-- करण समस्तीपुरी
"उड़ा ले मौज बबुआ.... जवानी चार दिन के....... !" कमाल गाना गाती थी छबीली मामी। सच्चे जवानिये का नाम तो हीरो है। मगर कबो-कबो बुढारियो में रंग जम जाता है। एगो सनीमा देखे रहे, बागवान। का सनीमा था भैय्या.... एक दर्जन तो हीरो-हीरोइनी थी मगर सब को छांट के उ साठ साल का बुढौ और पचपन साल की बूढी जौन रंग जमाई कि 'होरी खेले रघुवीरा अवध में.... होरी खेले रघुवीरा.... !'
कहे का मतलब कि हीरो का मतलब खाली जवाने नहीं है। केहू से पूछ लीजिये कि बागवान का हीरो कौन है समझ में आ जाएगा। और ई कौनो सनीमे का बात नहीं है। कभी-कभी सच्चो के भी बूढ़े शेर ही महफील लूट ले जाते हैं। वही किस्सा याद कीजिये न.... कैसे मोर्चा थामे थे बुढऊ लोग....! अरे... हमलोग सुखरिया के बराती में गए रहे। बाप रे बाप सो छकाई कुटुमैती गाँव की जनानी सब कि का बताएं... !
द्वार पर पहुंचे नहीं कि शुरू हो गया भक्ति अभिनन्दन, 'स्वागत में गाली सुनाओ री समधी भरुआ को....!" गुलटेनमा कका सहित सभी बूढे बराती मंद-मंद मुस्किया रहे थे मगर हमलोगों को तो मने-मन इर्ष्या हो रहा था। खास-कर खखोरन भैय्या के ससुर तो दोनो तरफ़ का पानी मार रहे थे। कबहुँ बराती के साथ तो कबहुँ सरियाती के साथ। “हम न जनली ए समधिन तु एतना सिंगार करबू.... आ बूढबा बरतिया से प्यार करबू..... !” हा....हा.... हा....हा....हा....! एक बार तो जैसन न टोन छोड़े कि कुछ देर के लिये गीत-गायिन सब का मुँहे बंद हो गया था। लेकिन जो कहिये, मजा बहुत आया था। हम लोगों से जादे तो बुढऊ लोगों पर ही लगन का नशा चढा था।
भात-खई में तो बुढऊ लोग आउर फ़्रंट पर थे। “जादा जो खायेगा पेट फूल जायेगा..... पैंट में होगा पखाना रे.... महंगी का जमाना....!” दादा रे दादा......... उ गांव के जनानी सब का गीत....! पुछिये मत। “जैसन इंडिया के गेट, वैसन समधीजी के पेट.... साला झूठ बोले ला.... !” खैर समधीजी सब के आर में हमलोग छुप-छुप के शैतानी करते रहे। केहु का ध्याने नहीं गया जुअनका बदमाश सब पर काहे कि इहां तो मेन लीड में समधीजी सब थे।
खैर भत-खई के बाद बिदाई का बेला आया। उ में भी समधिये लोग पर चोट था, “अरे समधी तू क्या जाने तेरा खानदान छोटा है.... !” खैर जनेउ-सुपारी और जोड़ा धोती-पाग देकर मिथिला के मरजाद के साथ समधि सब को बिदाई किया गया। फिर सबलोग खरखरिया रिक्शा पर सवार हो कर आये रहे दरभंगा टीशन।
जानकी इस्परेस आने में विलम्ब था। सबलोग इधर-उधर छितरा गय। मगर गुलटेनमा कक्का और भितरपुर वला उनका बड़का समधी एकदम पलेटफ़ारम का कुर्सी तोड़ते रहे उहो एकदम से आगे में ही। हमभी पुस्तक-भंडार के इसटाल पर मंडरा के साबित करने में लगे थे कि एतना बराती में पढे-लिखे तो एगो हमही हैं। तभिये लाउडिसपीकर पर कुच्छो बोला और एगो गाड़ी का पुक्की सुनाई दिया.... ले लुत्ती के.... सब दौड़ा उधरे। बारह आना बरियाती तो चढ गये। बांकी इंतजारी में थे कि गुलटेनमा कक्का और उनके समधी सरकार चढें या कि रस्ता दें तो बाकी लोग भी चढ जायें। मगर ई का इहां तो अलगे खेल शुरु है....।
