लघुकथा
चित भी मेरी पट भी मेरी
सत्येन्द्र झा
उसका बैल बीमार था। पशु चिकित्सक को बुलाया गया। मोटे-मोटे इंजेक्शन और ढेर सारी दबाइयां चली.... मगर बैल बच नहीं पाया।लोग कह रहे थे कि डॉक्टर बीमारी नहीं पहचान सका। डॉक्टर साहब झुंझला गए, "दवा तो मैंने सही ही दिया था मगर... पशु की जातकुछ बोलता तो है नहीं.... अब ऐसे बीमारी कभी-कभार पहचान में ना आये तो क्या कर सकते हैं....?"
उफ़... इस बार उसका सबसे छोटा बेटा बीमार पड़ गया। शहर के सबसे बड़े डॉक्टर से इलाज करवाया मगर.... वह बच नहीं पाया।लोगों की जुबाँ पर फिर से एक ही शिकायत थी, "उफ़... डॉक्टर बीमारी नहीं पहचान पाया।" यह डॉक्टर साहब कुछ ज्यादा ही झुंझलागए, "तुम्हारा बेटा इतना बोलता था कि ठीक से इलाज करना मुश्किल। तुरत ये हो रहा है... तुरत वो हो रहा है.... तुरत ये होगया....... ! अगर कुछ नहीं बोलता तो मैं अपने ढंग से इलाज करता... ! वो तो मैं ही था जो इतने दिनों तक भी खीच पाया.... ।
बैल...? बेटा.... ?? वह अबाक था.... ! उसे यह भी समझ में नहीं आ रही थी कि मन में चीत्कार करे या कलेजा फार के चिल्लाए.... !
(मूल कथा मैथिली में 'अहीं के कहै छी' में संकलित 'मूक वाचाल' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित)
मेरी दृष्टि में मैथिली भाषा से हिंदी भाषा मे अक्षरश:अनुवाद हुआ है। यदि भावात्मक अनुवाद हुआ रहता तो 'चित भी मेरी पट भी मेरी' नामक लघु कथा में हास्य और रोचकता बनी रहती।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लघुकथा !
जवाब देंहटाएंसशक्त कथानक की आभा असजग शिल्प से किंचित क्षीण हुई है। तथापि प्रयास के लिए आभार,
जवाब देंहटाएंलघुकथा अच्छी लगी !
जवाब देंहटाएंदर्दनाक .
जवाब देंहटाएंअब डॉक्टरी का पेशा संवेदना से नहीं बल्कि व्यवसाय से जुड़ गया है.
जब काफी कुछ पढ़ने को हो तब शीर्षक रोचक होने के कारण प्रायः छोटी कथाएँ पढ़ने की हिम्मत कर ही लेता हूँ. सरोवर जी से सहमत हूँ. अनुदित कथाओं को भावों का कुछ अतिरिक्त मसाला चाहिए होता है.
जवाब देंहटाएंsharmnaak
जवाब देंहटाएंन बोलना और अधिक बोलना, दोनो ही न हों।
जवाब देंहटाएंसोचा होगा क्या ऐसा होना चाहिए
जवाब देंहटाएंसुन्दर लघुकथा।
जवाब देंहटाएंsundar laghukatha.
जवाब देंहटाएंअक्सर लोग अपने दोष को छुपाने के लिए दूसरों की गलतियां ढूंढते हैं। यह लघु कथा भी कुछ ऐसा ही संदेश दे रही है।
जवाब देंहटाएंलघुकथा पढ़कर मन सोचने को विवश हो गया!
जवाब देंहटाएंइस लघुकथा के माध्यम से सत्येन्द्र जी समाज के यथार्थ से परिचय करा रहे हैं.. करन का अनुवाद भी उत्तम है..
जवाब देंहटाएंअच्छी लघुकथा !
जवाब देंहटाएंबचाव दोनों स्थितियों में.
जवाब देंहटाएं"चिकित्सा सेवा है ,व्यवसाय नहीं" यदि इसे ध्यान रखा जाए तब ऐसे बुरे प्रकरण देखने-सुनने को न मिलें.
जवाब देंहटाएंआजकल इंसान जानवर सब एक बराबर ही हैं..
जवाब देंहटाएंसार्थक लघुकथा.
सार्थक बहाने>>
जवाब देंहटाएंबस यही कि, चाची के मूंच होती तो चाचा न कहलाती।
अच्छी रही लघु कथा.
जवाब देंहटाएंगंभीर व सार्थक कथा...
जवाब देंहटाएंलघु कथा तो बहुत अच्छी रही, अपने दायित्वों को अपने लिए कुछ और और दूसरे के लिए कुछ और मानने वालों के लिए एक sabak hai. लेकिन चित भी मेरी और पट भी मेरी जो हम प्रयोग करते हैं उसके अनुसार कथा कुछ और होनी चाहिए थी. अन्यथा न लें. इसके लिए आगे कभी उदारहण पेश करूंगी.
जवाब देंहटाएंसत्येंद्र झा जी का एक और मील का पत्थर! आभार मनोज जी!
जवाब देंहटाएंअच्छी सीख देती लघु कथा
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक पोस्ट
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ज़रा सोंच के देखें क्या हम सच मैं इतने बेवकूफ हैं
हर छोर में गड़बड़ी..
जवाब देंहटाएंयही दुनिया है.. इधर से भी मारेगी... उधर से भी..
bahut hi sunder laghukatha........... sonchane ko mazboor karti hui.
जवाब देंहटाएंदोनो का डाक्टर एक ही था क्या ? या फ़िर यह दोनो डाक्टर आरक्षण के कोटे से बने होंगे जी, या फ़िर किसी मत्री के फ़ोन से, तो जरुर उपहार दिया होगा मेज के नीचे से...... वर्ना ना बेल मरता ना लडका
जवाब देंहटाएंराज भाटिया साहब की टिप्पणी ने बाध्य कर दिया पुनः लिखने पर!! हमारी बधाई!!
जवाब देंहटाएंअभिव्यक्ति संतुलित होना ज़रूरी है.....
जवाब देंहटाएंएक पल को कुछ सोचने को मजबूर करती है !
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