शनिवार, 17 जुलाई 2010

फ़ुरसत में …. एक गज़ल

शनिवार को हम फ़ुरसत में होते हैं। और इस ब्लॉग के लिए हमारे स्तंभ फ़ुरसत में के लिए कुछ लिखने की ज़िम्मेदारी भी होती है। तो आज सुबह-सुबह क्या लिखूं की उधेरबुन में डायरी के पन्ने पलटने लगा। सहसा अपनी लिखी एक ग़ज़ल पर नज़र गई। वैसे तो मुझे ग़ज़लें पढना, सुनना बहुत पसंद है, पर लिखना, मेरे बस की बात नहीं रही कभी। तो ये ग़ज़ल कैसे बन गई? … बस यूं ही!! अज इसे पढा तो लगा क्या ऊलजलूल और फ़ालतू चीज़ें मैं लिख लिया करता था। पर कभी-कभी इस तरह की बेमानी हरकतें भी बड़ा सुकून दे जाती हैं।

यह ग़ज़ल काफ़ी पहले लिखी गई थी। मुझे ग़ज़ल के नियम क़ानूनों का न तब ज्ञान था, न अब है। उन दिनों दर्द में डूबे रहने का मन करता था। और मुकेश के दर्द भरे नग़मों को दिन-रात सुनता रहता था।

तब मेरा पसंदीदा था --

दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई … तू ने काहे को दुनिया बनाई।

और उससे भी ज़्यादा, ये …

ज़िन्दा हूं इस तरह कि हमें ज़िन्दगी नहीं

जलता हुआ दिया हूं मगर रोशनी नहीं

होठों के पास आए हंसी क्या मज़ाल है

दिल का मुआमला है कोई दिल्लगी नहीं।

जब उसी मूड में रहता था, तो यह ग़ज़ल तैयार हो गई। इस लिए बड़े संकोच और क्षमा याचना के साथ इसे पेश कर रहा हूं। ऐसा कुछ, न तब था, न अब है। बस उन दिनों दिमाग में एक फ़ितूर था कि ग़ज़ल में बस दर्द टाइप की चीज़ ही होती है, एक आग का दरिया है डूब कर जाना है या मिली ख़ाक में मोहब्बत जला दिल का आशियाना, या रहा गर्दिशों में हरदम मेरे इस्क़ का सितारा। आदि..आदि।

ऐसा नहीं है कि आज मुकेश के गीत मैं नहीं सुनता। सुनता हूं। पर दुख होता है आज के एफ़एम … आदि कल्चर के ज़माने में कि उस दौर की तरह के गीत रेडिओ पर अब नहीं बजते। अब गीतों में बोल मानवीय संवेदना, लोकाचार का नहीं, गुल्लक तोड़कर टनटनाने का प्रतीक ज्यादा है। जिगर से बीड़ी जला लिया जाता है और इश्क कमीना हॊ गया है और हमारे ज़माने में मेरा यार दूल्हा बनता था और हमारे दिल के फूल खिलते थे आज पूछते हैं यार-दोस्त कि तुझे दूल्हा किसने बनाया भूतनी के।

कान-फाड़ संगीत, नृत्य के नाम पर मस्ती करती युवा पीढी को सौंपी जा रही है। ऐसा मसाला युक्त, जहां संवेदनशीलता और सुकून से ज़्यादा प्रायोजकों, विज्ञापनदाताओं को लाभ पहुंचे इस लिहाज़ से दर्शानेवाले गीत-संगीत-नृत्य के कार्यक्रम टीवी पर आते हैं।

कहां ले जाएगा यह सब हमारी संस्कृति, हमारी पंरपराओं को!

