शनिवार, 12 मार्च 2011

फ़ुरसत में …. साधुवाद!

फ़ुरसत में ….
साधुवाद
-आचार्य परशुराम राय
भारतीय काव्यशास्त्र की पिछली एक पोस्ट पर बड़े ही एक प्रतिभाशाली, विद्वान और प्रबुद्ध पाठक ने दो प्रश्न उठाए थे। उनकी अपेक्षा थी कि मैं उनके प्रश्नों का उत्तर दूँ। हमारे इस मित्र में छिद्रान्वेषण की भी बड़ी अद्भुत प्रतिभा है। ये पेशे से अध्यापक, अर्थात् आचार्य हैं और मैं तो केवल डिग्री-होल्डर आचार्य हूँ। इस ब्लाग पर विशेषकर भारतीय काव्यशास्त्र शृंखला पर उनके अवतरण का उद्देश्य दोषान्वेषण ही दिखा। इनकी इस अद्भुत प्रतिभा से मैंने बहुत कुछ सीखा। शायद इसीलिए महान संत कबीरदास जी ने कहा है:-
निन्दक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना निरमल करे सुभाय॥
ये जो प्रश्न करते हैं, ऐसा नहीं कि उनके उत्तर वे न जानते हों। ये जागते हुए सुप्त होने का अभिनय करते हैं और अपने ब्लॉग पर अपनी समझ के अनुसार मेरी कमियों को प्रकाशित भी करते हैं। एक दिन उनका ब्लाग देखा तो पाया कि मेरी चर्चा उस पर की गई है। मैने उनकी गलतफहमी दूर करने के लिए टिप्पणी दी। बाद में देखा कि मेरी टिप्पणी पर उनकी प्रतिटिप्पणी भी लगी हुई थी कि अपनी “साहित्यिक गुंडई” से वे मुझे अपने ब्लॉग पर आमंत्रित करने में सफल रहे।
यह प्रति-टिप्पणी पढ़कर मुझे हँसी आयी। अपने ब्लॉग पर साहित्यिक गुंडई से मुझे आमंत्रित करने का प्रपंचपूर्ण तरीका हास्यास्पद है या प्रशंसनीय, मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ, वह भी एक अध्यापक द्वारा। इस अवसर पर बचपन में पढ़ा हुआ संत महाकवि तुलसीदास जी का एक दोहा याद आ रहा है-
देखत हि हरस्यो नहीं, नैनन नहीं सनेह।
तुलसी वहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह॥
तभी से मन पर इस दोहे का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि यह मेरी जीवन पद्धति का एक अंग बन गया। इसके कारण अपने जीवन में मुझे अनेक बार लोगों का अकारण कोप-भाजन भी बनना पड़ा। लेकिन आदत बदल न सकी।
जब इनकी प्रवृत्ति समझ में आ गयी, तो बीच में मैंने इनके प्रश्नों का उत्तर देना बन्द कर दिया था। एक दिन और ये अपने प्रश्नों के साथ तथाकथित साहित्यिक गुंडई करने आ पहुँचे। कोई प्रत्युत्तर न पाकर दोबारा आकर ललकार गए। मैंने सोचा चलो मौन थोड़ा ढंग से तोड़ा जाये। इसी मौन भंग से उत्पन्न यह अंक आपके समक्ष प्रस्तुत है।
1981 में आचार्य करने के बाद कुछ ऐसा हुआ कि शास्त्रों से सम्पर्क लगभग नहीं के बराबर रहा। प्रिय मित्र श्री मनोज कुमार जी के परामर्श के अनुसार भारतीय काव्यशास्त्र शृंखला का श्रीगणेश तो किया, लेकिन केवल आत्मविश्वास ही भूली विद्या पर विचार करने के लिए पर्याप्त नहीं है। उसे चाहिए शास्त्रों का पुनरालोचन। क्योंकि हमारे यहाँ संस्कृत में कहावत है - अनभ्यासे विषमं शास्त्रम्, अर्थात् अभ्यास के अभाव में शास्त्र विषम (कठिन) हो जाते हैं बहुत खोजने के बाद कुछ पुस्तकें मिलीं और यह भारतीय काव्यशास्त्र की शृंखला शुरू हुई। यदि कहीं मेरे विचार से पाठक सहमत नहीं हैं, तो उनके सुझाव आमंत्रित है और उन्हें मैं हृदय से स्वीकार करता हूँ और करूंगा भी। जो कुछ इस शृंखला के अन्तर्गत लिखा जा रहा है, वे मेरे मौलिक लेख नहीं हैं, अर्थात् मेरे स्वयं के अपने विचार नहीं हैं। बल्कि शास्त्रों को पढ़ने के बाद उन्हें अपनी समझ से अपनी भाषा में मैं पाठकों के समक्ष रखता हूँ। यदि कहीं मैं गलत हूँ, तो संदर्भ सहित पाठक उसका अवश्य संकेत करें और इसके लिए मैं उनका कृतज्ञ होऊंगा। लेकिन यह साहित्यिक गुंडई का अंदाज मुझे कतई पसन्द नहीं है और मैं समझता हूँ कि कोई भी सुबुद्ध रचनाकार इस प्रकार की हरकत को पसन्द नहीं करेगा।
इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ वैचारिक दिवालियापन और आलस्य के उत्कर्ष को रेखांकित करती हैं। ऐसे लोगों को प्रायः मानसिक संग्रहणी की शिकायत रहती है। इसमें कब्ज और अतिसार एकांतर क्रम से (alternately) होते रहते हैं। इसका रोगी सदा परेशान रहता है। इनमें प्रतिस्पर्धा की भावना दौड़ लगाने से कतराने लगती है और ईर्ष्या इतना शोर मचाती है कि और कुछ सुनाई ही नहीं देता। जिन मित्र की मैं चर्चा कर रहा हूँ, वे किसी भी साहित्यिक विषय पर लिखने में सक्षम हैं और लिख सकते हैं, आशुकवि भी हैं। पर लिखने में व्यस्त हो जाने से दूसरों पर अंगुली उठाकर मौज-मस्ती करने का समय नहीं मिलेगा। अतएव मानसिक कब्ज के शिकार नहीं होंगे और तब मजा नहीं आएगा। क्योंकि कुछ लोगों को बीमारी की आदत हो जाती है, उसके बिना ऐसे लोगों का जीवन उनके लिए बोझ सा लगने लगता है।
ऐसे लोगों पर मुझे तरस आता है, क्रोध नहीं आता। अतएव आप पाठकों से मेरा सविनय अनुरोध है कि आप भी इनसे घृणा न करें, इन्हे साधुवाद दीजिए। क्योंकि ये अपमान का स्वाद चखाकर हमारे ऊपर उपकार करते हैं। कुछ इसी प्रकार का संदेश परमपूज्य स्वामी विवेकानन्द जी ने दिया है।
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21 टिप्‍पणियां:

