आंच पर आरज़ू
-- करण समस्तीपुरी
पिछले सप्ताह इस ब्लॉग पर श्री मनोज कुमार जी ने 'फुर्सत मे' एक ग़ज़ल लिखी थी, आरजू। पाठकों ने बेपनाह गौर-तबज्जो की, भरपूर सराहा... । ग़ज़ल की रवानगी ने मुझे भी कुछ लिखने की प्रेरणा दी। आचार्य की आज्ञा से इसे आंच पर चढ़ा रहा हूँ। इसे प्रस्तुत रचना की समीक्षा या ग़ज़ल का संरचना विज्ञान नहीं वरण मेरा व्यक्तिगत विचार समझा जाय।
फारसी के शब्द 'गजाला' (हिरन को मारने का एक नुकीला हथियार) से विकसित 'ग़ज़ल' शब्द में वही दर्द होता है, जो गजाला लगने पर हिरन के चीत्कार में। आरंभिक काल में ग़ज़ल का मतलब दर्द की अभिव्यक्ति से ही था... काल-क्रम में इसमें प्रेम की अनुभूति और व्यंग्य के तत्व भी शामिल होते गए। ग़ज़ल-लेखन का आरम्भ ६ठी शताब्दी में ही हो गया था। लेकिन संस्कृत और हिंदी साहित्य में संयोग के साथ-साथ वियोग के गीत भी प्रचलित थे। कालिदास की शाकुंतलम्, मेघदूतम और जायसी का 'पद्मावत' सबल प्रमाण है। सूर के विरह के पद भी बड़े मर्मस्पर्शी हैं। इसीलिए हिंदी में यह एक अधिकृत नयी विधा नहीं बन पायी। लोग उर्दू-अरबी-फारसी बहुल शब्दों के तुकांत गीत को ही ग़ज़ल समझते रहे।
१२वी शताब्दी में जब सल्तनत शासन का दौर आया और सूफी गीतों का प्रचलन बढ़ा तो फन-ए-ग़ज़ल को भी उरूज मिला। सूफी गीतों के प्रियतम से विरह का दर्द ग़ज़लों में फूट के बहने लगा। बाद में सौंदर्य शास्त्रीयों ने ग़ज़ल की संरचना विज्ञान को गीतों के तौर पर ही रखा। ग़ज़ल न्यूनतम पांच और अधिकतम पंद्रह शायरी वाला प्रेमगीत होता है। लेकिन गीत की एक कड़ी से दूसरे कड़ी के बीच सम्बन्ध होना लाजमी होता है जबकि ग़ज़ल के शे'र पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं है। एक शे'र दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। इस कसौटी पर अगर देखें तो श्री मनोज कुमार की 'आरजू' गीत और ग़ज़ल के बीच की रचना लगती है।
प्रस्तुत ग़ज़ल में दर्द का प्रवाह निरंतर है। विरहजन्य वेदना जो ग़ज़ल का आदि स्वर है आद्योपांत इस रचना में मुखर है। उद्दाम प्रेम का उत्कर्ष तो देखिये,
चाहा था जिनको जान से ज़्यादा, न मिल सके।
जी चाहता है जान भी कर दूँ उन्हें नज़र।
श्री कुमार ने इस मुख़्तसर ग़ज़ल में दुनिया के कई रंज-वो-गम को समेटा है। देखिये एक अशरार,
साहिल की जुस्तजू ने ला मंझधार में छोड़ा।
तिनके का सहारा भी अब आता नहीं नज़र।
असंतोष की प्रवृति उसे कहाँ ला के छोड़ती है ? कुछ और पा लेने की कभी न तृप्त होने वाली तृष्णा व्यक्ति को उस मोड़ पहुंचा देती है जहां से वापसी का कोई सहारा नहीं होता ? दूसरी तरफ चाहत में जब जूनून का हद हो तो वो किसी गम का फिक्र नहीं करता.... एक आग का दरिया है और डूब के जाना है। लेकिन शायर का यहाँ तिनके का सहारा खोजना, निश्चय पर प्रश्न-चिन्ह है। सारांश यह कि अलक्ष्य संघर्ष बहुधा विफलता ही देती है।
आँखों में अश्क ज़ख़्में जिगर दिल में आरज़ू।
मुझको जो मौत आए तो उन को न हो ख़बर।
मुझको जो मौत आए तो उन को न हो ख़बर।
वासना अदम्य होती है। इतनी दुश्वारियों के बावजूद 'दिल में आरजू' है। लेकिन यह आरजू उस बेवफा के लिए है कि इसके सर्वनाश की खबर भी उन तक न पहुँच पाए जिस से उन्हें कोई गम-ओ-मलाल हो। हालांकि उन्हें कोई मलाल होगा ये पता नहीं... फिर भी ये निश्छल प्रेम की पराकाष्ठा है।
इस तरह से कोमल भावों का इन्द्रधनुष समेटे इस ग़ज़ल में रवानगी तो है मगर अबाध नहीं। ग़ज़ल के अशआर की मात्राओं की गणना में शायर कहीं-कहीं चूके हैं, तो मकते के शे'र में दीर्घ मात्र 'था' खटकती है। ग़ज़ल के शिल्प के मुताबिक़ इस रचना का "काफिया" कुछ हद तक दुरुस्त है मगर "रदीफ़" तंग है। 'काफिया' ग़ज़ल के शे'र की अन्त्य ध्वनि होती है। इस ग़ज़ल के मतले (पहला शे'र) से मकता (जिस शे'र में शायर का नाम होता है) तक "अर" ध्वनि एक समान बनी हुई है, लेकिन रदीफ़ दरअसल समान शब्दों की आवृति होती है।
जैसे :
"दिले नादां तुझे हुआ क्या है ?
आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है ?
हमें उन से है वफ़ा की उम्मीद,
जो जानते नहीं कि वफ़ा क्या है ?"
इस शे'र में 'क्या है' रदीफ़ और हुआ, दवा, वफ़ा काफिया हैं। रदीफ़ से ठीक पहले काफिया में मात्राओं की समानता होती है। काफिया में असामंजस्य ग़जल की रवानगी को रोक रही है। इस ग़ज़ल की शिल्पगत सुन्दरता इसके रुकन में है, जो हर शे'र के एक चरण के बाद आता है। रुकन के बाद बहर की मात्राएँ भी कहीं कहीं उलझी हैं। अमूमन रुकन के बाद ह्रस्व मात्र से शुरू करना चाहिए तो प्रवाह बना रहता है। यह बिलकुल गाड़ी चलाने जैसा है। एक बार रुकने के बाद फर्स्ट गियर में बढ़ना चाहिए वरना हिचकोले खाने पड़ेंगे। उसी प्रकार रुकन के बाद जहां-जहां दीर्घ मात्राएँ आयीं हैं, वहाँ प्रवाह रुक रहा है। निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं,
आँखों में अश्क ज़ख़्में जिगर, दिल में आरज़ू।
चाहा था जिनको जान से ज़्यादा, न मिल सके।
टुकड़े हुए हैं दिल के, उन्हें कैसे बताएँ।
इन पंक्तियों में 'जिगर', 'ज्यादा', 'के' रुकन हैं और उनके बाद बहर की ह्रस्व मात्रा ग़जल की गति को लय देती है।
लेकिन,
साहिल की जुस्तजू ने, ला मंझधार में छोड़ा।
इस पंक्ति में 'ने' के बाद 'ला' की दीर्घ मात्रा होने के कारण 'बहर' को जल्दी में पढना पड़ता है।
ग़ज़ल पढने में बेशक बहुत अच्छी लगी मगर रचनाकार की परिपक्वता को देखते हुए इसे 'औसत' दर्जे में ही रखा जाना चाहिए। उम्मीद है आपकी अगली ग़ज़लों में और वक़ार आये। शुभ-कामनाएं !! और छोटी मुँह बड़ी बात हो गयी हो तो माफी बख्शें।
Great ! Ghazal ke baare me itni achchi jaankaaree aur ek achchi ghazal bhee padhne ko mili. thank you.
जवाब देंहटाएंबहुत ही कलात्मक आलेख है यह तो!
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इसे पढ़वाने के लिए शुक्रिया!
आवश्यक पोस्ट, धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंग़ज़ल की तकनीकी जानकारी ना के बराबर है...लेकिन इस समीक्षा के कारण काफी कुछ समझ में आया ...सुन्दर समीक्षा...आभार
जवाब देंहटाएंbahut sundar charcha !
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा। ग़ज़ल की विधा के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिला।
जवाब देंहटाएंअगली बार इससे बेहतर करने का प्रयास किया जएगा।
वाह! करण जी आपने तो ग़ज़ल के बारे में बहुत सी जानकारी देते हुए यह समीक्षा प्रस्तुत की। आपका अंदाज़ निराला है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही कलात्मक आलेख है यह तो!
जवाब देंहटाएंकरण जी आपके पोस्ट काफ़ी ज्ञानवर्धक होते हैं। यह भी अपवाद नहीं हैं।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल की विधा के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिला।
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा!
इसे पढ़वाने के लिए शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ग़ज़ल का ऐतिहासिक और तकनिकी विश्लेषण सराहनीय है. साथ में आंच की लौ भी बराबर बनी हुई है. आलोच्य रचना का नीर-क्षीर विवेचन और समीक्षा की नयी दृष्टि पसंद आयी. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमैं हरीश जी से अक्षरशः सहमत हूँ. समीक्षा की भाषा और अंदाज़ दोनों नया है. तेवर भी सधे हुए हैं. धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंसभी पाठकों का मैं हृदय से आभारी हूँ ! आप सबों को कोटि-कोटि धन्यवाद !!
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