मंगलवार, 31 अगस्त 2010

मेरे छाता की यात्रा कथा, और ... सौ जोड़ी घूरती आंखें!!! (भाग-5 : साहब की कोठी)

मेरे छाता की यात्रा कथा, और ...  सौ जोड़ी घूरती आंखें!!!

 

 

मनोज कुमार

लिंक – भाग-१ (बरसात का एक दिन) , भाग-२ (बदनसीब) , भाग-३ (नकारा) ४. नज़रिया

imageआज सुबह की सैर से वापस आते समय पहले तो धीरे-धीरे फिर ज़ोर से वर्षा होने लगी। तेज हो चुकी बारिश से बचने के लिए मैं छाता ताने अपनी रफ्तार तेज करता घर की तरफ वापस जा रहा था। तभी काफी तेज रफ्तार से पुलिस की गाड़ी मेरे बगल से गुजरी।

छपाक ...!!!

... और सड़क पर जम आए पानी से मेरा वह शरीर, जिसे अब तक मेरे छाते ने इंद्र देवता से बचाकर रखा था, भींग गया और साथ ही छोड़ गया कीचड़ से सना वस्‍त्र। अब तो मैं अपना छाता मोड़ने में ही सुख मान रहा था, बारिश की बौछार से कुछ तो कीचड़ धुल जाए! छाता मोड़ते हुए मैं बाई ओर अपनी गरदन घुमाता हूँ। जेल की ऊँची दीवारों पर उग आए पौधों पर मेरी नज़र जाती है। मन की भावनाओं को बाहर आने से रोकता हूँ।

चर्र-चर्र ...!!! चों...चों!!!! ... की आवाज़ के साथ आगे पुलिस की गाड़ी रूकती है। एक पुलिसवाला कूद कर बाहर आता है। वह चीखता है –“एई! ... की कोरछिस रे?”

जहां मैं खड़ा हूँ वहां बाई ओर जेल है दांई ओर बस स्टॉप और सामने पुलिस के सबसे बड़े साहब की कोठी।

बड़े साहब का बंगला हो और पुलिसवाला रौब न दिखाए, ....ऐसा हो सकता है क्या? सैर से आते-जाते  समय कई बार हमें फुटपाथ छोड़ नीचे तेज जाती वाहनों के बीच सड़क से होकर जाना पड़ता है। गेट उनका फ़ुटपाथ पर खुलता है और गेट पर ड्यूटी दे रहा दरवान भी सामने की फुटपाथ की हिफाजत के प्रति चौकस, सजग और कर्तव्‍य निष्‍ठा से ओत-प्रोत रहता है। हर ... पल!!!

खैर, इस पुलिसवाले की उस फटकार “एई! ... की कोरछिस रे?” से जेल की दीवार और फुटपाथ के बीच की झाडि़यों में हलचल हुई और देखता हूँ कि एक व्‍यक्ति निकल कर भय से थर थर कांपता हुआ भागने की चेष्‍टा करता है।

सटाक....!!!

“साला। पालाच्छिस?”

पुलिसवाले का सोटा उसके घुटनों के पीछे वाले हिस्‍से पर पड़ता है। उसके मुंह से आर्तनाद और ये शब्‍द ... “मोरे गेलाम गो !” ... निकलता है।

वह औंधे मूंह फुटपाथ पर गिर पड़ता है। पुलिसिया अपने कर्तव्‍य के प्रति अत्‍यधिक सचेष्‍ट है, वहां झट से पहुंचता है। अभी उसका सोंटा हवा में लहरा ही रहा होता है कि वह व्‍यक्ति बाएं हाथ में पड़े झोले को उलटाता है और दाएं हाथ को खोलता है।

कई सारे घोंघे इधर-उधर छितरा जाते है। वह बोलता है,

....“खेताम!!!”

 

पुलिसवाला मुंह से भद्दी गाली निकालते हुए कहता है – “साला देखछिस ना, साहेबेर बाड़ी आछे!!!”  .... और मुड़कर गाड़ी में सवार हो आगे बढ़ जाता है।

मैं अपना छाता खोल उसके ऊपर तान देता हूँ। वह बोलता है, “बाबू! बेथा कोरछे।”

सामने बस स्‍टॉप है। वहां कुछ बस पकड़ने और कुछ वर्षा से बचने के लिए आश्रय लिए हुए सौ जोड़ी आंखे पुलिसिए प्रकोप से डरी-सहमी है। आज कोई भी आंखे घूरती नहीं दिखी मेरे छाते को।

 

41 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! छतरी कथा शृंगार और हास्य रस का रसास्वदन कराती हुई अब जिस पड़ाव पर आ पहुँची है वहाँ करुणा और दया उपजती है।
    यह कथा अच्छी बन पड़ी है। आपने कहा यह एक सच्ची घटना पर आधारित है। सही है। हर संवेदना जगाने वाली रचना यथार्थ के उतनी ही करीब होती है जितनी कि यह रचना।

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  2. उत्तम रचना है। बधाई स्वीकार करें।

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  4. वाह.... ! बडे साहब की बडी कोठी किस काम की... जहां एक गरीब को घोंघा तक नही मिल सकता ! "बडा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड खजूर ! पंथी को छाया नंही फळ लागे अति दूर !!" उस से भली तो आपकी छोटी छतरी ही है ... जिसने उस बेचारे को सस्नेह आश्रय दे दिया ! आधुनिक भौतिक संपन्नता और मानसिक विपन्नता उस पर करेले पर नीम की तऱ्ह असंवेदनशील व्यवस्था पर तीक्ष्ण व्यंग्य है. नाटक जैसा शिल्प कथा को जीवन्तता प्रदान करता है. धन्यवाद !