19012010015 ग़ज़ल :: आरज़ू

--- --- मनोज कुमार

J0341448 इस मोड़ तलक साथ जो आये थे हमसफ़र।

चलते बने हैं हमको दोराहे पे छोड़ कर।

काली सियाह रात है सूझे न कोई राह।

खाता हुआ मैं ठोकरें फिरता हूँ दर-ब-दर।

साहिल की जुस्तजू ने ला मंझधार में छोड़ा।

तिनके का सहारा भी अब आता नहीं नज़र।

टुकड़े हुए हैं दिल के उन्हें कैसे बताएँ।

जीने की आरज़ू में हम पीते रहे ज़हर।

आँखों में अश्‍क ज़ख़्में जिगर दिल में आरज़ू।

मुझको जो मौत आए तो उन को न हो ख़बर।

चाहा था जिनको जान से ज़्यादा, न मिल सके।

जी चाहता है जान भी कर दूँ उन्हें नज़र।

माना कि हुनर-ए-इश्क़ का हमको नहीं था इल्म।

बरबादियों पे “मनोज” की न हो कैसे आंखें तर।

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लिंक ये है http://www.parikalpnaa.com/2010/07/blog-post_1128.html

27 टिप्‍पणियां:

  1. इस मोड़ तलक साथ जो आये थे हमसफ़र।

    चलते बने हैं हमको दोराहे पे छोड़ कर।

    काली सियाह रात है सूझे न कोई राह।

    खाता हुआ मैं ठोकरें फिरता हूँ दर-ब-दर।
    --
    आपकी यह ग़ज़ल तो बढ़िया है ही
    साथ ही बधाई भी स्वीकार कर लीजिए!

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  2. चाहा था जिनको जान से ज़्यादा, न मिल सके।

    जी चाहता है जान भी कर दूँ उन्हें नज़र

    वाह वाह वाह....प्यार की पराकाष्ठा है यहाँ तो...लेकिन सच कहूँ मुझे आज के आप के लेखन और इस पहले की गजेल पढ़ कर हंसी छूट रही है.
    क्या टीन एजर प्यार की दास्ताँ है.

    हाँ लेकिन इस में कोई दो-राय नहीं की पहले भी अच्छा लिख लेते थे.

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  3. 1.हम कैसे मान लें इन्हें आती नहीं ग़ज़ल
    रख डाला है इन्होंने कलेजा निचोड़कर.
    मनोज जी! ये आपकी मॉडेस्टी है कि आप कहते हैं कि आपको ग़ज़ल कहनी नहीं आती. सिर्फ पूजा करने वाले ही धार्मिक नहीं होते, कुछ लोग तो हरि कथा सुनकर ही धार्मिक हो जाते हैं.
    2. बधाई आपके यात्रा वृत्तांत के पुरस्कृत होने के लिए!

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  4. माना कि हुनर-ए-इश्क़ का हमको नहीं था इल्म।

    बरबादियों पे “मनोज” की न हो कैसे आंखें तर।
    बहुत सुंदर गजल जी, ओर हमारी तरफ़ से बहुत बहुत बधाई.
    धन्यवाद

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  5. आँखों में अश्‍क ज़ख़्में जिगर दिल में आरज़ू।

    मुझको जो मौत आए तो उन को न हो ख़बर।

    वाह वाह ...क्या बात कही है....

    किसकी थी तलाश और कौन रहा वो हमसफ़र
    जिसके लिए रख दिया है दिल निचोड़ कर ....

    पुरस्कार के लिए बधाई

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  6. @ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
    उपस्थिति और अशिर्वचन का अभार!

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  7. @ अनामिका की सदाये.....
    पराकष्ठा ...?
    यह पढकर मेरी भी हंसी छूट गई। आपका शुक्रिया। हां दस्तान टीन एज की तो नहीं ही है।

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  8. @ सम्वेदना के स्वर
    मेरी वेदना में आपके संवेदना के स्वर मिले ...हरिकथा सुनने का मन हो आया।

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  9. @ राज भाटिय़ा जी
    हौसला आफ़ज़ाई का शुक्रिया।

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  10. @ संगीता स्वरुप ( गीत )
    किसकी तलाश थी ... भूल सा गया हूं।
    बस यही दोहराना चाहूंगा कि कभी-कभी इस तरह की बेमानी हरकतें भी बड़ा सुकून दे जाती हैं।

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  11. बड़ी ही सुन्दर गज़ल, गहरी और आत्मिक।

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  12. टुकड़े हुए हैं दिल के उन्हें कैसे बताएँ।

    जीने की आरज़ू में हम पीते रहे ज़हर। ..

    isi ka naam jeevan hai.

    badhiya prastuti.

