेने वाली लघुकथा ...
जवाब देंहटाएंसत्य वचन.
जवाब देंहटाएंविचारणीय प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर लघुकथा.
जवाब देंहटाएंवाह बहुत गहरी बात कह दी.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
यह लघुकथा तो बहुत ही धारदार रही!
जवाब देंहटाएंयह रचना व्यंग्य नहीं, व्यंग्य की पीड़ा है। पीड़ा मन में ज़ल्दी धंसती है।
जवाब देंहटाएंविचारणीय प्रस्तुति है।
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक!
जवाब देंहटाएंअबाक् कर देने वाला कहानी है...पूरा देस में पसरा हुआ है, एक सच्चाई...
जवाब देंहटाएंsach kaha..lakhon milenge.
जवाब देंहटाएंऐसे लोगों की संख्या बहुत है,जिनके स्थायी पते नही हैं। यूं समझिये कि बेघर हो चुके हैं ।
जवाब देंहटाएंकहने को घर हो जिनका
जवाब देंहटाएंऐसे लोग हैं चंद
कहां जाएं
कहां रहें
हर दरवाज़ा है बंद!
वाह ! व्यंग्य भी है ... और पीड़ा भी ... कमाल !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लघुकथा। बधाई।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसत्य कहा है.... ! भारत में तो दो ही तरह के निवासी हैं. एक मूल-वासी और दोसरा शीर्ष-वासी. आधुनिक भाषा में, एक बी.पी.एल और एक आई.पी.एल. ! बी.पी.एल वो हैं, जिसके पास खाने को अनाज नहीं, रहने को घर नहीं, सोने को बिस्तर नहीं.... और आई.पी.एल बोले तो खरबों का बारा-न्यारा.... बोले तो जो हवाई जहाज ही ख़रीद लेते हैं !!! मार्मिक !!! सत्येन्द्र जी को धन्यवाद !!!!
जवाब देंहटाएंkitni sundarta se ukera hai bhawon ko..kamaal hai!
जवाब देंहटाएंसर्वसमावेशी विकास की ज़रूरत को रेखांकित करती लघुकथा।
जवाब देंहटाएंख़ासकर महानगरों की एक कड़वी सच्चाई। प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े बढते रहते हैं,स्थिति कमोबेश जस की तस रहती है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लघुकथा...
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जवाब देंहटाएंek sachi tasveer... moolwasi hona to apna hai baaki sab aatmbal aur santosh par tiki hai karodon jindagiyan hamare desh mein!
जवाब देंहटाएंLaghu katha ke madhyam se sachhi kintu bhaywah katu tasveer...
ग़ज़ब का व्यंग है ... अच्छी कहना .... ८०% लोगों की कहानी ...
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील लघुकथा।
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनिय है।