श्री सत्येन्द्र झा मैथिली साहित्य की जेठ के दुपहरी में छाँव की तरह अवतरित हुए हैं। मैथिली और यदा-कदा हिंदी में कविता, कहानी और व्यंग्य लिखने वाले श्री झाजी की लोकप्रीय विधा है, 'लघुकथा'। वे अब तक शताधिक लघुकथाओं की रचना कर चुके हैं जिनमे से इक्यावन कथाएं 'अहीं के कहै छी' (आपही को कहते हैं) नामक संकलन में प्रकाशित है और दूसरा संकलन भी प्रकाशन की राह देख रहा है। झाजी की शैली देख कर एक बार पुनः यह विश्वास पुष्ट होता है कि लोकतंत्र में भले ही संख्याबल और आकर्बल माने रखते हों परन्तु साहित्य में अभी भी गुणबल ही प्रधान है। श्री झाजी सम्प्रति आकाशवाणी के दरभंगा केंद्र में बतौर लेखापाल कार्यरत हैं। उनकी वाणिज्य शिक्षा का प्रभाव उनके लेखन में भी झलकता है कि झाजी कितने नाप-तोल और गिन कर शब्दों का उपयोग करते हैं।
बसंत-पंचंमी की शुभ-कामनाओं के साथ -- करण समस्तीपुरी
मार्केटिंग
-- सत्येन्द्र झा
एक ही शहर में दो जगह आध्यात्म एवं योग शिविर चल रहे थे। एक जगह भारी भीड़ और दूसरे जगह मुश्किल से इतने लोग कि आसानी से अंगुली पर गीने जा सकें। अधिक भीड़ वाले शिविर में प्रवचन चल रहा था। भाव-विभोर महात्मा जी कह रहे थे, "आप अपने सब दुःख, संताप, चिंता, शोक हमें दे दीजिये। बदले में मैं आपको स्वस्थ्य तन, शांत मन, अपार धन, आध्यात्मिक उन्नयन का उपहार दूंगा। महज पांच सौर रूपये दान कीजिये। कीमत न लगाइए.... सिर्फ पांच सौ रूपये में इतनी सारी दैविक सिद्धियाँ.... !" भीड़ तो लगता था कि सामियाना तोड़ देगी।
दुसरे शिविर में भी साधु बाबा बोल रहे थे, "हमने जो उपाय और मार्ग आपको बताया.... सिर्फ उसे सुनने से कल्याण नहीं होगा। उसके लिए आवश्यक है कि आप अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में से थोड़ा सा समय निकाल कर इसके लिए प्रयास भी करें। आध्यात्म और योग अभ्यास से ही सिद्ध होता है। इसके लिए पैसे नहीं बल्कि कर्म की आवश्यकता है।" हा...हा...हा.... हा.... जो भी लोग बैठे थे एक-एक कर उठने लगे।
(मूल कथा मैथिली में 'अहीं के कहै छी' में संकलित 'धन-धर्म' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित)
अपनी-अपनी दुकानदारी.
जवाब देंहटाएंकहीं पढ़ा था, जिसको जैसा गुरु चाहिये, मिल जाता है।
जवाब देंहटाएंसच कहा आज समय नहीं है किसी के पास, अपने स्वयम के लिए भी नहीं. अच्छी शिक्षाप्रद कथा. बधाई सत्येन्द्र जी, करन जी और मनोज जी को.
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar
जवाब देंहटाएंjaisi mann ki chah waisa hi sunna chahta hai aadmi
जवाब देंहटाएंजाकी रही भावना जैसी ....
जवाब देंहटाएंइस युग में वस्तुवादी लोग, जो समझते हैं कि बिना धन के कुछ भी प्राप्ति संभव नहीं है उन्हें सुख और शांति को भी बेचने वाले मिल ही जाते हैं।
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जवाब देंहटाएंsuperb marketing..:)
जवाब देंहटाएंबसंत पंचमी के अवसर में मेरी शुभकामना है की आपकी कलम में माँ शारदे ऐसे ही ताकत दे...:)
superb marketing..:)
जवाब देंहटाएंबसंत पंचमी के अवसर में मेरी शुभकामना है की आपकी कलम में माँ शारदे ऐसे ही ताकत दे...:)
लोग तो किसी जादू की तलाश मे रहते हैं और ये बाबा लोग ऐसे लोगों की तलाश मे। दोनो के खूब मज़े हैं।
जवाब देंहटाएंदुर्लभ ज्ञान के लिये दुर्लभ मूल्य चुकाना ही पड़ता है! उस लोक के नियम तो शाश्व्त हैं!
जवाब देंहटाएंबसंत पंचमी की शुभकामनायें!
प्रेरक प्रसंग !
जवाब देंहटाएंदिल बेचारा क्या करे,सबकी अपनी प्रीति ,
जवाब देंहटाएंखुले आँख सूझे नहीं,दुनियाँ की है रीति !
सुदर लघुकथा ,बसंत पंचमी की शुभकामनाएं
बाज़ार के नब्ज़ पर हाथ रखती लघुकथा..
जवाब देंहटाएंकथा आपकी वाकई टाप की है।
जवाब देंहटाएंसही तौल की है सही नाप की है॥
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सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
सही....
जवाब देंहटाएंसबकुछ इंस्टेंट चाहिए....
पैसे की भाषा आसानी से लोगों को समझ में आती है...
paisa bolta hai...aur har jagah bol raha hai...
जवाब देंहटाएंbahut sundar prastuti.. vasantpanchmi kee haardik shubhkamna
झा जी की लघु कथाएँ तो बस अंतिम पंक्तियों तक पहुँच कर एक ऐसा भाव पैदाकरती हैं कि शब्दों का अभाव प्रतीत होने लगता है.. इस कहानी में ज्ञान का लग रहा भाव देखकर अवाक हो जाना पड़ता है!!
जवाब देंहटाएंsateek hai
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रसंग रहे!
जवाब देंहटाएंबसन्तपञ्चमी की शुभकामनाएँ!
आम आदमी की आध्यात्मिक समझ और आध्यात्मिक माने गए व्यक्ति की जागतिक समझ का अंतर!
जवाब देंहटाएंबसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंयह युग पैसा लुटाने को तैयार बैठा है। तब काहे का स्कैम। काहे की लूट!
जवाब देंहटाएंराजा/आदर्श/कॉमनवेल्थ गेम्स - सब सही हुआ जी ऐसी जनता के साथ।