पिछले दिनों आचर्य जानकीबल्लभ शास्त्री जी से भेंटवार्ता का आनन्द लेते हुए स्नेही ब्लोगर बन्धु श्री अरुण चन्द्र राय जी ने इच्छा प्रकट किया था कि कभी पंडित हरिमोहन झा से हिन्दी ब्लोग-जगत का परिचय कराया जाय। वैसे मुझे इसमें सन्देह है कि हिन्दी ब्लोग-जगत अभी तक हरिमोहन झा से अवगत नही होगा।
हरिमोहन झा उद्भट विद्वान थे। उनका जन्म वर्तमान बिहार राज्य के मिथिलांचल में हुआ था। वैशाली जिला के मालपुर/वाजितपुर गांव को उनकी जन्मभूमी होने का गौरव प्राप्त है। उनकी वास्तविक जन्मतिथि के विषय में प्रमाणिक जानकारी नही है किन्तु कहा जाता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मिथिला के एक कर्मकाण्डी ब्रह्मण परिवार में इनका जन्म हुआ था। इस तिथि को बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में महिलायें अपने सन्तान के दीर्घायु के लिये भगवान जिमुतवाहन का व्रत रखती हैं, जिसे ’जितिया’ के नाम से जाना जाता है।
झाजी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। छः वर्ष की आयु से ही इन्हे संस्कृत के अनेक श्लोक एवं स्तोत्र याद हो गये थे। इनकी विलक्षण प्रतिभा का अन्दाज तभी हो गया था जब महज बारह वर्ष की उम्र में उन्होने अपने ’नाना’ को समर्पित संस्कृत में एक लम्बे स्तुतिगान की रचना कर डाली।
हालांकि उनकी औपचारिक शिक्षा बहुत देर से शुरु हुइ। कोइ बारह साल की आयु में उन्होने विद्यालय का मुंह देखा किन्तु उसके बाद से तो उन्हे जैसे सभी परीक्षाओं में प्रथम आने की आदत सी हो गयी थी।
उन्होने प्रतिष्ठित पटना विश्वविद्यालय से दर्शन-शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि स्वर्ण-पदक के साथ प्राप्त किया। उस समय (शायद १९४९) में उनका
प्राप्तांक संयुक्त बिहार, बंगाल और उड़ीसा में सर्वाधिक था। बाद में इसी विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर अध्यापन आरम्भ किया और दर्शन-शास्त्र के विभागाध्यक्ष पद से सेवा-निवृत हुए।
मैथिली मातृभाषी पंडित हरिमोहन झा दर्शन के अतिरिक्त काव्य-शास्त्र, ज्योतिष, व्याकरण, इतिहाष, आयुर्वेद आदि विषयों के मूर्धन्य के विद्वान थे। मैथिली के अतिरिक्त हिन्दी, अंग्रेजी, बांग्ला, ओड़िया, संस्कृत,भोजपुरी, अवधी भाषाओं पर समान अधिकार था। मातृभाषा से अनन्य प्रेमवश इन्होने मैथिली को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उपन्यास कन्यादान और द्विरागमन इनकी कालजयी रचनायें हैं। इसके अतिरिक्त अनेक फुटकर कहानियां, संस्मरण, ललित-निबंध, प्रहसन आदि इनकी कलम से निकले हैं, जिनकी लोकप्रियता मिथिलांचल में चरम पर है। हरिमोहन झाजी की अधिकांश रचनाओं का अनुवाद हिन्दी में हो चुका है। कुछ रचनाएं गुजराती एवं अन्य भाषाओं में भी अनुदित हुई हैं।
स्पष्ट कहें तो वैद्यनाथ मिश्र (नागर्जुन) और फिर हरिमोहन झा ही मैथिली में विद्यापति के प्रसाद को आगे बढाने वाले साहित्य नक्षत्र हुए। रुढियों पर कुठाराघात इनकी रचनाओं का मूल स्वर रहा है। अपनी अमर कृति कन्यादान और द्विरागमन में इन्होने बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, पर्दा प्रथा, कम उम्र में प्रसव आदि ज्वलन्त समस्याओं पर बड़ा ही तिक्ष्ण किन्तु गुदगुदाता प्रहार किया है। हलांकि समाजिक कुरितियां जो तत्कालीन समाज के अभिन्न अंग बन गये थे, उनके बहिष्कार के कारण इन्हे विद्वद एवं सामन्य समाज की आलोचनायें भी झेलनी पड़ी। किन्तु झाजी की कल्पनाशक्ति की प्रशंसा करनी होगी जिसकी बदौलत आज से साठ साल पहले उन्होने आधुनिक प्रगतिशील (मिथिलांचल) समाज का सपना देखा था।
