समीक्षा
आँच-60
हरीश प्रकाश गुप्त
इसी माह इसी ब्लाग पर मनोज कुमार जी की एक लघुकथा प्रकाशित हुई थी – “मजनूँ कहीं का” सतही तौर पर साधारण सी दिखने वाली यह कथा अंत में आकर यू टर्न ले लेती है। जो पाठक पहले इसे सपाट बयानी समझ रहे होते हैं यह उन्हें उद्वेलित करते हुए समाज में पैठ बना चुके विकार के प्रति चिन्तन-मनन करने के लिए विवश करती है। लघुकथा की इसी विशिष्टि ने इस पर दो शब्द लिखने के लिए प्रेरित किया। सो आज की ‘आँच’ में चर्चा के लिए मनोज कुमार जी की इस लघुकथा “मजनूँ कहीं का” को लिया जा रहा है।
लघुकथा का प्रारम्भ किंचित उत्सुकता से होता है कि मास्टर मुचकुंद नाथ की नजरें किसे और क्यों खोज रही हैं। लेकिन, जैसे-जैसे यह अपने विकास की ओर अग्रसर होती है, इसकी भावूभूमि सहज प्रतीत होने लगती है। कक्षा में कोई छात्र-छात्रा पढ़ाई में ध्यान केंद्रित करने के बजाय इश्क फरमाए तो यह न तो विद्यालय की मर्यादा है और न ही छात्र का धर्म। कक्षा में छात्र-छात्राओं की समस्त गतिविधियों पर नजर रखना, इश्कबाजी में संलिप्त छात्र को मय सबूत पकड़ने तक मास्टर जी आदर्श के प्रतिरूप दृष्टिगत होते हैं। क्योंकि विद्यालय विद्या का मंदिर है और वहाँ छात्रों में नैतिकता, मर्यादा तथा धर्म के बीज रोपे जाते हैं। परंतु, यदि किसी अध्यापक की कक्षा में प्रेम प्रसंग चल रहे हों तो अध्यापक द्वारा संलिप्त को रंगे हाथ पकड़ते समय उसकी अत्यधिक चपलता और उक्त छात्र के अमर्यादित आचरण के प्रति उसे समस्त कक्षा के समक्ष शर्मिन्दा करने की हद तक चिट्ठी का जोर-जोर से बाँचना और सबक सिखाने हेतु उसकी जमकर पिटाई करना आदि कृत्य कुछ असामान्य से लगते हैं। उसका अतिशय आवेश में आना भी अस्वाभाविक सा लगता है। क्योंकि कोई भी संवेदनशील अध्यापक इस तरह की घटना होने पर पहले-पहल उन्हें एकान्त में समझाने का ही प्रयास कर उनका मार्गदर्शन करना चाहेगा न कि इसे सार्वजनिक उन्हें उत्तेजित करने का कार्य करेगा। कथा यहाँ संशय उत्पन्न करती है।
कथा अंतिम पैरा में अपने उत्कर्ष पर पहुँचती है जब मास्टर मुचकुंद नाथ अपने सहकर्मी अध्यापकों को अपनी उपलब्धि के बारे में बताते हैं। यहाँ अंतिम पंक्ति में ‘मेरी माला’ कह कर छात्रा के साथ उनका अपनी स्वयं की अमर्यादित दृष्टि की घोषणा करते ही कथा के पूर्वोक्त मायने बदल जाते हैं। यह कथा का उत्कर्ष है, यही कथा का समापन विन्दु भी है। यही कथा का केन्द्र विन्दु भी है जिससे कथा का शेष भाग अर्थ ग्रहण करता है या पूरी कथा की अर्थवत्ता अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त होती है। इसे यों भी कह सकते हैं कि इस शब्दद्वय ‘मेरी माला’ में ही कथा की समस्त व्यंजना निहित है, शेष भाग तो पूरक चित्रण मात्र है। अब, चूँकि मास्टर मुचकुंद नाथ स्वयं अनैतिकता, अमर्यादा और अधर्म की प्रतिमूर्ति के रूप में उजागर हो चुके होते हैं, सो ‘उस छात्र’ की खोज में आधीरता और अति चपलता के पीछे उनकी वह मनोवृत्ति व्यंजित होती है जो अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में अपने एकाधिकार, अनैतिक