भारतीय काव्यशास्त्र - 54
भयानक और बीभत्स रस
- आचार्य परशुराम राय
प्रस्तुत अंक में भयानक और बीभत्स रस चर्चा के लिए लिये जा रहे हैं।
भय भयानक रस का स्थायिभाव है। भय उत्पन्न करने वाले जीव, व्यक्ति आदि आलम्बन विभाव, उनकी चेष्टाएँ उद्दीपन विभाव, विवर्णता, गद्गद भाषण (भय के कारण अस्पष्ट स्वर), प्रलय (मूर्च्छा), पसीना आना, रोंगटे खड़े होना, शरीर का काँपना, इधर-उधर, भागना आदि अनुभाव है। जुगुप्सा, आवेग, मोह, त्रास, ग्लानि, दीनता, शंका, अपस्मार (डर कर काँपते हुए लड़खड़ाकर या मूर्च्छित होकर गिर पड़ना), सम्भ्रम आदि इसके व्यभिचारी भाव हैं:-
भयानको भयस्थायिभाव: कालाधिदैवत:।
स्त्रीनीचप्रकृति: कृष्णो मतस्तत्त्वविशारदै:॥
यस्मादुत्पद्यते भीतिस्तदत्रालम्बनं मतम्।
चेष्टा घोरतरास्तस्य भवेदुद्दीपनं पुन:॥
अनुभावोSत्र वैवर्ण्यगद्रदस्वरभाषणम्।
प्रलयस्वेदरोमाञ्चकम्पदिक्प्रेक्षणादय:॥ (साहित्यदर्पण)
काव्यप्रकाश में महाकवि कालिदास कृत अभिज्ञानशाकुन्तलम् का निम्नलिखित श्लोक भयानक रस के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया गया है। यह उक्ति महाराज दुष्यन्त की है। शिकार के लिए पीछे पड़े राजा के डर से मृग भाग रहा है, उसकी स्थिति का वर्णन महाराज दुष्यन्त अपने सारथि से कर रहे हैं।
ग्रीवाभङ्गाभिराम मुहुरनुपतति स्यन्दने बद्धदृष्टि:
पश्चार्द्धेन प्रविष्ट: शरपतनभयाद् भूयसा पूर्वकायम्।
दर्भैरर्द्धावलीढै: श्रमविवृतमुखभ्रंशिभि: कीर्णवर्त्मा
पश्योदग्रप्लुतत्वाद्वियति बहुतरं स्तोकमुर्व्यां प्रयाति॥
अर्थात् बार-बार रथ को मुड़-मुड़कर देखता हुआ यह हिरण सुन्दर लग रहा है। बाण लगने के भय से अपने शरीर के पिछले भाग को सिकोड़ कर अगले भाग में समेटते हुए, भागते-भागते थक जाने के कारण अपने खुले मुँह (हाँफने के कारण) से आधे चबाई हुई घास को जमीन पर गिराता हुआ हिरण, देखो, आकाश में अधिक और जमीन पर कम चल रहा है।
यहाँ पीछा करने वाला राजा और उसका रथ आलम्बन विभाव, बाण लगने का भय तथा पीछा करना उद्दीपन विभाव, गरदन मोड़ना, भागना आदि अनुभाव तथा त्रास, श्रम आदि व्यभिचारी भाव है।
यहाँ एक शंका उठती है स्वशब्दवाच्य दोष (एक प्रकार का रस-दोष जिसमें स्थायिभाव को स्वशब्द से व्यक्त किया जाता है) की। लेकिन यहाँ 'शरपतनभयात्' में 'भय' शब्द का उपादान कर देने से शरपतन-भय स्थायिभाव न होकर, उद्दीपन विभाव हो गया है। अतएव यहाँ स्वशब्दवाच्य दोष नहीं माना जाएगा।
हिन्दी में भयानक रस के उदाहरण के लिए महाकवि तुलसीदास जी का निम्नलिखित कवित्त प्रस्तुत है। इसमें हनुमान जी द्वारा लंका जलाये जाने पर मन्दोदरी का भय स्थायिभाव है, हनुमान आलम्बन विभाव, उनका भयानक रूप, महल, सम्पत्ति आदि का जलना उद्दीपन विभाव घबराकर भागना, हाथ मलना, सिर पीटना आदि अनुभाव और विषाद, चिन्ता आदि व्यभिचारी भाव हैं।
रानी अकुलानी सब डाढ़त परानी जाहि.