कक्का कहें, “चढिये समधी... !” तो खखोरन भाई का ससुर बोले, “अरे नहीं समधीजी... पहिले आप तो चढिये...!” पहिले आप चढिये... तो पहिले आप चढिये....! माना कि मिथिलांचल है मगर गाड़ी-घोड़ा थोड़े बुझता है। ले बलैय्या के.... ई लोग ’चढिये समधी... चढिये समधी’ करते रहे उधर गाड़ी पुक्की मारी और छुक-छुक-छुक-छुक... कू......... ! बाकी बुझले बात, “इस्टेसन से गाड़ी जब छूट जाती है तो एक-दो-तीन हो जाती है...!” उ भी जानकी इस्परेस अब पकड़्ते रहो।
जौन लोग इधर-उधर के डिब्बा में घुस गये उ तो चले गये। और हमरे जैसन दो-चार गो काबिल लोग जो चढिये समधी-चढिये समधी का तमाशा देखे में रह गये, उ निहारते ही रह गये टरेन को।
गाड़ी तो खुल के चली और इधर दुन्नु समधी का मुंह देखने लायक था। और उन सब से भी जादे मुंह लाल था लोटकन झा पंडीजी का। बेचारे को रात में फेर एगो लगन पकड़ना था इहां तो टरेने मिस हो गया। हम उनके जले पर और नमक छिड़कते हुए बोले, “का हुआ पंडीजी... आपभी नहीं चढे...!”
पंडीजी खिसिया के बोले, “जाते कैसे तुम्हरे माथा पर चढके....?” इहां देखा नहीं घरबैय्ये झुम्मर खेल रहे थे। ’चढिये समधी तो चढिये समधी... और गाड़ी गयी छूट।’ न ई समधी चढे न उ समधी चढे... ना ही हमलोग को चढे का रस्ता दिये... ! अब इहां टिसन पर बैठ के मच्छर मारो !”
हम कहे, “अरे आप इतना गोस्साते काहे हैं ? अब समधी हैं तो फ़रमलिट्टी भी तो करना पड़ेगा...!” पंडीजी बोले, “मार लाठी तोहरे फ़रमलिट्टी को। कैसन-कैसन लिट्टी-चोखा उड़ा दिये... बकिये ऐसन धोखा कबहु नहीं हुआ। सब ठीक है... मगर एतना दुविधा काहे का... ? अरे सामने जौन काम पड़ा हुआ है उ केहु ना केहु के तो करना ही है ना... ! फिर पहिले आप तो पहिले आप करो... इसी में समय निकल जायेगा तो फिर कपार धुनते रहो। हुआ न... ’चढिये समधी... चढिये समधी... और गाड़ी गयी छूट’।”
"उड़ा ले मौज बबुआ.... जवानी चार दिन के....... !" कमाल गाना गाती थी छबीली मामी। सच्चे जवानिये का नाम तो हीरो है। मगर कबो-कबो बुढारियो में रंग जम जाता है। एगो सनीमा देखे रहे, बागवान। का सनीमा था भैय्या.... एक दर्जन तो हीरो-हीरोइनी थी मगर सब को छांट के उ साठ साल का बुढौ और पचपन साल की बूढी जौन रंग जमाई कि 'होरी खेले रघुवीरा अवध में.... होरी खेले रघुवीरा.... !'
कहे का मतलब कि हीरो का मतलब खाली जवाने नहीं है। केहू से पूछ लीजिये कि बागवान का हीरो कौन है समझ में आ जाएगा। और ई कौनो सनीमे का बात नहीं है। कभी-कभी सच्चो के भी बूढ़े शेर ही महफील लूट ले जाते हैं। वही किस्सा याद कीजिये न.... कैसे मोर्चा थामे थे बुढऊ लोग....! अरे... हमलोग सुखरिया के बराती में गए रहे। बाप रे बाप सो छकाई कुटुमैती गाँव की जनानी सब कि का बताएं... !