या अमर्यादित ही सही, को बँटते हुए सहन नहीं कर पाती। इसी प्रकार चिट्ठी को जोर-जोर से बाँचना निरपराध छात्र को आरोपित करके अपनी कुत्सित दृष्टि पर आवरण डालने में सफल होने पर विजयी भाव की तरह प्रकट हुआ है। उनका अत्यधिक क्रोध दर्शाना तथा शंकर को अमानवीय तरीके से पीटना उनकी कुण्ठा को प्रदर्शित करता है, जो स्वयं के कृत्य को अनैतिक व अमर्यादित तो समझती है पर उसे स्वीकार नहीं करती। परिणाम स्वरूप उनका हाथ उठता है बेचारे शंकर पर, जबकि वह निर्दोष है और रतन तथा माला के संबन्धों से अनभिज्ञ और असंलिप्त भी। इस प्रकार यह कहानी अध्यापक की मनोदशा के कई स्तरों को प्रतिबिम्बित करती है। इस कथा का अंत सामान्य कथाओं के अंत की तरह नहीं हुआ है बल्कि इसका नाटकीय पटाक्षेप आकर्षण का पर्याय बन पड़ा है।
यह संक्षिप्त कहानी यथार्थ के बहुत करीब है तथा वर्तमान सामाजिक परिवेश में शिक्षक और शिष्या के संबंधों के उस विकार पर करारा प्रहार करती है जो आए दिन अखबारों की सुर्खियाँ बनते हैं। इसीलिए कथानक नवीनता लिए भले नहीं लगता, पर कथा का शिल्प अति सुगढ़ है। कथा में प्रत्येक शब्द पर ध्यान दिया गया है। फिर भी, कथा का अंतिम पूर्व पैरा, जिसमें माला व शंकर का संवाद है, शेष कथा के शिल्प की तुलना में ईषत् शिथिल प्रतीत होता है। इस संवाद को यदि और प्रभावकारी बनाया जाता तो कथा अपने समेकित रूप में निरापद हो सकती थी। कथोपकथन अति आवश्यक स्थानों पर ही हैं। पात्र भी कथा की माँग के अनुरूप अत्यंत सीमित हैं। संतुलित शब्दों के प्रयोग के प्रति कथाकार की सजगता दर्शनीय है। सुगठित शिल्प के कारण यह कथा कथानक की सामान्य रचना के बावजूद आकर्षक बन गई है।
*****
शिक्षक के सम्मानजनक पेशे को बेनकाब करती हुई लघुकथा सच्ची घटना सी जान पड़ती है। समीक्षा में कथा पर बहुत सूक्ष्म दृष्टि से विवेचन किया गया है। कथा की व्याख्या दर्शनीय है।
जवाब देंहटाएंअंतिम पैरा की पंक्ति "कधा में प्रत्येक शब्द पर ध्यान दिया गया है।" में त्रुटिवश कधा छप गया है। इसे कथा होना चाहिए। कृपया सुधार कर लें।
आभार
मजनू कहीं का ...का आपने बहुत गंभीरता और सजगता से विश्लेषण किया है ...आपका आभार
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट लघुकथा और उसकी समीक्षा भी.
जवाब देंहटाएंमैं साहित्य के प्रति मनोज जी के समर्पण से प्रभावित हूँ.उनकी क़लम और सोंच को सलाम.
मनोज जी की लघुकथा "मजनूँ कहीं का" का आपने बड़ी ही सूक्ष्मता से सटीक समीक्षा किया है !
जवाब देंहटाएंतपने के बाद सोना और निखर गया !
आभार !
सटीक गहन व्याख्या की है लघु कथा की। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत गंभीरता और सजगता से विश्लेषण किया है्……………बेहद सटीक समीक्षा।
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएं@-यह कथा का उत्कर्ष है, यही कथा का समापन विन्दु भी है। यही कथा का केन्द्र विन्दु भी है जिससे कथा का शेष भाग अर्थ ग्रहण करता है या पूरी कथा की अर्थवत्ता अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त होती है...