  1. साधु-साधु ! हरि-हरि !!

    सर्वे भवन्तु सुखिन:....। हे इश्वर ’इस’ संग्रहणी से सबको बचाना ।

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  2. शांति शांति ..... क्रोध अक्ल को खा जाता है

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  3. वाह..क्या खूब लिखा है आपने।
    बहुत प्यारी रचना !

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  4. और कुछ नहीं , पृथक दृष्टिकोण और विचारों को अपने -अपने ढंग से समझने का अंतर भर है ...
    आपके श्रमसाध्य कार्य के लिए साधुवाद !

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  5. "साहित्यिक गुंडई" । वाह ! क्या शब्द गढ़ा है। मानसिक उर्वरता की दाद देनी पड़ेगी। लेकिन क्षमा के साथ कहना चाहूँगा कि यह गुंडई साहित्य को आगे ले जाने के बजाय उसे कलंकित ही करेगी। मुझे विश्वास है पाठकगण अपने नीर-क्षीर विवेक से साहित्य की रक्षा करने में समर्थ होंगे। शुभकामना सहित,

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  6. .

    आचार्य परशुराम जी ,

    आपके लेखों से हमेशा ज्ञानवर्धन ही हुआ है मेरा। इसके लिए सदैव आपकी ऋणी रहूंगी।

    ब्लॉगजगत पर कुछ लोगों के द्वेषपूर्ण रवैये के कारण एक बार मन यूँ ही उदास हुआ था तो ये लेख लिखा था ।

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    निदक नियरे राखिये , आँगन कुटी छवाय -- Beware of critics

    http://zealzen.blogspot.com/2010/12/beware-of-critics.html

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  7. वर्णित परिस्थितियों में भी आपका धैर्य,आपकी सरलता और सहजता अनुकरणीय है.मनोज जी की पूरी टीम लाजवाब है. हर हीरे को सलाम.

