बुधवार, 23 मार्च 2011

देसिल बयना – 73 : भैंस के आगे बीन बजाए, भैंस रही पगुराय

देसिल बयना – 73 : भैंस के आगे बीन बजाए…Keshav

-- करण समस्तीपुर

“ए मिसिरजी तू तऽ बारु बड़ा ठंडा.... !” हा...हा...हा.....हा.... का लचकदार ठुमका है ! एकदम से सोनपुर मेला वाला थेटर याद आ गया। सच्चे में ई कम्पूटरवा भी कमाल का चीज है। गाना-विडियो सब चला देता है। घर रहो या दूर रहो... मुम्बई या बंगलूर रहो... सात समुंदर पार भी... बस एक बार क्लिक करो और लहरिया लूटो ए राजा............ !

गाना देखते-सुनते अपने गांव के फ़गुनी मिसिर याद आ गये। “ए मिसिरजी.... तु तऽ बारु बड़ा ठंडा.....!” मिसिरजी सच में बड़ा ठंडा थे... गीत वाला ठंडा नहीं रीत वाला.... एकदम कूल। सब कुछ ठंडा दिमाग से सोचते थे। रेवाखंड के चौहद्दी में उनके जोर का पंडित नहीं था। हमरे बाबा बताते थे, फ़गुनी मिसिर थे तो लिख लोहा पढ पत्थर लेकिन उनके बुद्धियारी का किस्सा दूर-दूर तक प्रचलित था। गांव-जवार में जौन कोई समस्या हो, फ़गुनी मिसिर चुटकी बजाते हल कर देते थे। भूत-परेत, सांप-छुछूंदर, बाय़ु विकार, अधकपारी के झार हो कि पचनौल की गोली-आंवला का सत्त... पोथी-पतरा... खेती-पथारी... फ़गुनी मिसिर कने चले जाओ। सब काम चोखा।

आदमी तो आदमी माल-मवेशी की भी भाषा बूझते थे मिसिरजी। कुक्कुर घर के पिछवारी में मुंह उठा के ऊं...ऊं... कर रहा है... जरूर अनिष्ट का लक्षण है। बकरी बांया दिश मुंह कर के जुगाली कर रही है.... ओ... इहां तो भारी चुगली दिख रही है। मिसिरजी ऐसे ही पशु-पक्षियों की भाव-भंगिमाओं का रहस्य भी आँख बंद करके बता देते थे। सगरे परगना में उनका बहुत आदर था।

एगो कहावत है, रमता जोगी-बहता पानी। ई दोनो का कोई ठौर-ठिकाना नहीं है। कहीं से कहीं पहुंच जाय। ऐसेही एक दिन रेवाखंड में एगो बसुरिया बाबा पहुंच गये। गेरुआ वस्त्र, कांधे में लंबी झोली, बड़ी-बड़ी भंगियाई आँखे, कमर में खूब मोटगर, गज भर के बंसुरी बांधे हुए और एगो छोटकी बांसुरी पर “मोर भंगिया के मनाय दे हो भैरोनाथ...” की धुन टेरते हुए रेवाखंड के गली-गली में घुमते रहे। बाबा खुद को काशी के घोटन महराज का शिष्य बता रहे थे। कहते थे संगीत में अभियो उ शक्ति है कि दीप जल जाये, झमाझम मेघ बरसने लगे, फूल खिल जाये। कमी है तो सिरिफ़ सच्चे साधक की। उनका दावा था कि उ बांसुरी पर राग मियां-मल्हार टेर के चौकीदार को भी सुला सकते हैं और भैरवी से बोरी भर भांग खाके सोया हुआ नशेरी को भी जगा सकते हैं। संगीत में सभी रोगों का इलाज है। आदमी ही नहीं पशु-पक्षी, पेड़-पौधे भी संगीत का आनंद लेते हैं।