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  5. इस कथा से जहाँ पुलिश के प्रति व्यंग है वहाँ आम जनता की सोच पर भी करार व्यंग है ...कि आज सौ जोड़ी घूरती आँखें आपके छाते को नहीं देख रही थीं ...

    बहुत अच्छी लघु कथा ...

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  6. @ हरीश जी
    जब कोई बात मन कोछूती है तो मेरे छाते में समा जाती है। पर ये घोंघा, बड़ा ही क्रूर सत्य है। शायद लोगों को पसंद ना आए।

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  7. @ राय जी, निशान्त जी

    धन्यवाद!
    प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...

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  8. लोगी की करुणा कोई नहीं देख पता ?
    बहुत भाव भरा संस्मरण

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  9. @ करण
    निरीह, विवश, और अवश अवस्था में रहने वाले संघर्ष कर नहीं पाते और हम संवेदना समेट लेते हैं।

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  10. मेरे समक्ष वही दृश्य बार बार आ रहा है और घोघा चारो ओर छित्राएँ हुए हैं... और मैं उन्हें चुन चुन के वापिस उसके थैले में डाल रहा हू.. बहुत ही मार्मिक रचना .. ए़क लघुकथा में आपने कथा का आनन्द दे दिया है !

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  11. @ संगीता जी
    आपने सही कहा। व्यवस्था से हम इतना डर जाते हैं कि संवेदना भी लुप्त हो जाती है।

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  12. @ शोभना जी
    ऐसा लगता है हम निरंतर निर्मम होते जा रहे हैं।

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  13. @ अरुण जी
    आप इस कथा की संवेदना से जुड़े। बहुत अच्छा लगा।
    कुछ रचनाएं अपनी संतुष्टि के लिए होती है, यह उनमें से एक है।

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  14. @ शिखा जी
    धन्यवाद आपका, इस हौसला आफ़ज़ाई के लिए।

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  15. व्यंग्यात्मक लहजे में सुन्दर संस्मरण......बधाई.
    ________________
    'शब्द सृजन की ओर' में 'साहित्य की अनुपम दीप शिखा : अमृता प्रीतम" (आज जन्म-तिथि पर)

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  16. @ केके यादव जी
    प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद।

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  17. छतरी कथा में आपकी अभिव्यक्ति यथार्थ से रागात्मक लगाव की सृजन करती सी प्रतीत होती है।
    आशा है इस तरह के पोस्ट सर्वदा करते रहेगे।

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  18. छतरी कथा में आपकी अभिव्यक्ति यथार्थ से रागात्मक लगाव की सृजन करती सी प्रतीत होती है।
    आशा है इस तरह के पोस्ट सर्वदा करते रहेगे।

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  19. पुलिस के अत्याचार का शिकार सबसे ज़्यादा गरीब ही होता है। इसीका सजीव और मार्मिक वर्णण किया गया है आपकी इस कहानी में।

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  20. मॉर्निंग वाक भी सेफ नहीं रहा। तरह-तरह के प्रदूषण।

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  21. मनोज बाबू, आज आप बदला लेइये लिए हमसे... हमरा पोस्ट पर का मालूम केतना बार आप लिखे होंगे कि हम आपको रोलाने का ठेका लिए हुए हैं... लेकिन आज त आप एक्के बार में सब सधा लिए... अब हम का लिखें, कुच्छो लिखने लायक छोड़बे नहीं किए हैं आप!!

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  22. वर्णन मार्मिक था. पोस्ट अच्छी लगी.

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  23. आपका यह आलेख बहुत अच्छा लगा. छाता की यात्रा...... का पुर्व अन्श पढ नही पाया हुं, अवश्य ही पढूंगा. आभार....और शुभकामनायें..

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  24. @ प्रेम सरोवर जी, रीता जी, राधारमण जी, प्रवीण जी, पदम सिंह जी
    आपको रचना पसंद आई ।
    और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद।

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  25. @ सलिल भाई
    आपके संवेदना के स्वर स्पष्ट हैं।
    बर्षा के फुहार से भिंगा गए।

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  26. @ बूझो तो जाने, मयंक जी, राज जी, शमीम जी, जुगल जी
    आपका आभार।

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  27. विद्रूप पर सटीक प्रहार.

    धन्‍यवाद.

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  28. छाते की कथा और पुलिसिया जुल्म । बहुत अच्छी रचना ।

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  29. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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