मेरे छाता की यात्रा कथा और सौ जोड़ी घूरती आंखें
मनोज कुमार
लिंक – भाग-१ (बरसात का एक दिन) , भाग-२ (बदनसीब) , भाग-३ (नकारा) ४. नज़रिया ५. साहब की कोठी
फागुन मास आते ही वातावरण में और लोगों में एक अलग किस्म की उमंगें भर जाती हैं। उस साल, इससे मैं बे-असर रहा होऊंगा या नहीं, कह नहीं सकता। पर मेरा एकाकीपन मुझे ही सता रहा था। ‘हवा’ के साथ हुए हादसे के बारे में आपको ‘बूट पॉलिश’ वाले संस्मरण में बता ही चुका हूं। अगर याद न हो तो यहां देख सकते हैं। इस कारण से होली के प्रति मेरे मन में कोई आकर्षण रह नहीं गया था। मैंने सोच रखा था कि इस बार किसी के साथ होली नहीं खेलूंगा।
राग-रंग का यह पर्व, उल्लास और उमंग का यह त्योहार, मेरे लिए बेमानी हो गया था। स्वच्छंदता तो उनके लिए थी जिनके लिए होली खेलने के लिए कोई विशेष प्रेरणास्रोत हो। इस प्रकार के प्रेरणास्रोत का अभाव मेरे लिए तो उदासी का कारण बना हुआ था। ऐसी मानसिक अवस्था में मेरे घर में मालपुए की तैयारी चल रही थी। पर केले के बिना यह कार्यक्रम भी ठप्प पड़ा हुआ था। मुझे मां ने कहा कि मैं बाज़ार से केले ले आऊं। आदेश टालना मेरे स्वभाव में नहीं था और बाहर निकलने का मतलब था होली के हुड़दंगबाज़ों का शिकार होना। खिड़की से बाहर झांका। मोहल्ले के सारे दोस्त धूम मचाए हुए थे। चारों ओर रंग-ओ-गुलाल उड़ रहे थे, जिन्हें देख-देख कर मेरा एकाकी मन और भी सूनापन को महसूस करने लगा। केशर-मिश्रित गुलालों से वातावरण भरा हुआ था, जिन्हें देखकर निकलती हुई उषा की लालिमा बिखरने का भ्रम पैदा हो रहा था। असाधारण वेश-भूषा में लोग बाहर निकल पड़े थे। कहीं ‘बुरा न मानों होली है’ के शब्दों से वातवरण गुंजायमान था, तो कहीं ढोल की थाप पर फगुआ गाया जा रहा था। कहीं लडके-बच्चे बरजोरी टाइप की होली खेल रहे थे, तो कहीं लड़कियां-बच्चियां चोरी-चोरी टाइप की, बाग बगीचों में। कोई छत से रंग व गुलाल फेंक रहा था, तो कोई उठा-पटक वाली होली, कीचड़ से सने गड्ढे में …! कोई भाग रहा था, तो कुछ लड़के भागने वाले को पकड़ रहे थे।
बाहर निकलना ही था। मज़बूरी थी, केले जो लाने थे। एकाएक इन रंगों की बरसात से बचने का एक उपाय मुझे सूझा। बहुत दिनों से कोने में पड़े छाते को मैंने निकाला और बाज़ार की ओर चल पड़ा। किसी तरह मस्तानों की टोली से बचता-बचाता अपने मुंह को छाते से छुपाए आगे बढता जा रहा था। जब आधे से अधिक रास्ता पार कर गया तो मैं अपनी तरक़ीब और सफलता से खुश होकर अपनी पीठ ठोकता और मुस्कुराता जा रहा था। तभी पिचकारी से निकला पानी पूरे वेग से छूटता हुआ सीधे मेरे चेहरे पर आ पड़ा। छाता कोई काम नहीं आया। रंग मिश्रित लाल जल पूरे चेहरे पर फैल गया। सड़क से जा रहे युवक-युवतियों के ठहाके मेरे कानों में गूंजने लगे। कपोलों से बहता हुआ रंग पैरों तक पहुंच गया। मेरे पैरों की छाप से सड़्क भी लाल हो रही थी, पर मेरे कपोल से अधिक नहीं।
मैंने आने वाली रंग की धार के स्रोत की ओर देखा। श्वेत, पर पुराने वस्त्र में एक रमणी थी। हालाकि उसने मेरी ओर पीठ किया हुआ था, पर थोड़ा सा मुड़कर ज्यों ही उसने मेरे चेहेरे को पढकर मेरी मनःस्थिति समझने का प्रयत्न किया, मुझे उसकी एक झलक तो मिल ही गई। अरे ...! मेरे मुंह से निकला .. ‘हवा’!!!