दहकन झा फ़गुनी मिसिर से खार खाये रहते थे। झाजी अपना भर जुगार तो खूब बैठाते थे। मगर फ़गुनी मिसिर की चलाकी का काट नहीं ढूंढ पाये थे। बंसुरिया बाबा का दावा सुन उनकी आँखे चमक उठी। दंडवत करके बाबाजी को अपनी कुटिया पर ले आये। वहीं ओसारे पर बाबाजी का आसन लग गया। झाजी सिर्फ़ पंडिताइन को बाबा की महिमा सुनाए थे। अगले ही दिन से अपने आप पूरा गांव में प्रचार हो गया। दहकन झा के द्वार पर काशी के बंसुरिया बाबा आये हैं। पकिया जोगी हैं। बांसुरी के एक फूंक में कौनो समस्या सुलझा देते हैं।

अगले दिन मिसराइन मिसिरजी से बतिया रही थी, “आप उ टोला नहीं जाइएगा। दहकनमा पता नहीं कौन जनम का बैर साधे बैठा है। कौनो जोगी-मशानी को बैठा लिया है, आपही से बदला लेने के लिये।“ मिसिरजी मिसराइन को प्रेम से दुत्कारते हुए बोले थे, “धुर्र बुरबक... औरत जात महाडरपोक.. अरे काशी के रहे कि मथुरा के... फ़गुनी मिसिर के आगे कैसन-कैसन पंडित खंडित, ज्योतिषी जोकटी और जोगी भोगी हो गये... ! देखते हैं ई दहकनमा का मौसा कितना दिन टिकता है।" मिसिरजी बेपरवाह चंदन-टीका झार के निकल गये थे।

धीरे-धीरे फ़गुनी मिसिर का यजमान दहकन झा के घर तरफ़ मुड़ने लगा तो मिसिरजी को चिंता हुई। अब मिसिरबुद्धी लगाना ही पड़ेगा। मिसिरजी हाट-चौपाल, डीह-दरबार सब में लगे कहने, “जैसने दहकन झा डपोरशंख है वैसने उ ठग जोगी। पाखंडी है...सौ झूठा का एक झूठा...।" इधर पनघट-पोखर, आंगन-दलान का मोर्चा मिसराइन के हाथ में था।


होते-होते बात एक दिन इहां तक पहुंच गयी कि आखिर काहे नहीं फ़गुनी मिसिर बंसुरिया बाबा से आमने-सामने कर लेते हैं। मंगल के सांझ में ब्रह्म थान में चौपाल बैठा। मिसिरजी का दावा कि उ पशु-पक्षी का भाषा और भाव समझते हैं और बंसुरिया बाबा का दावा कि पशु-पक्षी भी उनके संगीत को समझते हैं। मिसिरजी अपनी विद्या के पक्ष में तर्क और उदाहरण दिये। बोले हम कोई जादुगर या सर्कस के मदारी नहीं हैं। आज तक जो भी किये हैं गांव-समाज की भलाई के लिये किये हैं। आप-सब लोग हमरी विद्या के साक्षी हैं।


बंसुरिया बाबा बोले, “संगीत की शक्ति भी किसी से छिपी नहीं है। आज भी बादलराग पे जंगल में मोर नाच उठते हैं। हवा के ताल पर पेड़-पौधे तक झूमने लगते हैं....!” मिसिरजी बाबा के प्रलाप को बीच में ही काटते हुए बोले, “ई कवित्त काढना छोड़िये... जंगल-मंगल का बात क्या करते हैं....? अगर आपको भी अपनी बांसुरी पर उतना ही भरोसा है तो इहां दिखा दीजिये... हम भी तो देखें कि कौन पशु-पक्षी आपका संगीत पर नाचता है। हाथ कंगन को आरसी क्या...? क्यों सरपंच बाबू...?”


सरपंच बाबू के हां में सर हिलाते ही बंसुरिया बाबा भी चुनौती स्वीकार कर लिये। झोली से एक गोली निकाले और हर-हर महादेव का उद्घोष कर गटक के उपर से कमंडल का पानी गरगरा दिये। फिर हुंकार कर बोले, “बोलो किस पशु-पक्षी पर आजमाईश करनी है?”

