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मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

डायवोर्स

-- सत्येन्द्र झा

 

“बड़े दु:ख की बात है। मेरे पड़ोसी ने अपनी पतनी को डायवोर्स दे दिया।”

“डायवोर्स…. मतलब?”

“डायवोर्स मतलब तलाक…. पति-पत्नी के मध्य किसी प्रकार का संबंध नहीं। न शारीरिक ना ही वैचारिक। डायवोर्स में पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।”

“यह तो अच्छी बात है….!”

“दूर्र…. तुम पगली हो क्या?”

“हाँ, मैं पगली हूँ… क्योंकि मैं वर्षों से देखती आ रही हूँ कि मेरा बाप सवेरे उठ कर कहीं चला जाता है। आधी रात को दारू के नशे में टुन्न होके आता है। माँ को गाली देता है। आये दिन मारता-पीटता भी है। माँ भीख-दुख से हम पाँचो भाई-बहनों का पेट भरती है लेकिन कभी अपनी माँग में सिन्दूर लगाना नहीं भूलती।

“…………………..”

आंसुओं की कई बूंदे जमीन को गीली कर देती हैं। किसके आँसू पता नहीं।

 

(मूल कथा मैथिली में ’अहींकेँ कहै छी’ में संकलित डायवोर्स से हिन्दी में केशव कर्ण द्वरा अनुदित।)

 

सोमवार, 21 मार्च 2011

लघु कथा : दूसरी गलती

लघुकथा : दूसरी गलती

-- सत्येन्द्र झा


साइकिल कार से सट गयी थी। कार को तो कुछ नहीं हुआ मगर साइकिल के परखच्चे उड़ गए थे। साइकिल की यह पहली गलती थी कि उसे उसकी औकात याद नहीं रही।


टूटी हुई साइकिल जाने लगी न्याय के लिए। यह उसकी दूसरी गलती थी।


(मूल कथा मैथिली में "अहींकें कहै छी" में संकलित 'दोसर गलती' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

प्रमाण

श्री सत्येन्द्र झा मैथिली साहित्य की जेठ के दुपहरी में छाँव की तरह वतरित हुए हैं। मैथिली और यदा-कदा हिंदी में कविता, कहानी और व्यंग्य लिखने वाले श्री झाजी की लोकप्रीय विधा है, 'लघुकथा'। वे अब तक शताधिक लघुकथाओं की रचना कर चुके हैं जिनमे से इक्यावन कथाएं 'अहीं के कहै छी' (आपही को कहते हैं) नामक संकलन में प्रकाशित है और दूसरा संकलन भी प्रकाशन की राह देख रहा है। झाजी की शैली देख कर एक बार पुनः यह विश्वास पुष्ट होता है कि लोकतंत्र में भले ही संख्याबल और आकर्बल माने रखते हों परन्तु साहित्य में अभी भी गुणबल ही प्रधान है। श्री झाजी सम्प्रति आकाशवाणी के दरभंगा केंद्र में बतौर लेखापाल कार्यरत हैं। उनकी वाणिज्य शिक्षा का प्रभाव उनके लेखन में भी झलकता है कि झाजी कितने नाप-तोल और गिन कर शब्दों का उपयोग करते हैं। -- करण समस्तीपुरी

प्रमाण

-- सत्येन्द्र झा



"आपका नाम क्या है ?" बड़े से कोठानुमा मकान के आदमकद फाटक पड़ खड़े वृद्ध से नौवर्षीय बालक ने पूछा।

"देवचन्द्र।" मैं आपका दादा हूँ..... आपके पिताजी का पिता।"

"आप एक मिनट इध ही रुको। मैं डैडी से पूछ कर आता हूँ।" बालक अन्दर की ओर जाने लगा कि अचानक वृद्ध ने पूछा, "डैडी से क्या पूछेंगे आप ?"

"यही कि आप सच में डैडी के पिताजी हैं क्या ?" कह कर बालक अन्दर चला गाया किन्तु वृद्ध के म्लान मुखमंडल पर छोड़ गाया अनेक प्रश्न और उलझन.... आखिर एक पुत्र कैसे प्रमाणित करेगा कि उसका पिता कौन है ?