इनका रचना संसार आकाश की तरह विस्तृत, वायु की तरह विहंगम और पक्षी की तरह उन्मुक्त है। हास्य आपकी रचनाऒं में नये क्षितिज और व्यंग्य नए गगन का निर्माण करता है। इत-उत करुण रस के भी दर्शन हो जाते हैं। आंचलिक वर्णन में आपका कोई सानी नही है। आपके अकाट्य तर्क के आगे बड़े-बड़े पंडित भी खंडित हो जाते हैं। पतरा पर खतरा आ जाता है। नैयायिकों को अन्याय लगने लगता है। इनके व्यंग्य के नुकीले तीर कहीं-कहीं भावुक पाठकों को भी चुभ जाते हैं, मगर मेरा विश्वास कीजिये, इनका हास हमेशा आपको गुदगुदाता रहेगा। मैथिली साहित्य में इन्होने ’खट्टर कका’ के चरित्र की सृष्टि क्या की.... बाद में यह इतना लोकप्रिय हुआ कि हरिमोहन झा इसी नाम से साहित्य सृजन करने लगे।
मेरा सौभाग्य है कि मैं खट्टर कका की तमाम रचानाएं पढ चुका हूं। और दावे के साथ कह सकता हूं कि मैथिली/हिन्दी साहित्य में इनके जैसा ह्युमरिस्ट न तो तभी कोई था और न अभी। खट्टर कका का तरंग साहित्यरस पिपासुओं के लिये तो पीयूष स्रोत है ही साथ ही यह ऐसा लाफ़िंग गैस है जिस से कोई नहीं बच सकता। रोते हुए आता है फिर भी हंसना ही पड़ेगा। बहुत दिन हो चुके हैं किन्तु स्मृति पटल में छुपे उनके हास्य-रस के मोती आपको भेंट करने की कोशिश कर रहा हूं।
दही चूड़ा चीनी
खट्टर काका दरवाजे पर बैठ कर भांग घोंट रहे थे. मुझे आते हुए देख कर बोले, " अरे उधर मिर्च के पौधे लगे हैं, इधर से आओ।"
मैं ने कहा, " खट्टर काका, आज ज्यवारी (सात गांव का) भोज है। उसी का निमंत्रण देने आया हूँ ।
खट्टर काका खुश होते हुए बोले, " वाह । वाह । भोज का निमंत्रण देने आये हो.... ? तब ओ सीधा आ जाओ । क्या होगा दो चार पौधे ही टूटेंगे न । ये कहो की भोज में होगा क्या सब ?"
मैं ने कहा, " दही, चूडा, चीनी।"
खट्टर काका, " बस, बस, बस । सृष्टि में सब से उत्कृष्ट पदार्थ तो यही है । गोरस में सबसे मांगलिक वस्तु दही, अन्न में सबका चूडामणि चूडा, और मधुर में सबका मूल चीनी । इन्ही तीनों का संयोग तो त्रिवेणी संगम है । मुझे तो त्रिलोक का आनंद इन्ही में मालुम पड़ता है । चूडा भूलोक । दही भुवर्लोक । चीनी स्वर्लोक । "
मैं ने देखा की खट्टर काका अभी तरंग में हैं । सब कुछ अद्भुत ही कहेंगे। सो, थोड़ा काम रहते भी बैठ गया उनकी सरस बातें सुनने को ।
खट्टर काका ने कहा, "मुझे तो लगता है की चूडा दही चीनी से ही संख्या दर्शन की उत्पत्ति हुई होगी
मैं ने चकित होते हुए पूछा, " चूडा दही चीनी में संख्या दर्शन कहाँ से आ गया ?"
खट्टर काका ने कहा, " अभी तुम्हे कोई हड़बड़ी तो नही है ? अगर नही तो बैठो । मेरा विश्वास है की कपिल मुनि ने चूडा दही चीनी के अनुभव पर ही तीनो गुणों की व्याख्या की होगी। दही सत्व गुन । चूडा तमोगुण । चीनी रजोगुण ।
मैं ने कहा, " खट्टर काका आपकी तो हर बात ही अलग होती है । ऐसा तो मैं ने पहले कहीं नही सुना।"
खट्टर काका बोले, "मेरी कौन सी ऐसी बात है, जो तुम कहीं और सुने हो ?"