अगल-बगल में नजर दौड़ाए पर सबसे पहिले दिखी बुद्दर दास की भुल्ली भैंस। मिसिरजी मुस्कुराते हुए हाथ से इशारा किये, “यही रही...!” फिर सरपंच बाबू के हुकुम पर बुद्दर दास भैंस को लाके पीपल के जड़ में बांध दिया। भैंस सानी-पानी खाकर एकदम टुन्न थी। आराम से बैठकर 'फूं-फां’ करने लगी। फ़गुनी मिसिर चुपचाप थे लेकिन दहकन झा मुंछ पर ताव दे रहे थे।


बंसुरिया बाबा एक बार सिर को सहला कर बोले, “बोलो बाबा घोटन महराज की जय” और बांसुरी को होठों से लगा कर भैंस के सामने बैठ गये। एक राग टेरे। फिर दूसरा... फिर तीसरा...! मगर भैंस तो कान तक नहीं हिलाई। अब दहकन झा के मूंछों के ताव ढीले पर रहे थे और फ़गुनी मिसिर के होंठ फैले जा रहे थे। सहसा बंसुरिया बाबा ठमककर बोले, “तेरी जात के मच्छर काटे.... ई ससुरी भैंस की चमरी ही मोटी होती है... बांसुरी की मीठी आवाज़ क्या समझेगी ? इसके लिये तो बीन निकालना पड़ेगा... !”


बाबाजी पलट के अपनी झोली से बीन निकाल लिये। दहकन झा की बुझ रही आँखों में फिर से चमक लौट गयी तो फ़गुनी मिसिर फूट पड़े, “अरे बांसुरी और बीन का करेगा... असर संगीत में ना होना चाहिये... काहे झूठे-मूठे भैंसिया को तबाह कर रहे हैं... ? पूरा रेवाखंड देख लिया आपकी बाजीगरी। अब अपना बोरिया-बिस्तर समेटिये और काशी का रस्ता नापिये।" मगर सकल सभा के आग्रह पर बाबा भैंस के सामने घुमा-घुमा कर बीन बजाने लगे। ठीक उसी तरह जैसे सपेरा सब सांप के आगे बजाता है, “मन डोले... मेरा तन डोले... पींईंईंईंईंईंईं....!”

बीच में भैंस एकाध बार कान पटपटाई तो बाबाजी और गाल फूला-फूला कर बीन को पोपियाने लगे। दहकन झा भी गीध के तरह गरदन उठा कर चारों तरफ़ देखे थे। “पीं...पीं... पींईंईंईंईंईंईं.....!” बाबाजी आधे घंटे तक बीन बजा-बजा के घाम-पसीना से नहा गये मगर भैंसिया काहे एक बार पूंछ भी हिलायेगी...? बेचारे बाबाजी इधर बीन बजाते रहे और भैंस उधर मुंह घुमा कर पांगुर (जुगाली) करती रही। अंत में बाबाजी थक कर उठ गये। सभा फ़गुनी मिसिर का फिर से गुणगान कर उठी तो मिसिरजी की खुशी छलक पड़ी, “हा..हा...हा... पशु-पक्षी भी ठग बाबा का संगीत समझते हैं....। बांसुरी से हारे तो आए बीन लेके पशु को नचाने। 'भैंस के आगे बीन बजाए और भैंस रही पगुराय’। बेचारे बाबाजी भैंस के आगे बीन बजाते-बजाते घाम-पसीने होगये और भैंस आराम से पांगुर करती रही।

रेवाखंड में एक बार फिर फ़गुनी मिसिर का लोहा माना गया। मिसिरजी का नाम फ़गुनी नहीं महागुणी होना चाहिये। मिसिरजी भी कलेजा फूलाकर घर लौटे। रात को मिसराइन प्यार से गोरस-भात परोस कर पंखा झलते हुए सगर्व बोली थी, “उ जोगड़ा सच्चे में भारी झूठा था ना...?” मिसिरजी बोले, “झूठा था कि सच्चा सो तो राम जाने मगर हम एतना ही कह सकते हैं कि ससुर अव्वल दर्जा का बेवकूफ़ था।”

मिसराइन कनिक सहमकर बोली, “तो आप रिस्क काहे लिये...? कहीं भैंसिया नाचने लगती तो...?” मिसिरजी फिर से बोले थे, “धुर्र बुरबक...! तुम भी उसी पोंगापंथी बाबाजी की बहिन लगती हो...! अरे बीन के धुन पर नागिन नाचती है भैंस नहीं। मतलब कि कोई भी विद्या या कला सुपात्र पर ही प्रभावी होती है। कुपात्र के सामने सारी विद्या का घड़ीघंट बज जाता है। घी आग में डालने से न ज्वाला फेंकता है... गोबर में घी डाल दोगी तो उससे क्या... घी की बरबादिये है न... ! यही उ बुद्धु बाबाजी किहिस... “भैंस के आगे बीन बजाए तो भैंस रही पगुराय!” मिसिरजी प्रवचन समाप्त कर आज चैन से भोग लगाने लगे।

18 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया,बहुत बढ़िया-
    "जस दूलह तस बनी बराता"
    लगता है करन बाबू का भाँग उतर गया है। बड़ा चैतन्य होकर लिखे हो भाई। साधुवाद, साधुवाद।

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  2. ज़बरदस्त मज़ेदार /बहुत बढ़िया है.

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  3. कथानक बहुत अच्छा लगा। सरस, सुबोध और प्रवाहमान। आभार

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  4. जितनी जिसकी सोच है, उतनी समझ में आय !
    भैंस के आगे बीन बजाये, भैंस खड़ी पगुराय !

    करन जी,
    इतना अच्छा लिखते हैं कि कुछ कहने को शब्द भी कम पड़ जाते हैं !आज का देसिल बयना
    गज़ब ढा रहा है !शब्द,शिल्प,भाव,अभिव्यक्ति सभी जैसे तराश कर जड़े गए हैं !
    आभार !

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  5. ई किस्सा तऽ बारु बड़ा चोखा...
    बड़ा नीक लागल....
    हार्दिक बधाई।

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  6. केशव जी कथा के पात्र से पूरी पृष्ठभूमि का परिचय हो जाता है और यह काम सबसे पहले शेक्सपीयर ने शुरू किया था बाद में यह चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास में बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत हुआ .. खास तौर पर 'हार्ड टाइम्स' नावेल में... आपके सभी बयना में जो पात्रों के नाम होते हैं वे अपनी पृष्ठभूमि को साथ लिए होते हैं... इस पर एक अलग से पोस्ट लिखूंगा यदि लिख पाया तो.... इस लिहाज से फागुनी मिसिर जी.. दहकन झा... आदि आदि पात्र कालजयी हो जायेगे एक दिन...

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  7. बेहतरीन प्रस्तुति....करण बाबू का यही तो लालित्य है...

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  8. आगत-अनागत सभी पाठकों को हृदय से धन्यवाद !

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  9. ab ka batayen apakaa desil bayana ke baare men. ek ek character aankh ke samane batiyaataa huaa bujhata hai.. lagata hai ki bachapan kaa bhulaayel aapake yahaan bhentaayaa hai.. bayana chaahe sunal ho chahe bina sunal.. magar jo khissa aap gadhate hain oo sachchhat sinema jaisa lagata hai..

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  10. @ चला बिहारी...
    युप्पीईई...... सलिल चचा आ गए..... हिप-हिप हुर्रे..... ! मतलब आजका देसिल बयना सफल !

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  11. असल मे भेंस बहरी थी:)बहुत मस्त लेख जी धन्यवाद

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  12. देसिल बयना अलग ही सुगंध रखता है ...पढते पढते सच ही ऐसा लगता है कि यह सब सामने हो रहा है ...बहुत बढ़िया ...

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  13. सरस, सरल शैली में मज़ेदार कथानक को बुनकर देसिल बयना के मर्म को हम तक पहुंचाया है आपने।
    रोचक प्रस्तुति।

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  14. मजेदार कहानी गढ़ी है करण जी। देसिल बयना की रचना में आपकी जितनी तारीफ की जाए कम है। बहुत बहुत बधाई।

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  15. एक बार फिर सभी पाठकों का शुक्रिया!

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