सकैं न विलोकि वेष केसरी किशोर को।
मीजि-मीजि हाथ धुनि माथ दसमाथ-तिय
'तुलसी' तिलौ न भयो बाहिर अगारको।
अब असवाब डरौं मैं न काढ़ों तैं न काढ़ों
जियकी परी सँभार, सहन भंडारको।
खीजति मँदौवै सविषाद देखि मेघनाद
बयो लुनियत सब याही दाढ़ीजारको॥
अब बीभत्स रस पर चर्चा करते हैं। इसका स्थायिभाव जुगुप्सा है। दुर्गंधयुक्त मांस, रक्त, चर्बी आदि आलम्बन विभाव होते हैं उनमें कीड़े पड़ना आदि उद्दीपन विभाव हैं। थूकना, मुँह फेरना, आँख मीचना आदि अनुभाव हैं और मोह, आवेश, अपस्मार, व्याधि, मरण आदि व्यभिचारी भाव हैं। साहित्यदर्पण में इसका वर्णन निम्नलिखित रूप में किया गया है।
जुगुप्सास्थायिभावस्तु बीभत्स: कथ्यते रस:।
नीलवर्णो महाकालदैवतोSयमुदाहृत:॥
दुर्गन्धमांसरुधिरमेदांस्यालम्बनं मतम्।
तत्रैव कृमिपाताद्यमुद्दीपनमुदाहृतम्।।
निष्ठीवनास्यवलननेत्रसंकोचनादय:।
अनुभावास्तत्र मतास्तथा स्युर्व्यभिचारिणः।।
मोहोSपस्मार आवेगो व्याधिश्च मरणादय:। (साहित्यदर्पण)
बीभत्स रस के उदाहरण के रूप में आचार्य मम्मट और आचार्य विश्वनाथ कविराज ने 'मालतीमाधव' नाटक का निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है:-
उत्कृत्योकृत्य कृत्तिं प्रथममथ पृथूत्सेधभूयांसि मांसा-
न्यंसस्फिक्पृष्ठपिण्ड्याद्यवयवसुलभान्युग्रपूतीनि जग्ध्वा।
आर्त्त: पर्यस्तनेत्र: प्रकटितदशन: प्रेतरङ्क करङ्का-
दंकस्थादस्थिसंस्थं स्थपुटगतमपि क्रव्यमव्यग्रमत्ति॥
इसमें शमशान भूमि पर एक प्रेत को मांस-भक्षण करते देख माधव द्वारा उसकी बीभत्स चेष्टाओं का वर्णन है – यह दरिद्र प्रेत अपने गोद मे रखे मुर्दे के देह के चमड़े को उधेड़-उधेड़ कर पहले कंधे, नितम्ब, पीठ, पिंडली आदि उभरे अंगों के उभरे हुए सुलभ दुर्गंधयुक्त सड़े माँस खा लेने के बाद भी भूख से कातर आँखें फाड़े हड्डियों के अन्दर से माँस निकालने के लिए दाँत निकाले हड्डियों और जोड़ों मे चिपके माँस को भी बिना व्यग्र हुए बड़े चाव से चबा रहा है।
यहाँ शव तथा प्रेत आलम्बन विभाव हैं, चमड़े को उधेड़ना और माँस खाना उद्दीपन विभाव हैं। इन्हें देखनेवाले का नाक बन्द करना, मुँह फेर लेना, थूकना आदि अनुभाव हैं। आक्षिप्त उद्वेग, ग्लानि आदि संचारिभाव हैं। नाटक के नायक माधव की (साथ ही सामाजिक की भी) जुगुप्सा स्थायिभाव है।
हिन्दी की निम्नलिखित कविता बीभत्स रस का उत्तम उदाहरण है। सम्भवतः यह भारतेन्दु बाबू द्वारा विरचित हरिश्चन्द्र नामक नाटक से लिया गया है। इसमें श्मशान के भयंकर दृश्य का वर्णन है, जिसे देखकर महाराज हरिश्चन्द्र वर्णन कर रहे हैं।
सिर पै बैठो काग आँखि दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनँद उर धारत।
गिद्ध जाँघ कहँ खोदि खोदि के माँस उचारत।
स्वान आँगुरिन काटि काटि के खान विचारत।
बहु चील नोचि ले जात तुच, मोद मढ़्यो सबको हियो।
जनु ब्रह्मभोज जिजमान कोउ, आज भिखारिन कहँ दियो।।
श्मशान में शवों के साथ पशु-पक्षियों के कृत्य देखकर महाराज हरिश्चन्द्र के मन में उत्पन्न जुगुप्सा स्थायिभाव है। शवों की हड्डियाँ, त्वचा आदि आलम्बन विभाव हैं। कौवों का आँख निकालना, स्यारों द्वारा जीभ खींचना, गिद्धों द्वारा जाँघ को खोद-खोदकर माँस निकालना, कुत्तों द्वारा अँगुलियों को काटना आदि उद्दीपन विभाव हैं। राजा हरिश्चन्द्र द्वारा इन सबका वर्णन करना अनुभाव है। मोह, स्मृति आदि संचारिभाव हैं।
अगले अंक में अद्भुत और शान्त रस पर चर्चा की जाएगी।
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भयानक और वीभत्स रस की उदाहरण सहित विस्तृत चर्चा बहुत ज्ञानवर्धक है.
जवाब देंहटाएंआचार्यजी,
जवाब देंहटाएंआज कक्षा में ससमय उपस्थित हूँ.