(मूल कथा मैथिली में 'अहीं के कहै छी' में संकलित 'प्रमाण' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित)

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

मार्केटिंग

श्री सत्येन्द्र झा मैथिली साहित्य की जेठ के दुपहरी में छाँव की तरह अवतरित हु हैं। मैथिली और यदा-कदा हिंदी में कविता, कहानी और व्यंग्य लिखने वाले श्री झाजी की लोकप्रीय विधा है, 'लघुकथा'। वे अब तक शताधिक लघुकथाओं की रचना कर चुके हैं जिनमे से इक्यावन कथाएं 'अहीं के कहै छी' (आपही को कहते हैं) नामक संकलन में प्रकाशित है और दूसरा संकलन भी प्रकाशन की राह देख रहा है। झाजी की शैली देख कर एक बार पुनः यह विश्वास पुष्ट होता है कि लोकतंत्र में भले ही संख्याबल और आकर्बल माने रखते हों परन्तु साहित्य में अभी भी गुणबल ही प्रधान है। श्री झाजी सम्प्रति आकाशवाणी के दरभंगा केंद्र में बतौर लेखापाल कार्यरत हैं। उनकी वाणिज्य शिक्षा का प्रभाव उनके लेखन में भी झलकता है कि झाजी कितने नाप-तोल और गिन कर शब्दों का उपयोग करते हैं।
बसंत-पंचंमी की शुभ-कामनाओं के साथ -- करण समस्तीपुरी


मार्केटिंग
-- सत्येन्द्र झा
एक ही शहर में दो जगह आध्यात्म एवं योग शिविर चल रहे थे। एक जगह भारी भीड़ और दूसरे जगह मुश्किल से इतने लोग कि आसानी से अंगुली पर गीने जा सकें। अधिक भीड़ वाले शिविर में प्रवचन चल रहा था। भाव-विभोर महात्मा जी कह रहे थे, "आप अपने सब दुःख, संताप, चिंता, शोक हमें दे दीजिये। बदले में मैं आपको स्वस्थ्य तन, शांत मन, अपार धन, आध्यात्मिक उन्नयन का उपहार दूंगा। महज पांच सौर रूपये दान कीजिये। कीमत न लगाइए.... सिर्फ पांच सौ रूपये में इतनी सारी दैविक सिद्धियाँ.... !" भीड़ तो लगता था कि सामियाना तोड़ देगी।

दुसरे शिविर में भी साधु बाबा बोल रहे थे, "हमने जो उपाय और मार्ग आपको बताया.... सिर्फ उसे सुनने से कल्याण नहीं होगा। उसके लिए आवश्यक है कि आप अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में से थोड़ा सा समय निकाल कर इसके लिए प्रयास भी करें। आध्यात्म और योग अभ्यास से ही सिद्ध होता है। इसके लिए पैसे नहीं बल्कि कर्म की आवश्यकता है।" हा...हा...हा.... हा.... जो भी लोग बैठे थे एक-एक कर उठने लगे।
(मूल कथा मैथिली में 'अहीं के कहै छी' में संकलित 'धन-धर्म' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित)

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

सजा की कीमत

-- सत्येन्द्र झा


"तमाम सबूत गबाहों के बयानात के मद्देनजर.... अदालत उम्रकैद की सजा मुक़र्रर करती है।" ्यायाधीश महोदय ने फैसला सुनाया। वह मुस्कुरा उठा। उस पर हत्या का अभियोग लगा थालेकिन फिर से अदालत में दूसरा व्यक्ति उसी अपराध की स्वीकारोक्ति दे रहा हैन्यायधीश महोदय भी सन्नएक हत्या और कुल मिलाकर पांच अभियुक्त और हरेक का दावा कि हत्या उसी ने किया हैपहला व्यक्ति रिहा हो गया। उसे कुछ समझ नहीं रहा था


"लेकिन वकील साहब, बाहर जाकर मैं खाऊंगा क्या... ? रहूँगा कहाँ... ? जेल में तो कम से एक छत और और दोनों टाइम भोजन तो मिलता.... ! अरे माना कि वह हत्या मैं ने नहीं की थी मगर सजा पाकर मैं खुश थाआपने यह क्या कर दिया.... पांच-पांच लोगों को..... !", वह अधिवक्ता से गुहार कर रहा थावकील साहब ने हिकारत भरे लहजे में कहा, "अबे चुप कर.... ! ज्यादा सयाना बनने की कोशिश मर करोसजा उतनी ही मिलती है जितना वो खर्च-वर्च करता हैआखिर मुफ्त में चौदह साल रोटी तोड़ने को नहीं मिलती।"


वकील साहब के पान चबाने से काले दांत चमक उठे थे जबकि उसकी आँखों के आगे अँधेरा गया था।


मूल कथा मैथिली में "अहीं कें कहै छी" में संकलित "सजायक मूल्य" से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित