भारतीय काव्यशास्त्र-58
आचार्य परशुराम राय
इस शृंखला के वर्तमान अंक में पिछले अंक पर पूछे गये प्रश्नों पर विचार कर लेते हैं। उन प्रश्नों को अविकल रूप से नीचे दिया जा रहा है-
“शृंगार के अन्तर्गत वियोग की दस दशाएँ मानी जाती हैं- अभिलाषा, चिंता, स्मरण, गुणकथन, उद्वेग, उन्माद, प्रलाप, व्याधि, जड़ता और मरण।
जबकि आप मरण दशा को संचारी भावों में नहीं गिन रहे।
क्या ‘दशा’ रूप में और भाव रूप में अंतर है? जो शब्द ‘दशा’ रूप में शृंगार परिवार में शामिल है वही भाव रूप में क्यों नहीं?
महाकवि देव का पुष्ट करने के लिए ‘मरण’ अवस्था का मेरी पंजिका में संग्रहित है:
साँसन ही सो समीर गयो अरु आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।
तेज गयो गुन लै अपनो अरु भूमि गई तनु की तनुता करि।
‘देव’ जियै मिलिबेई की आस कि आसहु पास आकास रह्यो भरि।
जा दिन ते मुख फेरि हरे हँसि हेरि हियो जू लियो ह रिजू हरि।
........ आचार्य जी, कृपया स्पष्ट करें।
मैं अबतक जानता था कि जो व्यभिचारी भाव हास के होते हैं वे सभी शृंगार में शामिल हो ही जाते हैं जबकि आप आलस्य को शृंगार से छूट दे रहे हैं। क्या कारण है?”
सर्वप्रथम भाव और दशा को लेते हैं। आचार्य भरत मुनि ने भाव शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की है- 1. भवन्ति इति भावाः, अर्थात होने के भाव और 2. भावयन्ति इति भावाः, अर्थात होने के कारण भाव हैं। उन्होंने भाव की परिभाषा निम्नलिखित प्रकार से किया है-
विभावैराहृतो योSर्थोह्यनुभावैस्तु गम्यते।
वागङ्गसत्त्वाभिनयैः स भाव इति संज्ञितः।।
वागङ्गमुखरागेण सत्त्वेनाभिनयेन च।
कवेश्चान्तर्गतं भावं भावयन् भाव उच्यते।।
नानाभिनयसम्बद्धान् भावयन्ति रसानिमान्।
यस्मात्तसमादमी भावा विज्ञेया नाट्योक्तृभिः।।
अर्थात विभावों और अनुभावों के द्वारा तथा वाणी, अंग एवं पराक्रम के अभिनय से जिस अर्थ का बोध होता है, उसे भाव कहते हैं। (पहला श्लोक)
वाणी, अंग और मुख की अभिव्यक्ति, पराक्रम तथा अभिनय के द्वारा कवि के अन्तर्गत निहित भाव को समझने के लिए प्रेरित करनेवाले को भाव कहते हैं। (दूसरा श्लोक)
नाटक के आयोजकों (अभिनेता, निदेशक आदि) के द्वारा विभिन्न प्रकार के अभिनय से सम्बद्ध होनेवाले इन रसों की जिनके कारण(सामाजिक को) अनुभूति करायी जाती है, उन्हें भाव समझना चाहिए है। (तीसरा श्लोक)
अब दशा क्या है, इस पर विचार किया जाय। शारीरिक या मानसिक अवस्था (stages) को दशा कहते हैं। विप्रलम्भ की दस दशाएँ कोई आवश्यक नहीं कि ये क्रम से आएँ। संक्षेप में भाव मानसिक अनुभूति है, जबकि दशाएँ शारीरिक या मानसिक अवस्थाएँ हैं। दशा को भावानुभूति का परिणाम भी कहा जा सकता है। अतएव ये दोनों एक नहीं हो सकते।
विप्रलम्भ शृंगार की दस दशाएँ मानी गयी हैं, जिसका उल्लेख प्रश्नकर्त्ता ने किया है। कुछ आचार्य ग्यारह दशाएँ मानते हैं, अर्थात अन्तिम दशा मृत्यु या मरण के पूर्व मूर्च्छा नामक दशा का उल्लेख करते हैं। यहाँ मरण या मृत्यु का अर्थ मृत्यु-तुल्य अवस्था या आकांक्षित मृत्यु है, जिसे आचार्य विश्वनाथ कविराज अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण में इस प्रकार लिखते हैं-
रसविच्छेदहेतुत्वान्मरणं नैव वर्ण्यते।।
जातप्रायं तु तद्वाच्यं चेतसाकाङ्क्षितं तथा।
वर्ण्यतेSपि यदि प्रत्युज्जीवनं स्याददूरतः।।
अर्थात यद्यपि कि रस का विच्छेदक होने के कारण मरण का वर्णन नहीं किया जाता है, फिर भी जातप्राय मरण और मन से आकांक्षित मृत्यु की अवस्था का वर्णन कर देना चाहिए। यदि पुनर्जीवित दिखाना हो तो मृत्यु का भी वर्णन किया जा सकता है।
