दृष्टिभेद
-- सत्येन्द्र झा
-- सत्येन्द्र झा
अमीर बाप की बेटी एक गरीब के साथ भाग जाती है। सिनेमा-हाल तालियों की गरगराहट से गूंज जाता है। जमींदार साहब के तेजोमय मुखमण्डल पर प्रसन्नता की रेखा सुस्पष्ट थी।
सिनेमा समाप्त हुआ। जमींदार साहब के घर घुसते ही पत्नी सविलाप कहने लगी, “बेटी दोपहर से ही नहीं मिल रही। लोग कह रहे हैं कि हलवाहे के बेटा के साथ भाग गयी।“
जमींदार साहब की आँखों से ज्वाला फूटने लगी और हाथ दीवार पर टंगी बन्दूक की ओर बढ़ गये।
(मूल कथा मैथिली में “अहींकें कहै छी” में संकलित ’दृष्टिभेद’ से हिन्दी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित)
यही भेद आज के समाज सच्चाई भी है और विडंबना भी। दूसरों के पैमाने से अपना पैमाना पृथक रखना,यही दोमुँहापन समाज में कड़वाहट घोलता है। प्रदर्शित विचार और व्यवहार के सच को नग्न करती बहुत उम्दा लघु कथा।
जवाब देंहटाएंनमन !
सच्चाई यही है. दूसरों कि दुखों परेशानिओं के प्रति असंवेदनशीलता.
जवाब देंहटाएंयही भेद है मनोरंजन व यथार्थ का।
जवाब देंहटाएंदृष्टि को खोलता दृष्टि भेद ...अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंलिखा अच्छा.
जवाब देंहटाएंइन्सान की सोंच ही तो खराब है.
समाज सच्चाई बयान करती इस अच्छी लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंआज के समाज का सच दिखाती लघुकथा।
जवाब देंहटाएंhahaha
जवाब देंहटाएंयह दृष्टिभेद आज के समाज की हक़ीक़त है। अच्छी और प्रेरक लघुकथा।
जवाब देंहटाएंachhi chikshaprad,prerak laghukatha.
जवाब देंहटाएंvastvikta se rubru karati hai.
यथार्थ और मनोरंजन के बीच के फर्क को स्पस्ट करती अच्छी लघुकथा...
जवाब देंहटाएंदृष्टि-भेद इतना सूक्ष्म होता है कि "अपने मन से जानिए पराए मन की बात" मन में नहीं आ पाती।
जवाब देंहटाएंसमान परिस्थितियों में अपने और सामने वाले के बीच भेद रखना दुर्भाग्यपूर्ण यथार्थ है। यह कहानी समाज की इसी सच्चाई को बयान करती है।
जवाब देंहटाएंप्रारम्भ में कहानीपन का अभाव अच्छे कथानक के वजन को तनिक न्यून करता है।
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जवाब देंहटाएंवास्तविकता का ज्ञान करवाती कहानी
जवाब देंहटाएंयह दृष्टिभेद ही तो तमाम क्लेष का कारक है।
जवाब देंहटाएंबस यही तो है....
जवाब देंहटाएंदृष्टिभेद संभवतः जन जन के जीवन और चरित्र का अंग है...
सार्थक कथा....