सारगर्भित व्याख्या ....दोनों रसों का विस्तृत विवेचन पढ़कर कुछ और समझने का अवसर प्राप्त हुआ ..
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंआचार्य जी,
नमस्ते.
आज़ का पाठ रुचिपूर्वक पढ़ा. मन में कुछ प्रश्न आये :
१] क्या भयानक और बीभत्स रस सहृदय दर्शक के के भीतर ही व्युत्पन्न होगा?
२] क्या क्रूर हृदय [कसाई] में इन [भय और जुगुप्सा] स्थायिभावों की निहिति रहती है?
३] यदि नहीं रहती, तो क्या ये भाव सर्वव्यापक माने जा सकते हैं?
४] मैंने डिस्कवरी आदि चैनल्स पर देखा कि कुछ व्यक्ति बड़े ही घिनौने कृत्य करते हैं और अधिकांश दर्शक उन्हें बड़े चाव से देखने के आदि भी हो चुके हैं. ऐसे दृश्यों में हम यदा-कदा ही चेनल बदलते हैं, हम जान लेना चाहते हैं कि दिखाये जाने वाले क्रूर दृश्य की इन्तहां कहाँ तक है. - आचार्य जी, कृपया बतायें कि 'जुगुप्सा' स्थायिभाव से यदि बीभत्स रस जन्म न ले पाए और 'भय' का उत्पादन रुक जाये, तब क्या इस संवेदनशून्यता को सभ्यता का विकास कहना उचित होगा?
५] क्या इन रसों और संलग्न भावों को उत्पत्ति कई पक्षों से अलग-अलग होगी?
यथा : एक कल्पित कथा के माध्यम से कहता हूँ.
मेरे पास मेरा एक प्रिय पशु [सांड] था. उसे जबरन बुल फाइटर्स ने अपने शौक के लिये बाड़े में डाल दिया. और उसे तरह-तरह से भड़काया और उसे चोटें दीं. इस दृश्य को देखकर
— कुछ के भीतर सांड पक्ष से भय व्याप्त था.
— कुछ के भीतर बुल फाइटर पक्ष से भय व्याप्त था.
— कुछ के भीतर हास का संचार हो रहा था.
— कुछ के भीतर सांड पक्ष [पशु प्रेमी] से करुणा फूट रही थी.
— कुछ के भीतर फाइटर पक्ष से उत्साह का संचार हो रहा था. "वाह! कमाल की चुस्ती है, यह इस बार बुल को गिरा देगा."
— एक-आद के भीतर इस दृश्य को देखकर लज्जा आ रही थी कि "हाय! मानव कितना क्रूर हो गया है, उनके आक्रामक भावों के साथ भी मनोरंजन करने लगा है.छी!!, शर्म आती है मुझे मनुष्यता पर".
आचार्य जी, मुझे आज़ कई ऐसे दृश्य देखने में आ रहे हैं जहाँ भय और बीभत्स से जुड़े भाव उपजने-विकसने चाहिए किन्तु हास, उत्साह और विस्मय जैसे भाव जन्म पा रहे हैं? यह कैसा रस-संसार है?
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जवाब देंहटाएंसंपादित पंक्तियाँ :
१] क्या भयानक और बीभत्स रस सहृदय दर्शक के भीतर ही व्युत्पन्न होगा?
— कुछ के भीतर सांड पक्ष [पशु प्रेम के कारण] से करुणा फूट रही थी.
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मनोज जी आपने बहुत ज्ञान वर्धक लेख लिखा ।
जवाब देंहटाएंहमने तो सिर्फ इंटर में ही थोडा बहुत पढा था ।
आज विस्तार से समझ आ गया
आभार
भयानक और वीभत्स रस ? बहुत अच्छा लगा जी, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंजीवन के यहभी दो रंग हैं और इनका रूप इन दो रसों के साथ काव्य में भी वर्त्तमान है!! आज का यह पाठ भी ज्ञानवर्धक रहा!!
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक और सारगर्भित व्याख्या....लेख बहुत अच्छा है।
जवाब देंहटाएंअपने साहित्य में रसों की इतनी समृद्ध व्याख्या है पढ़ कर अच्छा लग रहा है.. वरना हमें लगता था कि ग्रीक, रोमन और लैटिन में है ये सब उपलब्ध हैं..
जवाब देंहटाएंभारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपूर्ण कार्य कर आप एक महान कार्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंबीभत्स एवं भयानक रसों की सोदाहरण व्याख्या से उन पाठकों की भांतियाँ कुछ हद तक दूर हुई होंगी जो रचना में शब्दों के प्रयोग के सतही विश्लेषण के आधार पर उपयुक्तता और अनुपयुक्तता का निर्धारण कर लेते थे।
जवाब देंहटाएंभारतीय काव्यशास्त्र को सरलीकृत रूप में जन जन तक पहुँचान का आपका यह उल्लेखनीय कार्य बहुत उपयोगी है।
आभार,