सोमवार, 14 मार्च 2011

तुम

उफ़.... ! बहुत देर हो गयी। रजनी के 'रोबोट' का नशा ऐसा सर चढ़ कर बोला कि सूरज चाचू की दस्तक पता ही नहीं चली। सोमवार का प्रात, भाग-भाग कर कार्यालय पहुंचता कि इससे पहले ही एक 'नियमित पाठक' की सूचना मिली कि ब्लॉग पर आज का पोस्ट नहीं है... ! मित्रों, पहले तो विलम्ब के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ अब जल्दी के लिए... जल्दी बोले तो मेरी सरस्वती तो इतनी उर्बरा हैं नहीं कि अभी-के-अभी काव्यश्री का प्रस्फुटन हो जाए। पर यह साप्ताहिक क्रम न खाली जाए, इसीलिए प्रस्तुत वर्षों पहले लिखी गयी मेरी एक 'अबोध' रचना। -- करण समस्तीपुरी


तुम.....


मेरे मन में तुम, स्मरण में तुम,
मेरे ध्यान में आती हो तुम,
मेरे तमसमय मानस में अपनी,
ज्योति बिखराती हो तुम !!


तुम कौन हो ? अयि प्रेरणे मेरी !
मुझे कुछ तो बता !
मेरी चेतने ! तुझे ढूंढ़ पाऊं,
दे मुझे अपना पता !
किस शक्ति से, किस भक्ति से,
अनुरक्ति से आती हो तुम ?
मेरे तमसमय मानस में अपनी,
ज्योति बिखराती हो तुम !!


नैराश्य के सागर में जब भी,
डूबता है मन मेरा !
आता है तट बन कर के तब,
सुस्मित सुखद आनन तेरा !
आती तो रहती क्यूँ नही ?
आ कर के क्यूँ जाती हो तुम ?
मेरे तमसमय मानस में अपनी,
ज्योति बिखराती हो तुम !!

जब भी भटकता हूँ व्यथित,
होकरके मैं अज्ञान में,
पाता हूँ तेरी ही झलक तब,
परमपद निर्वाण में !
मेरी शक्ति ! चिर शाश्वत ! सहज !
मेरा लक्ष्य बन जाती हो तुम !
मेरे तमसमय मानस में अपनी
ज्योति बिखराती हो तुम !!




मेरी श्रृष्टि का सर्वस्व तुम,
मेरी आत्मा, मेरे प्राण हो !
मेरे शब्द हो, मेरे गीत हो,
मेरे गान हो, मेरे तान हो !!
मेरी वन्दने ! मेरी साधने !
मुझको बहुत भाती हो तुम !
मेरे तमसमय मानस में अपनी
ज्योति बिखराती हो तुम !!

*******

21 टिप्‍पणियां:

  1. छायावादी काव्य की ज्योति बिखर रही है इस कविता से... बहुत सुन्दर...

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  2. बहुत भावमयी सुन्दर रचना..

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  3. जब भी भटकता हूँ व्यथित,
    होकरके मैं अज्ञान में,
    पाता हूँ तेरी ही झलक तब,
    परमपद निर्वाण में !waah bhawmai prastuti

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  4. वाह्………… अति उत्तम रचना…………बेहतरीन प्रस्तुति।

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  5. इतनी पुरानी कृति आज भी अपनी ज्योति बिखरा रही है।

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  6. जब भी भटकता हूँ व्यथित,
    होकरके मैं अज्ञान में,
    पाता हूँ तेरी ही झलक तब,
    परमपद निर्वाण में !
    मेरी शक्ति ! चिर शाश्वत ! सहज !
    मेरा लक्ष्य बन जाती हो तुम !
    मेरे तमसमय मानस में अपनी
    ज्योति बिखराती हो तुम !!

    samarpit bhav saheje samarpan bhari kavita.

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  7. मेरी श्रृष्टि का सर्वस्व तुम,
    मेरी आत्मा, मेरे प्राण हो !
    मेरे शब्द हो, मेरे गीत हो,
    मेरे गान हो, मेरे तान हो ..

    इस शक्ति ... इस ऊर्जा को प्रणाम है ....

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  8. करण बाबू! आज तो पण्डित भरतव्यास याद आ गये.. लगा जैसे सुन रहे हैंः
    तुम उषा की लालिमा हो भोर का सिंदूर तुम
    मेरे प्राणों की हो गुंजन, मेरे मन की मयूर तुम.
    बहुत ही सुंदर भावों से सजी कविता!!

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  9. मेरी श्रृष्टि का सर्वस्व तुम,
    मेरी आत्मा, मेरे प्राण हो !
    मेरे शब्द हो, मेरे गीत हो,
    मेरे गान हो, मेरे तान हो !!
    मेरी वन्दने ! मेरी साधने !
    मुझको बहुत भाती हो तुम !
    मेरे तमसमय मानस में अपनी
    ज्योति बिखराती हो तुम !!
    Nishabd kar diya aapne!!

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  10. मेरी वन्दने ! मेरी साधने !
    मुझको बहुत भाती हो तुम !
    मेरे तमसमय मानस में अपनी
    ज्योति बिखराती हो तुम !! ....

    बहुत ही भावुक रचना..... हार्दिक बधाई।

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  11. करन बाबू,
    आपकी कविता पढ़कर प्रसादजी की एक पंक्ति याद आ गयी- उज्ज्वल वरदान चेतना का
    सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं।
    बहुत अच्छी कविता। साधुवाद।

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  12. बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ....आखिर यह प्रेरणा है कौन ?

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  13. मेरी वन्दने ! मेरी साधने !
    मुझको बहुत भाती हो तुम !
    मेरे तमसमय मानस में अपनी
    ज्योति बिखराती हो तुम !!
    --
    बहुत उम्दा!

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  14. कमाल है, अपने रचनाकर्म के शैशव में ही उत्कर्ष को स्पर्श कर आए हो करण बाबू। कविता नहीं लिखी है आपने। यह तो कविता के रूप में आराधना है। इस रचना को देखते हुए हमें आज के करण के रूप को देखकर आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

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  15. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  16. छायावाद का प्रभाव लिए रहस्यवादी रचना।
    (रहस्योद्घाटन ...! )

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  17. प्रोत्साहन केलिए सभी पाठकों का मैं हृदय से आभारी हूँ। धन्यवाद !

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