द्वार पर पहुंचे नहीं कि शुरू हो गया भक्ति अभिनन्दन, 'स्वागत में गाली सुनाओ री समधी भरुआ को....!" गुलटेनमा कका सहित सभी बूढे बराती मंद-मंद मुस्किया रहे थे मगर हमलोगों को तो मने-मन इर्ष्या हो रहा था। खास-कर खखोरन भैय्या के ससुर तो दोनो तरफ़ का पानी मार रहे थे। कबहुँ बराती के साथ तो कबहुँ सरियाती के साथ। “हम न जनली ए समधिन तु एतना सिंगार करबू.... आ बूढबा बरतिया से प्यार करबू..... !” हा....हा.... हा....हा....हा....! एक बार तो जैसन न टोन छोड़े कि कुछ देर के लिये गीत-गायिन सब का मुँहे बंद हो गया था। लेकिन जो कहिये, मजा बहुत आया था। हम लोगों से जादे तो बुढऊ लोगों पर ही लगन का नशा चढा था।
भात-खई में तो बुढऊ लोग आउर फ़्रंट पर थे। “जादा जो खायेगा पेट फूल जायेगा..... पैंट में होगा पखाना रे.... महंगी का जमाना....!” दादा रे दादा......... उ गांव के जनानी सब का गीत....! पुछिये मत। “जैसन इंडिया के गेट, वैसन समधीजी के पेट.... साला झूठ बोले ला.... !” खैर समधीजी सब के आर में हमलोग छुप-छुप के शैतानी करते रहे। केहु का ध्याने नहीं गया जुअनका बदमाश सब पर काहे कि इहां तो मेन लीड में समधीजी सब थे।
खैर भत-खई के बाद बिदाई का बेला आया। उ में भी समधिये लोग पर चोट था, “अरे समधी तू क्या जाने तेरा खानदान छोटा है.... !” खैर जनेउ-सुपारी और जोड़ा धोती-पाग देकर मिथिला के मरजाद के साथ समधि सब को बिदाई किया गया। फिर सबलोग खरखरिया रिक्शा पर सवार हो कर आये रहे दरभंगा टीशन।
जानकी इस्परेस आने में विलम्ब था। सबलोग इधर-उधर छितरा गय। मगर गुलटेनमा कक्का और भितरपुर वला उनका बड़का समधी एकदम पलेटफ़ारम का कुर्सी तोड़ते रहे उहो एकदम से आगे में ही। हमभी पुस्तक-भंडार के इसटाल पर मंडरा के साबित करने में लगे थे कि एतना बराती में पढे-लिखे तो एगो हमही हैं। तभिये लाउडिसपीकर पर कुच्छो बोला और एगो गाड़ी का पुक्की सुनाई दिया.... ले लुत्ती के.... सब दौड़ा उधरे। बारह आना बरियाती तो चढ गये। बांकी इंतजारी में थे कि गुलटेनमा कक्का और उनके समधी सरकार चढें या कि रस्ता दें तो बाकी लोग भी चढ जायें। मगर ई का इहां तो अलगे खेल शुरु है....।
कक्का कहें, “चढिये समधी... !” तो खखोरन भाई का ससुर बोले, “अरे नहीं समधीजी... पहिले आप तो चढिये...!” पहिले आप चढिये... तो पहिले आप चढिये....! माना कि मिथिलांचल है मगर गाड़ी-घोड़ा थोड़े बुझता है। ले बलैय्या के.... ई लोग ’चढिये समधी... चढिये समधी’ करते रहे उधर गाड़ी पुक्की मारी और छुक-छुक-छुक-छुक... कू......... ! बाकी बुझले बात, “इस्टेसन से गाड़ी जब छूट जाती है तो एक-दो-तीन हो जाती है...!” उ भी जानकी इस्परेस अब पकड़्ते रहो।
जौन लोग इधर-उधर के डिब्बा में घुस गये उ तो चले गये। और हमरे जैसन दो-चार गो काबिल लोग जो चढिये समधी-चढिये समधी का तमाशा देखे में रह गये, उ निहारते ही रह गये टरेन को।
गाड़ी तो खुल के चली और इधर दुन्नु समधी का मुंह देखने लायक था। और उन सब से भी जादे मुंह लाल था लोटकन झा पंडीजी का। बेचारे को रात में फेर एगो लगन पकड़ना था इहां तो टरेने मिस हो गया। हम उनके जले पर और नमक छिड़कते हुए बोले, “का हुआ पंडीजी... आपभी नहीं चढे...!”