मैंने संभलने के लिए अपना छाता हटाया और ज्यों ही चेहरे से टपक रहे लाल रंग को पोंछना शुरु किया उस रमणी ने मुट्ठी में भरे हुए गुलाल को मेरे ऊपर उछाला और दौड़ कर दूर भाग गई। इस अप्रत्याशित आक्रमण से अब न तो मैं चौंका और न ही आवेशित हुआ, बल्कि मेरे अंदर आह्लाद और उन्माद की धाराएं बह चलीं। अब उसकी गुलाल भरी मुट्ठी मेरी आंखों में समायी हुई थी और मुझे लग रहा था जैसे उसने मुझे सम्मोहित कर उन मुट्ठियों में बंद कर लिया हो। जड़वत् मैं न जाने कितनी देर वहीं खड़ा रहा।
दस रुपए मिले थे केले लाने के लिए ताकि मालपुआ में डाला जाए। पर मेरा लक्ष्य तो अब उस रमणी को गुलाल से रंगने का था। इसलिए अब केले की दूकान की ओर जाने के बजाय मेरे कदम अपने आप यंत्र की तरह गुलालों की दूकान की तरफ़ मुड़ गए। गुलाल लिया, पर जल्दी में न तो दूकानदार से यह पूछने की सुध रही कि कितने के हुए और न ही छुट्टे वापस लेने की। मेरे आगे तो उसके चंचल नेत्र घूम रहे थे और मैं बेसुध सा हाथ में गुलाल का पैकेट लिए चल पड़ा अपने लक्ष्य की ओर। आती बार छाता मेरे सिर पर नहीं मेरी बाजुओं के बीच मुड़ा-तुड़ा पड़ा था।
उसे उस चौराहे पर देखा। किसी को ढूंढती उसकी निगाहों को पढा। मन में हुल्लास की तरंगों ने ज़ोर मारा। इरादा तो पक्का था ही। पर एक समस्या थी - एक हाथ से गुलाल तो लगा सकता नहीं था, और दूसरा हाथ छाते को संभालने में फंसा था। इसलिए उस चौराहे के पास पहुंच कर चहारदीवारी के सहारे छाता को टिका कर दूसरे हाथ को भी मुक्त किया।
सकुचाती और शर्माती ‘हवा’ को न तो भागते देखा और न ही उत्तेजित होते। इससे मेरा मनोबल और बढ़ा। अब तो जो गुलाल से भरे हाथ हमने पीछे छुपा रखा था, सामने किया। मेरी मुट्ठियां गुलाल से भरी थीं। ज्यों-ज्यों मैं उसके क़रीब जा रहा था मेरे क़दम लड़खड़ा रहे थे। पता नहीं यह संकोच की घुट्टी कहां से मेरे अंदर घुसती जा रही थी। गुलाल पर कसी मुट्ठियों की अंगुलियां भी कांप रही थीं। हड़बड़ाहट में मुट्ठियों से फिसल कर कुछ गुलाल सड़क पर गिर पड़े। कुछ हथेलियों में पसीने के कारण चिपक रहे थे। पर उसे वहीं खड़ी देख मेरे अंदर की लोक-लाज की बाधाएं धीरे-धीरे मिटने लगीं। मुझे तो इतना भी ध्यान नहीं था कि सड़क पर उस समय कौन-कौन थे और क्या-क्या हो रहा था? हां हदय की धड़कन का कोई जवाब नहीं था। उसे बहुत संभालते-संभालते धड़कते हृदय से हम उसके पास आए, और ज्योंहि अपना दोनों हाथ उसके कपोलों की ओर बढाया तो मुझे लगा संकोचवश उझकती हुई उसने अपना मुंख ढंका। तभी मेरे चेहरे पर आ चुकी याचना भाव को शायद उसने पढ लिया। फिर मुस्कुराती हुई वह और भी झुकती गई । उसे झुकता देख मैं खुशी से पागल हो गया। उत्साहपूर्वक मैं आगे बढा और गुलालों पर जकड़ी अपनी मुट्ठियों की जकड़न को ढीला किया ...। पर दूसरे ही क्षण उसका सिर और नीचे गया और उसने दोनों हाथों से मेरी शिथिल होती हुई कलाइयों को ज़ोर से पकड़ा और झट से मेरे ही हाथ घुमाकर उसने ऐसा झटका मारा कि मेरे हाथों के सारे गुलाल का अधिकांश भाग मेरी आंखों में घुसा और कुछ भाग मेरे ही गालों पर।
.... और वह ठहाके लगाते भाग चली।
गुलाल भरी आंखों से मैं देखता रहा ... उस चौराहे पर की उन सौ जोड़ी आंखों को, जो मुझे घूर रहीं थीं, मानों कह रहीं हों बेचारा .... !!
बहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंआपके और आपके पूरे परिवार को रंगों के पर्व होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
धन्यवाद शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंआपको भी होली मुबारक़ हो!
होली मुबारक हो। रंग बरसे...।
जवाब देंहटाएं@ करण
जवाब देंहटाएंआपको भी होली की शुभकामनाएं।
तन और मन दोनों रंग में डूबा रहे।
एकदम सजीव चित्रण.एक एक वाक्य पढ़कर लग रहा था जैसे मैं कोई फिल्म देख रहा हूँ.और end में आपके शर्मीलेपन का भी जवाब नहीं.
जवाब देंहटाएंहोली की दिली मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं.
धन्यवाद कुंवर जी!
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनाएं।
बहुत सुन्दर होली की रंगभरी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएं
होली रंगों के इस त्यौहार की हार्दिक शुभकामनाये।
जवाब देंहटाएंjai baba banaras..............
मनोज कुमार जी, पहले तो आपको परिवार सहित होली की शुभकामनाएँ। अरे भाई, केले के रूपये से तो आपने अबीर-गुलाल खरीदकर अपने मन की कर ली। लेकिन केले का क्या हुआ? मालपूआ मिलेगा कि नहीं?
जवाब देंहटाएंआपसभी को पनः एक बार होली की बधाई।
बस राय जी मन में पकने वाले पुए की तरह मालपूए की भी दास्तान थी।
जवाब देंहटाएंउसके बारें फिर कभी।
फिलहाल, होली है।
हैप्पी होली।
ऐसी हवा चली की खुद ही खुद के रंग से रंग गए ...:):) ..घर पहुँच कर क्या हुआ ? माँ ने मालपुए की जगह क्या खिलाया ..मन में पकाने वाले मालपुए तो बाद में पढेंगे :)
जवाब देंहटाएंहोली की बहुत बहुत शुभकामनायें
रंग बरसे, भीगे चुनरवाली..
जवाब देंहटाएंआपको हार नहीं माननी चाहिए थी ...दुबारा ट्राई करना था...
जवाब देंहटाएंहोली की हार्दिक शुभकामनायें ...
जवाब देंहटाएंनेह और अपनेपन के
जवाब देंहटाएंइंद्रधनुषी रंगों से सजी होली
उमंग और उल्लास का गुलाल
हमारे जीवनों मे उंडेल दे.
आप को सपरिवार होली की ढेरों शुभकामनाएं.
सादर
डोरोथी.
बहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंआपको होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
बहुत दिन हो गए मालपुवे खाए हुए . अच्छा याद दिलाया आपने . खैर मन के पुवे पके यही क्या कम है . होली की हार्दिक शुभकामनाये.
जवाब देंहटाएंवाह..दिलचस्प संस्मरण...
जवाब देंहटाएंहोली की शुभकामनाएं।
केले न ला पाने की असल बात जब माँ को पता चली होगी तब उन्होंने ऐसे थोड़े न छोड़ा होगा। गुलाल वाले मालपुए तो हर होली याद आते ही रहेंगे।
जवाब देंहटाएंआप सबको तथा आपके पूरे परिवार को सौहार्द पर्व होली की ढेरों शुभकामनाएँ!
होली की हार्दिक शुभकामना ! बहुत मस्त संस्मरण !
जवाब देंहटाएंबड़ी खतरनाक हवा थी :) मालपुए ही ले उड़ी :).घर जाकर कितने मालपुए मिले मम्मी से वह तो बताया ही नहीं.
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