श्री सत्येन्द्र झा मैथिली साहित्य की जेठ के दुपहरी में छाँव की तरह अवतरित हुए हैं। मैथिली और यदा-कदा हिंदी में कविता, कहानी और व्यंग्य लिखने वाले श्री झाजी की लोकप्रीय विधा है, 'लघुकथा'। वे अब तक शताधिक लघुकथाओं की रचना कर चुके हैं जिनमे से इक्यावन कथाएं 'अहीं के कहै छी' (आपही को कहते हैं) नामक संकलन में प्रकाशित है और दूसरा संकलन भी प्रकाशन की राह देख रहा है। झाजी की शैली देख कर एक बार पुनः यह विश्वास पुष्ट होता है कि लोकतंत्र में भले ही संख्याबल और आकर्बल माने रखते हों परन्तु साहित्य में अभी भी गुणबल ही प्रधान है। श्री झाजी सम्प्रति आकाशवाणी के दरभंगा केंद्र में बतौर लेखापाल कार्यरत हैं। उनकी वाणिज्य शिक्षा का प्रभाव उनके लेखन में भी झलकता है कि झाजी कितने नाप-तोल और गिन कर शब्दों का उपयोग करते हैं। -- करण समस्तीपुरी
प्रमाण
-- सत्येन्द्र झा
"आपका नाम क्या है ?" बड़े से कोठानुमा मकान के आदमकद फाटक पड़ खड़े वृद्ध से नौवर्षीय बालक ने पूछा।
"देवचन्द्र।" मैं आपका दादा हूँ..... आपके पिताजी का पिता।"
"आप एक मिनट इधर ही रुको। मैं डैडी से पूछ कर आता हूँ।" बालक अन्दर की ओर जाने लगा कि अचानक वृद्ध ने पूछा, "डैडी से क्या पूछेंगे आप ?"
"यही कि आप सच में डैडी के पिताजी हैं क्या ?" कह कर बालक अन्दर चला गाया किन्तु वृद्ध के म्लान मुखमंडल पर छोड़ गाया अनेक प्रश्न और उलझन.... आखिर एक पुत्र कैसे प्रमाणित करेगा कि उसका पिता कौन है ?
(मूल कथा मैथिली में 'अहीं के कहै छी' में संकलित 'प्रमाण' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित)
प्रश्न तो सही है
जवाब देंहटाएंजबरदस्त सवाल हैं ,
जवाब देंहटाएंआज के युग में व्यक्तिवादी समाज के ढांचे में आत्मीय रिश्तों की बुनियाद हील सी गयी है।हम अपने आप में इतने व्यस्त हो गए हैं कि अन्य रिशतों की जरूरत नही महसूस होती है।आज दादाजी की बात तो दूर की बात हो गयी,परिवार में बुजुर्गों की अनुपस्थिति के कारण छोटे-छोटे वच्चे अपने मां-बाप को भी नही पहचान पाते हैं। उस बालक का प्रश्न सटीक था।ङमें इतना अवश्य याद रखना चाहिए कि जीवन के छोटे-छोटे अहम हमें अपनों से तो दूर कर देते हैं किंन्तु जीवन की सांध्य-बेला में वही रिश्ते फिर य़ाद आने लगते हैं।हृदयस्पर्शी पोस्ट।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंjabardas parshan
जवाब देंहटाएंकम पंक्तियों में गुरुतर अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है सत्येन्द्र जी ने।
जवाब देंहटाएंआभार
वर्तमान समय में अपने घर परिवार में अनजान बन रहे रिश्तों के मार्मिक सच को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हुई लघुकथा अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंचिचारनीय बिन्दू छोड गयी लघु कथा।
जवाब देंहटाएंअनभिज्ञता के प्रमाद में प्रमाण भी प्रमाणहीन बनकर रह जाता है। साधुवाद,
जवाब देंहटाएंअहम प्रश्न ..रिश्ते जैसे लुप्त होते जा रहे हैं ..
जवाब देंहटाएंप्रमाण..... टूटैत-दरकैत संबंधक प्रमाण.... क्षीण होएत संवेदनाक प्रमाण.... आ नहि जानेक कतेक रास आओर प्रमाण प्रस्तुत कए रहल अछि अपनेक ई लघुकथा !
जवाब देंहटाएंyah transition ka samay hai .. sankaraman kaal .. abhi to aisa hee hoga... sochiye jab live in relationship aam hoga to kaun se sawal puchhe jayenge...
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक लघुकथा !
जवाब देंहटाएंकोई चाहे तो ये प्रश्न उठा तो सकता ही है.
जवाब देंहटाएंसच मे विचार करने लायक हे!!
जवाब देंहटाएंआज सभी आत्मीय रिश्ते विस्मृत हो चुके हैं..बहुत सटीक टिप्पणी..
जवाब देंहटाएंमनोज जी पहले तो धन्यवाद कि आपने यह आंचलिक साहित्य अनुदित रूप में सर्वसाधारण को उपलब्ध कराया है.. लघुकथा की यह पैठ अन्यत्र नहीं देखने में आई है! आदरणीय झा जी की कई लघुकथाएँ यहाँ देखने को मिली और सब पिछले सए बेहतर और अगली कथा की प्रतीक्षा को प्रेरित करता..
जवाब देंहटाएंइस कथा ने सत्यजीत रे की फ़िल्म शाखा प्रशाखा का एक प्रसंग याद दिला दिया!!
गहरे व्यंग्य लिए लघुकथा मर्मस्पर्शी है।
जवाब देंहटाएंइस कथा में बच्चे की सोच दादा जैसी है और दादा केवल शरीर से बड़ा हुआ प्रतीत होता है। खेदजनक,निंदनीय।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंप्रश्न आस्था का है।
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