मैं ने कहा, "खट्टर काका । आपने दही चूडा चीनी, से त्रिगुण का अर्थ कैसे लगाया ?"
खट्टर काका, " असली सत्व दही में ही होता है, इसीलिए इसका नाम सत्व । चीनी धूल होता है इसीलिए यह रज । और चूडा रुक्ष्तम होता है इसीलिए तम।"
मैं ने कहा, "आर्श्चय । इस ओर तो मेरा ध्यान हे नही गया था । "
खट्टर काका ने व्याख्या करते हुए कहा, "देखो, तम का अर्थ होता है अन्धकार । इसीलिए, सूखा चूडा पत्ते पर परते ही आंखों के आगे अँधेरा छा जाता है । जैसे ही
सफ़ेद दही उस पर पड़ता है, आंखों में चमक आ जाती है । इसीलिए सत्वगुण को प्रकाशक कहा गया है। 'सत्वं लघु प्रकाशक्मिश्तम' । इसीलिए दही लघुपाकी और सबका प्रिय होता है ।चूडा कब्जकर होता है । इसीलिए तम को अवरोधक कहा गया है । और बिना रजोगुण के क्रिया का प्रवर्तन सम्भव ही नही, इसीलिए चीनी के बिना खाली चूडा दही गले के नीचे नही उतरता है । अब समझे । "
मैं ने कहा, "धन्य हैं खट्टर काका । आप जो न सिद्ध कर दें ।"
खट्टर काका बोले, "सुनो, सांख्य मत में प्रथम विकार होता है महत या बुद्धि । दही चूडा चीनी खाने के बाद यह पेट मैं फैलता है । यही महत की अवस्था है । इस अवस्था में गप्प खूब सूझता है । इसीलिए महत कहो या बुद्धि, बात एक ही है । लेकिन इसके लिए सत्वगुण का आधिक्य होना चाहिए, यानी कि दही ज्यादा होना चाहिए ।"
मैं- "अहा । संख्य दर्शन का ऐसा तत्व और कौन कह सकता है । "
खट्टर काका, "अगर इसी तरह निमंत्रण देते रहो तो मैं सारे दर्शन का तत्व समझा दूँ।
*मैथिली पुस्तक ’खट्टर कका’क तरंग’ से साभार....
झा जी को प्रणाम ,और इस प्रस्तुति के लिये आपका आभार
जवाब देंहटाएंवाह, क्या बात है !
जवाब देंहटाएंभूली-बिसरी यादें!
जवाब देंहटाएंजब आठ-दस बरस का रहा होऊंगा, तब देखी थी फ़िल्म कन्यादान। अहा!
कितने वर्षों बाद आपने उसकी याद दिला दी। याद दिला दी बुच्ची दाई। और सही कहा आपने कि रुढियों पर कुठाराघात इनकी रचनाओं का मूल स्वर रहा है।
उस ज़माने में जब कि मिथिलांचल की महिलाएं भर मुंह अपने से बड़ों से बात भी नहीं कर पाती थीं, उनकी नायिका अपने अधिकार के लिए काफ़ी प्रगतिशील क़दम उठाई और सफल हुई।
खट्टर काका तो हम लोग खूब पढे सुने।
और आज की कहानी भी लाजवाब रही।
यह श्रृंखला ज़ारी रहे .... आदेश है, निवेदन नहीं।
हरिमोहन झा जी से परिचय अच्छा लगा ...मैं इनके साहित्य को पढने से वंचित ही रही ...बहुत अच्छा कार्य होगा यदि यह श्रृंखला जारी रहेगी ....मनोज जी के आदेश का पालन किया जाए ..
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा हरिमोहन जी के बारे में जानकर..... सार्थक पोस्ट
जवाब देंहटाएंहरिमोहन झा जी से परिचय अच्छा लगा…………हमे तो कोई जानकारी नही थी मगर आपने जो दर्शन प्रस्तुत किया है उससे ये तो समझ आ गया वो सच मे एक महान इंसान होंगे क्योंकि आम चीजो मे भी दर्शन ढूँढना सबके बसकी बात नही और उन्होने तो पूरा ज्ञान ही उतार दिया …………तत्व दर्शन करा दिया।
जवाब देंहटाएंजानकारीपरक भी और हास्य मिश्रित भी, अच्छी लगी ये पोस्ट.