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  13. निश्छल प्यार की दास्तां ।
    सम्मान के लिये बधाई।

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  14. गज़ल अच्छी लगी.आभार.
    सम्मान प्राप्त करने के लिये बधाई.

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  15. बहुत शानदार .इस प्रस्तुति के लिये धन्यवाद.
    ब्लागोत्सव पर सम्मानित होने पर अनेक बधाई.

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  16. बहुत ही सुन्दर गज़ल है.................
    यात्रा वृतांत के लिये बधाई

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  17. इस मोड़ तलक साथ जो आये थे हमसफ़र।
    चलते बने हैं हमको दोराहे पे छोड़ कर।
    काली सियाह रात है सूझे न कोई राह।
    खाता हुआ मैं ठोकरें फिरता हूँ दर-ब-दर।
    ....सुन्दर गज़ल प्रस्तुति के लिये धन्यवाद.
    ब्लागोत्सव पर सम्मानित होने पर अनेक बधाई.

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  18. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  19. ग़ज़ल की रवानगी काबिल-ए-तारीफ़ है ! इरशाद !! इस ब्लॉग पर ग़ज़ल अभी तक 'आंच' पे नहीं आयी है. आचार्य की आज्ञा हो तो इसे चढ़ाया जाय आंच पर !!!

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  20. आँखों में अश्‍क ज़ख़्में जिगर दिल में आरज़ू।
    मुझको जो मौत आए तो उन को न हो ख़बर।
    वाह! क्या बात है!
    सही में पराकाष्ठा है इन पंक्तियों में
    चाहा था जिनको जान से ज़्यादा, न मिल सके।
    जी चाहता है जान भी कर दूँ उन्हें नज़र।

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  21. मंगलवार २० जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  22. पहले पहल तो आपको बधाई इस सम्मान की .....

    आपकी ग़ज़ल भावनाओं से भरपूर है ... संवेदनाए हैं हर शेर में .... शील तो एक कला है जो भाव हों तो सीखी जेया सकती है .... अच्छी ग़ज़ल है ...

    माना कि हुनर-ए-इश्क़ का हमको नहीं था इल्म।
    बरबादियों पे “मनोज” की न हो कैसे आंखें तर

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  23. आँखों में अश्‍क ज़ख़्में जिगर दिल में आरज़ू।
    मुझको जो मौत आए तो उन को न हो ख़बर।

    मनोज जी इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूल फरमाएं...
    नीरज

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  24. जय हो।
    नियम वगैरह हम भी नहीं जानते गजल के इसीलिये पसंद का दायरा बड़ा है। बिना नियम और बे-बहर गजल भी अच्छी लग जाती है।

    अच्छा किया जो पुरानी नादानियां यहां सटा दीं। सुन्दर भाव हैं।

    सम्मानित किये जाने की बधाई। गंगासागर वाले किस्से अभी बांचने हैं।

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  25. बहुत अच्छा....मेरा ब्लागः"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com .........साथ ही मेरी कविता "हिन्दी साहित्य मंच" पर भी.......आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद

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  26. इतनी प्यारी और दर्द से सराबोर ग़ज़ल आपने 17 तारीख को पोस्ट की और मैं इसे 24 घंटे बाद अब देख रहा हूँ. मैं तो इसे अपनी ही बदकिस्मती कहूँगा.भाई मनोज जी देखिये आप ग़ज़ल भी अगर इतनी प्यारी लिखेंगे तो मुझे आपसे जलन होने लगेगी. दो बार पढ़ चुका हूँ,फिर पढ़ने का मन कर रहा है,अब आप ही बताएं मन कैसे भरेगा.
    आँखों में अश्‍क ज़ख़्में जिगर दिल में आरज़ू।
    मुझको जो मौत आए तो उन को न हो ख़बर।

    अहा, कमाल कर दिया आपने तो,कमाल.

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