मौन बने कर लें फेराआचार्य परशुराम राय |
भेद गड़ीं नजरें प्रियतम की। झूम उठा मेरा मन ऑंगन पाकर सुरभि किसी चेतन की।
उमड़ा जलधि असीम हृदय का। ज्ञात न थी इसको निज सीमा उमड़ा छोड़ साथ निज तन का।
सागर के इस निर्मम तट से। झूल रही कोरी अभिलाषा सूने मन-तरु की डाली से।
उच्छ्वासों का वाष्प सघन। घोर विरह घर की चपला ने चमकाए निज कुपित नयन।
करते ऑंसू संधि प्रबल। देख आज समगुण की मैत्री काँप रहा मेरा तन निर्बल।
पकड़ धरा की धूसर डाली। झूल रही है दृग लतिकाएँ स्वप्न पत्र से सज मतवाली।
मिलन कहाँ मेरा-तेरा। विरहानल के साक्ष्य भवन मौन बने कर लें फेरा। (चित्र साभार गूगल सर्च)'''''''' |
मंगलवार, 20 जुलाई 2010
मौन बने कर लें फेरा
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इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआचार्यवर,
जवाब देंहटाएंनमस्कार ! 'प्रसाद' याद आ गए. "कहाँ विमोहिनी ले जावेगी... रिझा मुझे झंकृत पायल से..... !" भाषा पर छायावाद का संस्कार दृष्टिगोचर होता है. कल-कल छल-छल बहती हुई शब्दावली.... वही सुकोमल विम्ब.... प्राकृतिक उपादान.... ! साधु-साधु !! अब थोड़ा दुस्साहस करूँ.... ? मैं इसे आंच पर चढ़ाना चाहता हूँ... लेकिन थोड़ा वक़्त ले कर... !!!! आदेश दिया जाए !!!!!!
बढ़िया मुक्तक हैं!
जवाब देंहटाएं@karan samastipuri : samastipuri ji,
जवाब देंहटाएंnamaskar! aap se anurodh hai ki isse aanch par charhayen.isse mujhe khushi hogi....
आचार्य जी, इस पर कुछ भी कहना दुःसाहस होगा. अब तो प्रतीक्षा रहेगी, विस्मृत हो चुके छायावाद की आँच पर करण जी की लेखनी से पगी, महुए की सुगंध से माती हुई, एक नूतन रचना का...
जवाब देंहटाएंइस उपवन में पदार्पण करना एक तीर्थ का अनुभव प्रदान करता है.
आभार मनोज जी का भी!
वाह! आज तो यहां कल-कल छल-छल सरिता प्रवाहित हो रही है।
जवाब देंहटाएंहर छन्द, प्रचण्ड।
जवाब देंहटाएंयह कविता आपके विशिष्ट कवि-व्यक्तित्व का गहरा अहसास कराती है।
जवाब देंहटाएंछंदों और बिम्बो से सजी छायावाद की छाया से लदी ये मनमोहक कविता सराबोर कर गयी.
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लगा हर छन्द, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंदेख यवनिका जग नयनों की
जवाब देंहटाएंपकड़ धरा की धूसर डाली।
झूल रही है दृग लतिकाएँ
स्वप्न पत्र से सज मतवाली।
एक एक छंद भावमयी...मन प्रसन्न हो गया ...
शास्त्र महल के कोलाहल में मिलन कहाँ मेरा-तेरा। विरहानल के साक्ष्य भवन मौन बने कर लें
जवाब देंहटाएंटूट गयी टकराकर आशा सागर के इस निर्मम तट से। झूल रही कोरी अभिलाषा सूने मन-तरु की डाली से।
bahut hi sundar rachna hai aapki
बहुत सुन्दर. सुन्दर भाव.
जवाब देंहटाएंराय जी साहित्यिक प्रतिभा के धनी है, जिसका प्रमाण यह कविता है.
जवाब देंहटाएंबहुत खुब.
जवाब देंहटाएंभाषा पर छायावाद का संस्कार दृष्टिगोचर होता है| सुकोमल विम्ब..!
जवाब देंहटाएंशास्त्र महल के कोलाहल में
जवाब देंहटाएंमिलन कहाँ मेरा-तेरा।
विरहानल के साक्ष्य भवन
मौन बने कर लें फेरा।
bahut badhiyaa
सघन अनुभूति के उपरांत इतनी गहन भावना आती है।
जवाब देंहटाएंविरह जलधि की बेला में
ये करते ऑंसू संधि प्रबल।
देख आज समगुण की मैत्री
काँप रहा मेरा तन निर्बल।
अद्भुत...मन प्रसन्न हो गया पढ़कर.
जवाब देंहटाएंवाह!!!!!!!!!!! बहुत सुन्दर भाव.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंअति उत्तम प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपकी रचना शानदार है
जवाब देंहटाएंभाषा तो और भी जबरदस्त
बहुत अच्छा लगा.
यह हुई ना बात!
जवाब देंहटाएंप्रतीकों का सहज एवं सफल प्रयोग किया गया है।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
आदरणीय मनोज जी
जवाब देंहटाएंपरिकल्पना ब्लॉगोत्सव 2010 में सम्मानित होने पर हार्दिक बधाइयां स्वीकार करें!
भविष्य के लिए मंगलकामनाएं !!
प्रस्तुत काव्य रचना बहुत सुंदर है , इसके लिए भी बधाई !
शस्वरं पर भी आपका हार्दिक स्वागत है , अवश्य आइएगा , आपकी प्रतीक्षा में पलक - पांवड़े बिछे रहेंगे …
शुभाकांक्षी
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं