लघुकथा : दूसरी गलती
-- सत्येन्द्र झा
साइकिल कार से सट गयी थी। कार को तो कुछ नहीं हुआ मगर साइकिल के परखच्चे उड़ गए थे। साइकिल की यह पहली गलती थी कि उसे उसकी औकात याद नहीं रही।
टूटी हुई साइकिल जाने लगी न्याय के लिए। यह उसकी दूसरी गलती थी।
(मूल कथा मैथिली में "अहींकें कहै छी" में संकलित 'दोसर गलती' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)
टूटी हुई साइकिल जाने लगी न्याय के लिए। यह उसकी दूसरी गलती थी.
जवाब देंहटाएंबहुत कम शब्दों में बिगड़ी हुई न्यायिक व्यवस्था पर चोट करती दमदार लघुकथा.
समाज का कटु सत्य।
जवाब देंहटाएंबेहद संश्लिष्ट कथा। इसे सूक्ष्म कथा कहें तो बेहतर रहेगा।
जवाब देंहटाएंआज के युग में आम आदमी की हकीकत है यह। उसे अपनी अवमानना और अपने अधिकारों के मानमर्दन के साथ ही जीना होता है सायकिल की तरह, एक पर एक गलती करते हुए।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर,
सच है, गरीबों के लिए कोई न्याय नहीं है !
जवाब देंहटाएं100%|
जवाब देंहटाएंekdam kadara varnan aaj ke samajik vyavastha ka....
जवाब देंहटाएंबेचारी साईकिल ....एक आम आदमी जैसी किस्मत.
जवाब देंहटाएंअच्छी कथा
यही नियति है साइकिल की...दुर्भाग्यवश..
जवाब देंहटाएंसटीक लघुकथा.
दूसरी गलती
जवाब देंहटाएंशानदार लघुकथा...
ग़लतियां करने की ठीका तो आम आदमी ने ही ले रखा है, खास आदमी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
जवाब देंहटाएंआम आदमी का जीवन दर्शन कराती प्रशंसनीय लघुकथा।
जवाब देंहटाएंकटु सत्य...सुन्दर लघु कथा..
जवाब देंहटाएंथोड़े शब्दों मे बहुत कुछ कह गए आप .....
जवाब देंहटाएंशुभकामनायो के साथ
मंजुला
इसे एक सूत्र कहना अधिक अच्छा होगा, कथा नहीं। कथा के अंग इसमें आ नहीं सके हैं। इसलिए इसे किसी भी प्रकार की कहीनी कहना असंगत होगा।
जवाब देंहटाएंबेहद करारी चोट की है सामाजिक असमानता और पक्षपाती न्याय व्यवस्था पर !
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