तुम.....
मेरे मन में तुम, स्मरण में तुम,
मेरे ध्यान में आती हो तुम,
मेरे तमसमय मानस में अपनी,
ज्योति बिखराती हो तुम !!
तुम कौन हो ? अयि प्रेरणे मेरी !
मुझे कुछ तो बता !
मेरी चेतने ! तुझे ढूंढ़ पाऊं,
दे मुझे अपना पता !
किस शक्ति से, किस भक्ति से,
अनुरक्ति से आती हो तुम ?
मेरे तमसमय मानस में अपनी,
ज्योति बिखराती हो तुम !!
नैराश्य के सागर में जब भी,
डूबता है मन मेरा !
आता है तट बन कर के तब,
सुस्मित सुखद आनन तेरा !
आती तो रहती क्यूँ नही ?
आ कर के क्यूँ जाती हो तुम ?
मेरे तमसमय मानस में अपनी,
ज्योति बिखराती हो तुम !!
जब भी भटकता हूँ व्यथित,
होकरके मैं अज्ञान में,
पाता हूँ तेरी ही झलक तब,
परमपद निर्वाण में !
मेरी शक्ति ! चिर शाश्वत ! सहज !
मेरा लक्ष्य बन जाती हो तुम !
मेरे तमसमय मानस में अपनी
ज्योति बिखराती हो तुम !!
मेरी श्रृष्टि का सर्वस्व तुम,
मेरी आत्मा, मेरे प्राण हो !
मेरे शब्द हो, मेरे गीत हो,
मेरे गान हो, मेरे तान हो !!
मेरी वन्दने ! मेरी साधने !
मुझको बहुत भाती हो तुम !
मेरे तमसमय मानस में अपनी
ज्योति बिखराती हो तुम !!
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छायावादी काव्य की ज्योति बिखर रही है इस कविता से... बहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंबहुत भावमयी सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंजब भी भटकता हूँ व्यथित,
जवाब देंहटाएंहोकरके मैं अज्ञान में,
पाता हूँ तेरी ही झलक तब,
परमपद निर्वाण में !waah bhawmai prastuti
वाह्………… अति उत्तम रचना…………बेहतरीन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंइतनी पुरानी कृति आज भी अपनी ज्योति बिखरा रही है।
जवाब देंहटाएंजब भी भटकता हूँ व्यथित,
जवाब देंहटाएंहोकरके मैं अज्ञान में,
पाता हूँ तेरी ही झलक तब,
परमपद निर्वाण में !
मेरी शक्ति ! चिर शाश्वत ! सहज !
मेरा लक्ष्य बन जाती हो तुम !
मेरे तमसमय मानस में अपनी
ज्योति बिखराती हो तुम !!
samarpit bhav saheje samarpan bhari kavita.
मेरी श्रृष्टि का सर्वस्व तुम,
जवाब देंहटाएंमेरी आत्मा, मेरे प्राण हो !
मेरे शब्द हो, मेरे गीत हो,
मेरे गान हो, मेरे तान हो ..
इस शक्ति ... इस ऊर्जा को प्रणाम है ....
करण बाबू! आज तो पण्डित भरतव्यास याद आ गये.. लगा जैसे सुन रहे हैंः
जवाब देंहटाएंतुम उषा की लालिमा हो भोर का सिंदूर तुम
मेरे प्राणों की हो गुंजन, मेरे मन की मयूर तुम.
बहुत ही सुंदर भावों से सजी कविता!!
मेरी श्रृष्टि का सर्वस्व तुम,
जवाब देंहटाएंमेरी आत्मा, मेरे प्राण हो !
मेरे शब्द हो, मेरे गीत हो,
मेरे गान हो, मेरे तान हो !!
मेरी वन्दने ! मेरी साधने !
मुझको बहुत भाती हो तुम !
मेरे तमसमय मानस में अपनी
ज्योति बिखराती हो तुम !!
Nishabd kar diya aapne!!
मेरी वन्दने ! मेरी साधने !
जवाब देंहटाएंमुझको बहुत भाती हो तुम !
मेरे तमसमय मानस में अपनी
ज्योति बिखराती हो तुम !! ....
बहुत ही भावुक रचना..... हार्दिक बधाई।
करन बाबू,
जवाब देंहटाएंआपकी कविता पढ़कर प्रसादजी की एक पंक्ति याद आ गयी- उज्ज्वल वरदान चेतना का
सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं।
बहुत अच्छी कविता। साधुवाद।
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ....आखिर यह प्रेरणा है कौन ?
जवाब देंहटाएंbahut sundar.....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंमेरी वन्दने ! मेरी साधने !
जवाब देंहटाएंमुझको बहुत भाती हो तुम !
मेरे तमसमय मानस में अपनी
ज्योति बिखराती हो तुम !!
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बहुत उम्दा!
मनभावन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकमाल है, अपने रचनाकर्म के शैशव में ही उत्कर्ष को स्पर्श कर आए हो करण बाबू। कविता नहीं लिखी है आपने। यह तो कविता के रूप में आराधना है। इस रचना को देखते हुए हमें आज के करण के रूप को देखकर आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंछायावाद का प्रभाव लिए रहस्यवादी रचना।
जवाब देंहटाएं(रहस्योद्घाटन ...! )
प्रोत्साहन केलिए सभी पाठकों का मैं हृदय से आभारी हूँ। धन्यवाद !
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