पंडीजी खिसिया के बोले, “जाते कैसे तुम्हरे माथा पर चढके....?” इहां देखा नहीं घरबैय्ये झुम्मर खेल रहे थे। ’चढिये समधी तो चढिये समधी... और गाड़ी गयी छूट।’ न ई समधी चढे न उ समधी चढे... ना ही हमलोग को चढे का रस्ता दिये... ! अब इहां टिसन पर बैठ के मच्छर मारो !”
हम कहे, “अरे आप इतना गोस्साते काहे हैं ? अब समधी हैं तो फ़रमलिट्टी भी तो करना पड़ेगा...!” पंडीजी बोले, “मार लाठी तोहरे फ़रमलिट्टी को। कैसन-कैसन लिट्टी-चोखा उड़ा दिये... बकिये ऐसन धोखा कबहु नहीं हुआ। सब ठीक है... मगर एतना दुविधा काहे का... ? अरे सामने जौन काम पड़ा हुआ है उ केहु ना केहु के तो करना ही है ना... ! फिर पहिले आप तो पहिले आप करो... इसी में समय निकल जायेगा तो फिर कपार धुनते रहो। हुआ न... ’चढिये समधी... चढिये समधी... और गाड़ी गयी छूट’।”
रोचक प्रसंग दर्शाता हुआ रोचक लेख .
जवाब देंहटाएंबेहतरीन। लाजवाब।
जवाब देंहटाएंरोचक शैली में सुंदर कथा।
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा पढना।
जब तक बेमतलब की औपचारिकताओं का फेर रहेगा तब तक जरूरी काम छूटेंगे ही।
जवाब देंहटाएंमार लाठी तोहरे फ़रमलिट्टी को।
बहुत सुन्दर,
मुझे तो इसकी भाषा और matter दोनों ही बहुत प्यारे लगे.
जवाब देंहटाएंआलेख पढ़कर ऐसा लगा कि हम ही शादी में शामिल हो गए हैं. रोचक प्रसंग .
जवाब देंहटाएंदेसिल बयना की जीवंतता मन को हरने वाली है।
जवाब देंहटाएं---------
ब्लॉगवाणी: ब्लॉग समीक्षा का एक विनम्र प्रयास।
सजीव चित्रण से के माध्यम से देसिल बयना को अर्थवान करती पोस्ट। आभार।
जवाब देंहटाएंकरन जी,
जवाब देंहटाएंइस बार तो कमाल ही कमाल है !
भाषा का प्रवाह और सम्प्रेषण आपकी विशिष्ट शैली में इतने मुखर होकर अपना प्रभाव पैदा कर रहें हैं कि मेरे विचार उसे अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं हैं !
माँ शारदे की अनुकम्पा आप पर सदा यूँ ही बनी रहें !
Bahut badhiya...Chhabili Maami ke character bahut dinak baad aayal..
जवाब देंहटाएंसभी पाठकों को कोटि-कोटि धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंसुंदर वर्णन के साथ सार्थक देसिल बयना।
जवाब देंहटाएंकरन बाबू! अब त आपका टाइम आईये रहा है देखने का ई सब डिरामा.. बाकी अब ई बतियो खतम होले जा रहा है! न गारी, न भतखई,नपहिले आप!
जवाब देंहटाएंमगर चलिये आपके बहाने हमहूँ पुरनका घर, दलान अऊर खरिहान घुर लेते हैं!! मजा आ गया!
पहिले अढाई-अढाई दिन का मरजाद होता था। भुक्खड़ समाज। लड़का देगा त चूसे बिना लौटेगा नहीं। अब अच्छा है। अपने से लो आकि कोई परस के दे-एक साम खाओ और रस्ता नापो।
जवाब देंहटाएंमज़ेदार -लगता है कुछ लखनौआ रंग चढ़ गया है !
जवाब देंहटाएंआ हा हा हा..पूरा द्रिस आँख के आगे डोला दिए बबुआ...
जवाब देंहटाएंएकदम आनंदम आनंदम हो गया...
खुश रहो...जियो...