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  8. हरीश गुपता जी ने सही कहा। ये वो लोग हैं जो हमारे वेद पुराणों के दुशमन हैं जो इस विद्द्या से डरते हैं और जिनके पास इसके तुल्य ग्यान नही। आपका ये श्रमसाश्य कार्य प्रशंसा योग्य है। नही तो आने वाली पएएढी कहाँ से सीख पायेगी। मेरे जैसे बूढे लोगों को भी इस विद्या का आज तक ग्यान नही था। इसका और प्रचार प्रसार करने की भी बहुत आवश्यकता है। आप बहुत सार्थक कार्य कर रहे हैं करते रहें। अच्छे काम करने वालों की ही नुकताचीनी होती है जो कुछ करता ही नही उसे कोई क्या कहेगा। इस से पता चलता है कि आप एक अच्छा काम कर रहे हैं। बहुत बहुत शुभकामनाये, साधुवाद।

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  9. विरोध का यह तरीका बहुत ही शालीन, शिष्ट और सुसंस्कृत है। मर्यादित और संयमित भाषा में व्यंजना शैली में लिखी गई यह पोस्ट शालीनता से विरोध के मानक भी तय करती है।

    साधुवाद

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  10. साधुवाद के लिए साधुवाद!

    मैं परशुराम जी को नज़दीक से जानता हूँ. वे 'परशुराम' हैं 'राम' नहीं हो सकते. आयुध निर्माणी हैदराबाद का एक अनुभूत प्रसंग सुनाते हुए एक बार उन्‍होंने ऐसा कहा था. प्राय: साहित्‍य के क्षेत्र में देखने में आता है कि सोच और सृजन
    कम,टॉंग खींचाई अधिक की जाती है. वह भी क्रुद्धभाव और अशोभनीय अंदाज में. यह एक बड़ा कारण है हमारे साहित्‍यिक क्षेत्र के संकुचन और गिरावट का. इसी प्रकार की खेमेबाजी और साहित्‍यिक गुंडाई के चलते कई विद्वान किनारे ही
    रह जाते हैं शायद 'श्री जानकीवल्‍लभ जी शास्‍त्री' इसका जीवन्‍त उदाहरण है.

    राय साहब का एक प्रसंग और भी याद आता है, उन्‍होंने कहा था कि 'काशी का गधा भी विद्वान होता है'. बहुधा यही अनुभव हुआ कि हमारे यहॉं लोग किसी विषय पर साधिकारपूर्वक यूँ बात करते हैं जैसे वे उसमें माहिर या विशेषज्ञ हों.

    खैर जब काशी शास्‍त्रों और साहित्‍य सृजन का केन्‍द्र रहा है तो स्‍वाभाविक है कि सुन-सुनकर जड़मति भी सुजान हो ही जाती है. शायद इसीलिए भी संत कबीर 'मगहर मरे सो गधा होई' सुन-सुनकर गलत साबित करने अपने अंत समय में काशी छोड़
    मगहर चले गये थे. राय साहब भी सृजन के लिए काशी नहीं कानपूर में डटे हैं. साधुवाद के लिए साधुवाद!

    होमनिधि शर्मा

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  11. आचार्य जी,
    आपने बिना नाम लिये मेरा ही उल्लेख किया है. फिर भी आपने मेरे पिछले प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये.
    चलिए मैं केवल क्षमा ही माँग लेता हूँ. पाठक उन्हें देखकर स्वतः अनुमान लगाएँ कि मैंने क्या अनुचित पूछा?
    मैं जिन प्रश्नों में खुद उलझ जाता हूँ क्या उन्हें पूछना अपराध है?
    मैं अपने ऐसे गुरु को यदि अपने घर पर देखकर प्रसन्न होता हूँ तो यह भी गुनाह है.
    कोई गुरु अपने चुनिन्दा ब्लॉग के अलावा किसी ब्लॉग पर न जाये तो उनके लिये तो भक्त योजना ही बनाएगा ना!
    मैं अध्यापक कतई नहीं, रोजगार की तलाश में हूँ.
    मैं आचार्य परशुराम जैसे आचार्य से हमेशा जुड़ने की सोचता रहता था.
    क्योंकि कोलिज के समय मेरी हानि मेरे ही आचार्यों ने की,
    डॉ. तारकनाथ बाली, डॉ. महेंद्र कुमार, डॉ. कृष्ण दत्त पालिवोल आदि आचार्यों ने मुझे कभी प्रश्न का अवसर ही नहीं दिया.
    क्या करता आचार्य जी, कहाँ जाता अपने प्रश्नों की खोज में,
    मैंने कुछ नवीन अलंकार गढ़े, उन्हें यह कहकर खारिज करते रहे कि
    आज समय नहीं हैं अलंकारों में नये अनुसंधान करने का.
    मैंने यही जाना कि 'मैं कुतर्की हूँ, मैं छिद्रान्वेषी हूँ.
    यदि आप जैसे आचार्य भी मुझे उत्तर नहीं देंगे तो
    कई प्रश्न निरुत्तरित रह जायेंगे.
    अब कभी नहीं आऊँगा आपके ब्लॉग पर. यही समझ में आया है.
    मैं तो अब तक अपने खाली समय को भरने का प्रयास ही करता रहा.
    क्षमा के साथ. चरणस्पर्श