वाह हरीश जी ,
एक बात को कहने के इतने अनेक बेहतरीन अंदाज़ ? आनंद आ गया । मनोज जी की शानदार लघु कथा की बेहतरीन समीक्षा के लिए आप दोनों का आभार।
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हरीश प्रकाश गुप्त जी,
जवाब देंहटाएं‘मजनूँ कहीं का’ की बहुत सुन्दर समीक्षा की है आपने...यह लघुकथा वाकई महत्वपूर्ण है...
सटीक समीक्षा के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।
होली की हार्दिक शुभकामनाएं !
कहने को तो यह एक संक्षिप्त लघुकथा थी लेकिन इसमें समाज के सांस्कृतिक पतन की पूरी गाथा थी.. गुप्त जी की समीक्षा के में कुछ भी कहना कम ही है... आंच की ताप बरकरार है...
जवाब देंहटाएंकहानी में नवीनता न होते हुए भी यथार्थ के करीब है ...समीक्षा सटीक की है ..
जवाब देंहटाएंयह कहानी मैं पढ नहीं पाया लेकिन समीक्षा से लगता है बहुत ही रोचक प्रस्तुति रही होगी इसकी ।
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनाओं सहित...
ब्लागराग : क्या मैं खुश हो सकता हूँ ?
अरे... रे... आकस्मिक आक्रमण होली का !
बहुत सटीक और गहन विश्लेषण...
जवाब देंहटाएंहरीश जी, आपने अपनी समीक्षा से कहानी के प्रति नजरिया ही बदल दिया है। आभार।
जवाब देंहटाएंसमीक्षा पढ़कर कहानी के कला पक्ष से भी अवगत हुआ . कहानी में निहित सन्देश तो स्पष्ट है .
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ढंग से आप ने विश्लेषण किया हे, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक और रोचक विश्लेषण!
जवाब देंहटाएंहोली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
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वतन में अमन की, जागर जगाने की जरूरत है,
जहाँ में प्यार का सागर, बहाने की जरूरत है।
मिलन मोहताज कब है, ईद, होली और क्रिसमस का-
दिलों में प्रीत की गागर, सजाने की जरूरत है।।
बहुत कसी हुई कथा की उतनी ही कसी, सटीक, सुस्पष्ट और सूक्ष्म व्याख्या के साथ की गई समीक्षा की जितनी भी प्रसंशा की जाए कम है।
जवाब देंहटाएंसभी को आभार,
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं@ good_done
जवाब देंहटाएंटंकण त्रुटि पर ध्यान आकर्षित करने के लिए आभार। मनोज जी से अनुरोध है कि कृपया उक्त त्रुटि ठीक करवा दें।
प्रेरित और प्रोत्साहित करने के लिए अपने सभी पाठकों का हृदय से आभारी हूँ।
जवाब देंहटाएं@ ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी
जवाब देंहटाएं@ दिव्या जी
@ Dr (Miss) Sharad Singh जी
@ अरुण चन्द्र रॉय जी
@ आचार्य परशुराम राय जी
आपकी विशेष टिप्पणियों ने अभिभूत किया है।
@ सुशील बाकलीवाल जी
जवाब देंहटाएंकथा का लिंक प्रारम्भ में ही दिया है। कृपया कथा का रसपान भी कर लें।
विश्लेषण बड़ी ही सूक्ष्मता से किया है !
जवाब देंहटाएंरोचक प्रस्तुति के लिए साधुवाद .
@ good_done व हरीश जी
जवाब देंहटाएंअशुद्धि दूर कर दिया।
एक सामान्य सी लघुकथा का इतना गहन विश्लेष्ण और सशक्त समीक्षात्मक प्रस्तुति .. आपकी लेखनी को नमन हरीश जी।
जवाब देंहटाएंसहज कथानक में छुपे गूढ़ रहस्य को उजागर करती संतुलित एवं साधु समीक्षा। कल पढ़ तो लिये था किन्तु प्रतिक्रिया व्यक्त करने का अवसर नहीं मिल पाया था। अब तो हरेक गुरुवार को हरीशजी के प्रशंसक पलक-पांवरे बिछाए रहते हैं, जिनमें से एक मैं भी हूँ। बहुत सुंदर। धन्यवाद !!
जवाब देंहटाएंसटीक!!
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