जवाब देंहटाएंहरिमोहन झा जी से परिचय कराने के लिए धन्यवाद ... जीवन/सांख्य दर्शन अच्छा लगा ...
जवाब देंहटाएंप्रेरणास्पद लेख के लिए धन्यवाद..
जवाब देंहटाएंपंडित हरिमोहन झा जी से परिचय कराने के लिए धन्यवाद !
जवाब देंहटाएं'दही चुडा चीनी' के माध्यम से खट्टर पुराण की भी झलक मिल गयी
पंडित हरिमोहन झा जी से परिचय कराने के लिए धन्यवाद !
जवाब देंहटाएं'दही चुडा चीनी' के माध्यम से खट्टर पुराण की भी झलक मिल गयी
खट्टर काका का परिचय, खट्टर पुराण और करण समस्तीपुरी त्रिगुण-संयोगात् हास्यरस-निष्पत्तिः।
जवाब देंहटाएंजी बहुत बहुत धन्यवाद.
जवाब देंहटाएं"धन्य हैं खट्टर काका । आप जो न सिद्ध कर दें ।"
जवाब देंहटाएंश्री हरिमोहन झा जी से मिलनाने के लिए आभार!
करन किसी देश या प्रदेश के साहित्य के विकास में उस क्षेत्र के आर्थिक विकास का महत्व होता है..मिथिलांचल की सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत को देशव्यापी पहचान इसलिए नहीं मिली क्योंकि हम आर्थिक रूप से पिछड़े थे... अन्यथा कवि हरिमोहन झा को परसाई जी के समक्ष रखा जाता ... खट्टर काका के माध्यम से मिथिलांचल में व्याप्त कुरीतियों, कुंठाओं, सामाजिक भेद भाव... कर्मकांड ..पाखंड आदि पर जिस तरह व्यंग्य किया है वह कोई समाजसुधारक भी नहीं कर सका... उच्च वर्ग की मानसिकता को जिस तरह उधेडा है.. आर्थिक विपन्नता के कारणों पर जिस तरह चोट किया है... वह पूरे उत्तर भारत में किसी अन्य भाषा में नहीं हुआ है... 'चुडा दही चीनी' को उनके प्रतिनिधि व्यंग्य के रूप में जाना जाता है... इसका प्रस्तुतीकरण भी आपने बढ़िया किया है.. आगे और भी रचनाएं हिंदी के पाठको को मिले.. यही कामना है..
जवाब देंहटाएंसभी पाठकों को हृदय से आभारी हूँ। विशेषतः श्री अरुणचन्द्र जी का। आखिर यह उन्ही की प्रेरणा थी। फिर श्री मनोज कुमार जी का कि उन्होने इस प्रस्ताव को न केवल सहर्ष अनुमति दी बल्कि बहुत सारी भूली बिसरी बातें भी याद दिलायी मिथिला के इस महान विभुति के संबंध में। और फिर आप सबों का प्रोत्साहन और स्नेह... इसके लिये सिर्फ़ धन्यवाद काफ़ी नहीं है। मैं कोशिश करुंगा कि खट्टर काका की सरस लेखिनी का आनंद कुछ सप्ताह तक आपको मिलता रहे। अरुण्जी ने सच ही कहा है कि समाजिक बुराइयों के परिष्कार के लिये झाजी ने जितने सधे हुए प्रयास किये हैं, उतना कोई समाजसुधारक ही कर सकता है। किन्तु झाजीका मार्ग शुष्क उपदेशपरक नहीं बल्कि सरस हास्यपुर्ण है।
जवाब देंहटाएंअपने खुद के सृजित पात्र खट्टर काका के जरिये अंधविश्वासों के खिलाफ मुहिम चलाने के लिए यह यशश्वी रचनाकार सदैव याद किया जाएगा !
जवाब देंहटाएंआपके माध्यम से खट्टर कका से परिचय हुआ! धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंवे अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न थे। उनकी पुस्तक खट्टर ककाक तरंग का दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
जवाब देंहटाएंखट्टर पुराण बहुत रोचक रहा। हरिमोहन झा जी से परिचय कराने के लिए करण जी आपका आभार,
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