भारतीय काव्यशास्त्र-56
भक्ति रस और वात्सल्य रस
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में अद्भुत रस और शान्त रस पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में भक्ति रस और वात्सल्य रस पर चर्चा करेंगे।
भक्ति रस के संस्थापक के रूप में आचार्य रूपगोस्वामी को जाना जाता है। अपने ग्रंथ भक्तिरसामृतसिंधु और उज्ज्वलनीलमणि में भक्ति रस पर बड़े ही विस्तृत रूप से चर्चा करते हुए इसे एक स्वतंत्र रस के रूप में निरूपित किया है, स्थापित किया है। जबकि अन्य आचार्यों ने काव्यशास्त्र के अंतर्गत इसे केवल एक भाव कहा है। आचार्य रूपगोस्वामी भी देवताविषयक रति को काव्यशास्त्रियों की भाँति भाव ही मानते हैं। वे भक्ति रस के स्थायिभाव के रूप में केवल कृष्णविषयक रति को मानते हैं। उनकी दृष्टि में कृष्ण या राम देवता नहीं, बल्कि साक्षात ईश्वर हैं। अतएव वे इस रस के आलम्बन विभाव; भक्तों का समागम, तीर्थ, एकान्त पवित्र स्थल आदि उद्दीपन विभाव हैं; भगवान के नाम-संकीर्तन, लीला आदि का कीर्तन, रोमांच, गद्गद होना, अश्रु-प्रवाह, भाव-विभोर होकर नृत्य करना आदि अनुभाव हैं और मति, ईर्ष्या, वितर्क, हर्ष, दैन्य आदि व्यभिचारिभाव हैं।
आचार्य पंडितराज जगन्नाथ ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ रसगङ्गाधर में भक्ति रस की चर्चा निम्नलिखित शब्दों में की है-
भगवदालम्बनस्य रोमाञ्चाश्रुपातादिरनुभावितस्य हर्षादिभिः पोषितस्य भागवतादिपुराण-श्रवणसमये भगवद्भक्तैरनुभूयमानस्य भक्तिरसस्य दुरपह्नवत्वात्। भगवदानुरूपा भक्तिश्चात्र स्थायिभावः। न चासौ शान्तरसेSन्तर्भावमर्हति, अनुरागस्य वैराग्यविरुद्धत्वात्।
भक्ति रस को शान्त रस से अलग करने के लिए वे अनुराग और वैराग्य को भेदक रेखा मानते हैं, अर्थात भक्ति रस में ईश्वर के प्रति अनुरक्ति होती है और शान्त रस में वैराग्य की प्रधानता पायी जाती है। इस रस के स्थायिभाव, विभाव- आलम्बन और उद्दीपन, अनुभाव और व्यभिचारिभाव ऊपर बताये गये के अनुसार ही कहे गए हैं।
भक्ति रस के उदाहरण के लिए महाकवि सन्त तुलसीदासजी की निम्नलिखित कविता ली जा रही है-
तू दयालु दीन हौं तू दानि हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी तू पाप पुंज हारी।
नाथ तू अनाथ को अनाथ कौन मोसो।
मों समान आरत नहिं आरति हर तोसो।
ब्रह्म तू हौं जीव हौं तू ठाकुर हौं चेरो।
तात मातु गुरु सखा तू सब बिधि हित मेरो।
मोंहि तोंहि नाते अनेक मानिए जो भावे।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु चरन सरन पावे।
इसमें भगवान राम के प्रति रति (अनुराग) स्थायिभाव है, भगवान राम आलम्बन विभाव हैं और उनकी दानशीलता, दयालुता, करुणा आदि उद्दीपन विभाव हैं। अनुनय-विनय का कथन आदि अनुभाव हैं। दैन्य, हर्ष, गर्व आदि संचारिभाव हैं। इस प्रकार इसमें भक्ति रस पूर्णतया परिपुष्ट होता है।
जिस प्रकार भक्ति रस को कुछ आचार्य अलग रस मानते हैं, उसी प्रकार वात्सल्य रस को भी। आचार्य कविराज विश्वनाथ ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ साहित्यदर्पण में इस रस की विशेष रूप से चर्चा की है और एक स्वतंत्र रस के रूप में प्रतिष्ठा की है। उनके अनुसार वात्सल्य स्नेह इस रस का स्थायिभाव है, पुत्र आदि आलम्बन विभाव और उनकी चेष्टाएँ, विद्या, शूरता, दया, ख्याति आदि उद्दीपन विभाव हैं। आलिंगन, अंगस्पर्श, सिर-चुम्बन, देखना, रोमांच, आनन्दाश्रु आदि अनुभाव और अनिष्ट की आशंका, हर्ष, गर्व आदि संचारिभाव हैं। इस रस का वर्णन अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण में आचार्य विश्वनाथ ने निम्नलिखित शब्दों में किया है-
स्फुटं चमत्कारितया वत्सलं च रसं विदुः।
स्थायी वत्सलतास्नेहः पुत्राद्यालम्बनं मतम्।।
उद्दीपनानि तच्चेष्टा विद्याशौर्यदयादयः।
आलिङ्गनाङ्गसंस्पर्शशिरश्चुम्बनमिक्षणम्।।
पुलकानन्दवाष्पाद्या अनुभावाः प्रकीर्तिताः।
सञ्चारिणोSनिष्टशङ्काहर्षगर्वादयो मताः।।
पद्मगर्भच्छविर्वर्णो दैवतं लोकमातरः।
इसका भावार्थ रस के वर्ण और देवता को छोड़कर ऊपर दिया जा चुका है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है- आचार्य मम्मट आदि आचार्य भक्ति रस और वात्सल्य रस को स्वतंत्र रस के रूप में नहीं मानते, अतएव काव्यप्रकाश में इनके उदाहरण नहीं मिलते। इसलिए वात्सल्य रस के लिए साहित्यदर्पण का ही उदाहरण लेते हैं-
यदाह धात्र्या प्रथमोदितं वचो ययौ तदीयामवलम्ब्य चाङ्गुलिम्।
अभूच्च नम्रः प्रणिपातशिक्षया पितुर्मुदं तेन ततान सोऽर्भकः।।
इस श्लोक में सूर्यवंश के प्रतापी राजा रघु की बाल्य अवस्था का वर्णन है- बालक रघु धाय की कही हुई बातों को तुरंत दुहरा देता था, उसकी अँगुलि पकड़कर चलता था और प्रणाम करने के लिए कहते ही नम्र हो जाता था। उसके ये क्रिया-कलाप पिता महाराज दिलीप के आनन्द को परिवर्द्धित करते थे।
यहाँ बालक रघु आलम्बन विभाव, उसका धाय की बातों का दुहराना, उसकी अँगुली पकड़कर चलना, प्रणाम करने के लिए कहते ही नम्र हो जाना आदि उद्दीपन विभाव हैं, महाराज दिलीप की आँखों की चमक आदि अनुभाव हैं और उनका हर्ष, आनन्दित होना आदि संचारिभाव हैं। राजा और पाठकों में निष्पन्न वत्सलता स्थायिभाव है। इस प्रकार यहाँ वात्सल्य रस का पूर्णरूपेण परिपाक है।
महाकवि सन्त तुलसीदास जी की ही एक सवैया वात्सल्य रस के उदाहरण के रूप में यहाँ उद्धृत है-
कबहूँ ससि माँगत आरि करैं, कबहूँ प्रतिबिम्ब निहारि डरैं।
कबहूँ करताल बजाइ के नाचत, मातु सबै मन मोद भरैं।
कबहूँ रिसिआइ कहैं हठिकै, पुनि लेत वही जेहि लागि अरैं।
अवधेस के बालक चारि सदा, तुलसी मन मंदिर में बिहरैं।
इसमें विभाव, अनुभाव, संचारिभाव आदि उपर्युक्त की ही भाँति समझ लेना चाहिए। पुनरावृत्ति से बचने के लिए उन्हें दुबारा नहीं दिया जा रहा है।
अगले अंक में रस सम्बन्धी कुछ अन्य शेष चर्चाएँ की जाएँगी।
आप भारतीय काव्यशास्त्र को व्याख्या सहित प्रकाशित करने का उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं। ब्लाग जगत में आपका यह योगदान नए रचनाकारों के लिए अत्यंत उपयोगी साबित होगा.
जवाब देंहटाएंआभार,
भक्ति रस और वात्सल्य रस का बेहतरीन वर्णन! शुक्रिया
जवाब देंहटाएंभारतीय काव्यशास्त्र मे भक्ति रस और वात्सल्य रस का सुन्दर विस्तार से विवरण पढवाने के लिये धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंभक्ति रस और वात्सल्य रस का बेहतरीन वर्णन, अच्छी जानकारी आभार
जवाब देंहटाएंभक्ति रस और वात्सल्य रस का बेहद सटीक वर्णन किया है……………उदाहरण के साथ प्रस्तुत करने पर प्रभाव भी पडता है……………सहेजने योग्य आलेख्।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर विवरण भक्ति रस और वात्सल्य रस का, बहुत बारीकी से समझाया आप ने, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंभारतीय काव्यशास्त्र की कड़ी में
जवाब देंहटाएंभक्ति रस और वात्सल्य रस की विवेचना
बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत की है आपने!
.साहित्य के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी जानकारी है.
जवाब देंहटाएंप्रेम के दो रूप.. और उनकी व्याख्या.. संग्रहणीय!!
जवाब देंहटाएंभक्ति और वात्सल्य रस की व्याख्या में हिन्दी के उद्धरण देकर आपने समझ को सहज बना दिया है।
जवाब देंहटाएंआभार,
भारतीय काव्यशास्त्र में भक्ति रस और वात्सल्य रस पर व्याख्या सहित जानकारी भरी पोस्ट के लिए हार्दिक धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंभक्ति रस और वात्सल्य रस पर चर्चा ....
जवाब देंहटाएंयह आलेख बहुत महत्वपूर्ण है....
इस महत्वपूर्ण प्रस्तुति के लिए आपको बधाई।