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  12. कमाल का तरीका है साधुवाद का।

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  13. .

    आदरणीय परशुराम जी ,

    जहाँ तक मैं समझती हूँ , आप और प्रतुल वशिष्ठ जी , हिंदी ब्लॉगजगत के दो अनमोल हीरे हैं , जो अपनी सशक्त लेखनी से हिंदी साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं।

    प्रतुल जी की टिपण्णी से ये स्पष्ट हो रहा है की उनके ह्रदय में आपके लिए बहुत सम्मान है। मेरे विचार से प्रतुल जी की ये एक मासूम सी और स्वाभाविक सी अपेक्षा थी की आप जैसा एक विद्वान् व्यक्ति उनके ब्लॉग पर भी आये , उनकी जिज्ञासाओं को भी शांत करे । आपके आने से निश्चित ही कोई भी ब्लॉगर खुद को सौभाग्यशाली समझेगा ।

    प्रतुल जी का वक्तव 'साहित्यिक गुंडई से अपने ब्लौग पर बुलाया ' मेरी समझ से ऐसा है , जैसे कोई बालक प्यार और अधिकार से किसी अपने की अंगुली पकड़कर जबरदस्ती अपने घर ले जाता है ।

    आचार्य जी , आपका स्नेह मुझे हमेशा मिला है । एक निवेदन कर रही हूँ , प्रतुल जी को अपने स्नेह और आशीर्वाद से वंचित मत कीजियेगा ।

    -------------------

    आदरणीय प्रतुल जी ,

    आपने लिखा की आप इस ब्लॉग पर कभी नहीं आयेंगे। ये बात उचित नहीं । अच्छे लोगों को परस्पर एक दुसरे के विमर्श में शामिल होते रहना चाहिए । अपनों की बात का क्या बुरा मानना ।

    आप दोनों का मन आहत है , मेरी दिली ख्वाहिश है की आप दोनों के बीच की ग़लतफहमी दूर हो जाए और परस्पर स्नेह कायम हो।

    .

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  14. ओशो सिद्धार्थ कहते हैं-
    "प्रतिक्रिया कभी हो,तो समझो, तुमने घटना को मूल्य दिया
    थी लहर ज़रा सी,लेकिन तुमने,सागर सा बहुमूल्य किया"

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  15. आदरणीय राय जी साधुवाद का यह अहिंसक तरीका अच्छा लगा... उस ब्लॉग का लिंक भी देते तो पता लगता सारा वाकिया.. वैसे निंदक को निकट रखना ही चाहिए...

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  16. सहमत हे जी आप के विचारो से, धन्यवाद

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  17. देर से पंहुचा हूँ , पिछले अंक भी पढ़ा . साहित्यिक गुंडई का प्रेमपूर्वक विरोध आचार्य से अपेक्षित था और वही हुआ .

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  18. दिव्या जी,आपकी सलाह अच्छी है। वैसे प्रतुल जी के प्रति मेरे अन्दर कोई दुर्भावना नही है। उनके प्रश्नों के उत्तर के लिए दिन निर्धारित था। मैंने उन्हें वचन दिया था कि क्लास समय से लगेगा। उनके प्रश्नों का उत्तर इतना लम्बा था कि प्रति-टिप्पणी के माध्यम से सम्भव नहीं था। रविवार, अर्थात 13-03-2011, को भारतीय काव्यशास्त्र का अंक उनके प्रश्नों को समर्पित किया गया।

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  19. .

    परशुराम जी ,

    आपसे ऐसी ही अपेक्षा थी ।
    हार्दिक आभार।

    .

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