प्रश्नकर्त्ता ने कवि देव की जिस कविता का उल्लेख किया है, उसमें मृत्यु का नहीं बल्कि मरण-तुल्य अवस्था का वर्णन है। इसमें आशा का पूर्णतया अभाव नहीं है। जबतक आशा विद्यमान है, तबतक वियोग की सीमा बनी रहती है। मरण कहकर वियोग की पराकाष्ठा को व्यंजित करना ही अभीष्ट है। यह वास्तविक मृत्यु नहीं है। कवि देव की उक्त कविता में हरि आलम्बन विभाव है और उनका हँसना, मुँह फेरना आदि उद्दीपन विभाव। आँसू बहाना, दुर्बल होना, विवर्ण होना आदि अनुभाव हैं। विषाद, उत्कण्ठा, कृशता, व्याधि आदि संचारिभाव हैं और रति स्थायिभाव।
यदि वास्तविक मृत्यु का वर्णन होता है, तो उसके विभाव और अनुभाव अलग-अलग हो जाते हैं तथा स्थायी भाव शोक होता है एवं तब करुण रस पुष्ट होता है। संचारिभाव का उल्लेख इसमें इसलिए नहीं किया जा रहा है, क्योंकि आचार्य भरत ने स्थायी भावों के अनुसार अनुभावों का वर्गीकरण तो किया है पर संचारिभावों का नहीं। यहाँ करुण रस के उदाहरण के रूप में संत महाकवि तुलसीदास जी का एक पद देखें-
हाथ मींजिबो हाथ रह्यो।
लगी न संग चित्रकूटहु ते ह्याँ कहा जात बह्यौ।
पति सुरपुर सिय राम लखन बन, मुनि ब्रत भरत गह्यौ।
हौं रहि घर मसान पावक ज्यों, मरिबोई मृतक दह्यौ।
मेरोइ हिय कठोर करिबे कहँ, बिधि कहुँ कुलिस लह्यौ।
तुलसी बन पहुँचाइ फिरी सुत, क्यों कछु परत कह्यौ।
इसमें राम का वन जाना आलम्बन, महाराज दशरथ का मरण और भरत का संन्यास उद्दीपन विभाव है। हाथ मलना, पछतावा, विधाता को कोसना, आत्म-निन्दा आदि अनुभाव और वैराग्य, ग्लानि, मोह, स्मृति आदि संचारिभाव हैं। शोक स्थायिभाव है। अतएव यहाँ करुण रस पूरी तरह से पुष्ट होता है।
अब प्रश्नकर्त्ता के अंतिम प्रश्न को लेते हैं। अर्थात हास और शृंगार रसों के व्यभिचारिभाव समान होते हैं। फिर आलस्य क्यों नहीं?
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि संचारिभावों का स्थायिभावों के अनुरूप विभाजन नहीं किया गया है। क्योंकि संचारिभाव स्मृति आदि के द्वारा स्थायिभाव के जल में बुलबुले की तरह उठते मिटते रहते हैं और उसकी अनुभूति को तीव्रतर करते रहते हैं। शायद यही कारण है कि आचार्य भरत आदि ने रति आदि स्थायिभावों के अनुसार इनका वर्गीकरण नहीं किया। पर साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ कविराज ने अपने काव्यावेक्षण द्वारा यह पाया कि काव्य में शृंगार सम्बन्धी वर्णनों में आलस्य संचारिभाव का पूर्णतया अभाव है। अतएव साहित्यदर्पण में उन्होंने प्रत्येक रस के वर्णन में उसके रंग, देवता, स्थायिभाव, विभाव, अनुभाव, संचारिभाव आदि उल्लेख किया है। यहाँ साहित्यदर्पण में दिए गए शृंगार रस के संचारिभाव का उल्लेख नीचे किया जा रहा है-
‘त्यक्त्वौग्र्-यमरणालस्यजुगुप्सा व्यभिचारिणः।‘
अर्थात उग्रता, मरण, आलस्य और जुगुप्सा को छोड़कर अन्य निर्वेदादि इसके (शृंगार रस के) संचारिभाव होते हैं।
ऐसा क्यों होता है, इसका उत्तर देना उतना ही कठिन है, जितना कि यह बताना कि- राम पढ़ता है, क्यों होता है, राम पढ़ती है क्यों नहीं? यदि हम कहें कि राम अन्य पुरुष, एक वचन और पुल्लिंग है, इसलिए क्रिया का भी सबकुछ वैसा ही होगा। तो उनका अगला प्रश्न हो सकता है कि संस्कृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं में तो ऐसा नहीं होता। हाँ, वे (प्रशनकर्त्ता) यदि कोई ऐसा उदगहरण दें, तो उनकी बात मानी जा सकती है। वैसे पढ़ाते समय छात्रों की सुविधा के लिए प्रायः अध्यापक बताते हैं कि शृंगार रस और हास्य रस के संचारिभाव लगभग समान होते हैं। इसका अर्थ कदापि नहीं है कि थोड़ी भी भिन्नता नहीं हो सकती।
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उपयोगी/जानकारीपरक पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंसुंदर जानकारी. आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी जानकारी है। शास्त्री जी की कलम को नमन।
जवाब देंहटाएंसुंदर जानकारी.
जवाब देंहटाएंबहुत ही जानकारीपरक ज्ञानवर्धक पोस्ट !
जवाब देंहटाएंvery informative and useful post .
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