गुरुवार, 19 अगस्त 2010

आँच – 31 पर तेरा जूता तेरे सिर

आँच – 31 पर 'तेरा जूता तेरे सिर'।

हरीश प्रकाश गुप्त

इस ब्लाग पर सत्येन्द्र झा की एक लघुकथा पढ़ने को मिली 'तेरा जूता तेरे सिर'।(लिंक है) मूलत: मैथिली में लिखी यह कथा केशव कर्ण द्वारा हिन्दी में अनूदित है। कथा अपने स्वरूप में अति लघु है, साथ ही अत्यंत संश्लिष्ठ भी। कथा में धारदार व्यंग्य है जिसने पाठक के हृदय को झकझोरा है। कथा की विशिष्टि ही इसे 'ऑंच' पर लिए जाने का आधार रही।

यह सुबोध कथा समाज की आधुनिक बनने की अदम्य आकांक्षा के चलते अन्धानुकरण करने की कथा है। ऐसा अन्धानुकरण जो बुद्धि को पथभ्रष्ट करता है और विवेक को संज्ञाविहीन।

एक व्यक्ति जो गांव में बाहर से आता है, अपने पहनावे ओढ़ावे से लोगों को आकर्षित कर लेता है या कहें कि सम्मोहित कर लेता है। धोती कुर्ता पहनने वाले ग्रामीण उसकी वेशभूषा को अपना लेते हैं और धीरे-धीरे अपना पहनावा, रीति-रिवाज और संस्कारों को भूल जाते हैं। फिर वही व्यक्ति अपने आर्थिक हितों (स्वार्थ) को पूरा करने के लिए उन्हीं के संस्कार उन्हें बेचने के लिए दूकान खोल लेता है और उसके प्रभाव में आ चुके लोग अब आधुनिक बनने के फेर में सहर्ष लुटने के लिए उसके पास आते हैं।

वास्तव में यह कथा संस्कृति के अधिग्रहण की अभिकथा है और इसके मूल में है आर्थिक हित। संसार में इन्हीं आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए धार्मिक सामाजिक संस्कारों का अधिग्रहण सदा से होता आया है और आज भी हो रहा है। संस्कारों के इस अधिग्रहण के चलते ही बहुत सी प्रजातियाँ अपने अस्तित्व के लिए संकट से जूझती रहीं और समाजों की संप्रभुता पर खतरे तक उत्पन्न हुए। संस्कारों के अधिग्रहण की पद्धति भी वही रही। पहले आकर्षण पैदा करना फिर सम्मोहित करना उसके पश्चात् पेटेण्ट बनाकर नियंत्रण हासिल करना होता है और मूल उद्देश्य है अर्थार्जन। यही इस कथा की अन्तर्वस्तु है।

सत्येन्द्र झा ने बहुत सरल शब्दों में इस सनातन सत्य को कथा का विषय बनाते हुए प्रस्तुत किया हैं। कथा में कोई बिम्ब नहीं है। उन्होंने अपनी कल्पना शक्ति से आकर्षक कथानक सर्जित किया है। कथा में व्यंग्य प्रखर है। कथा बुद्धि विवेक के अपकृष्ट होने और संस्कारों के अधिग्रहण पर तीखा व्यंग्य करती है तथा इस विषय पर मंथन के लिए विवश करती है। भाषा बहुत सहज है, बल्कि यो कहें कि सत्येन्द्र झा भाषा में लिखते नहीं बोलते हैं तो अधिक उपयुक्त होगा। यदि कथा में काल दोष को छोड़ दें तो यह कथा लघु कथा के मानकों के सर्वथा उपयुक्त है। इसमें सीमित शब्दों में द्विगुणित अर्थ का समावेश है। यदि कुछ इंगित करने के लिए है तो वह काल बाधा है और यह सत्येन्द्र झा जैसे लघु कथा के परिपक्व शिल्पी की दृष्टि से ओझल हुई त्रुटि है। प्रसंग में, एक व्यक्ति जिससे आकर्षित होकर लोग उसका पहनावा अपना लेते हैं वही लोग कुछ समय बाद अपना पहनावा, जिसे उन्होंने रीति-रिवाज और संस्कारों से सीखा था, इस कदर भूल जाते हैं कि उन्हें किसी व्यक्ति को शुल्क देकर अपना पहनावा - धोती पहनना सीखना पड़ता है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से एक ही पीढ़ी द्वारा इस प्रकार का विस्मरण अविश्वसनीय लगता है। हाँ, एक दो पीढ़ी बाद तो यह सम्भव हो सकता था।

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15 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर प्रस्तुति!

    हिन्दी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है।

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  2. आपने सही कहा। एक व्यक्ति द्वारा कुछ ही समय में अपना पहनावा भूलना असम्भव ही लगता है। इसके बावजूद कथा अपना प्रभाव छोड़ने में सफल है।

    तटस्थ समीक्षा । बधाई।

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  3. कथा की तथ्यपरक और तटस्थ विवेचना की गई है।

    सुंदर प्रस्तुति।

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  4. जेतना सुंदर मूल कथा रहा होगा मैथिली में, ओतबे सुंदर अनुबाद भी है केसब जी का अऊर इसपर आपका समीक्षा त इस लघुकथा को स्थापित कर देता है... हमरा भी बधाई सुइकारें!!

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  5. बहुत बहुत बधाई आपको इतनी सुन्दर समीक्षा प्रस्तुत करने के लिए!

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  6. सारगर्भित समीक्षा. कथा के पहलुओं के साथ इसकी एकमात्र त्रुटी को बहुत ही तार्किकता के साथ उजागर किया गया है. बहुत खूब !!!

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  7. सार्थक समीक्षा की है आपने....
    सचमुच लघु कलेवर में कही गयी यह कथा व्यापक प्रभाव छोडती है...
    जिन परम्पराओं को हीन समझ हम ताजते जा रहे हैं,उन्हें ही सुन्दर रैपिंग में लपेट बहुराष्ट्रीय कंपनिया हमें लपेट जाती हैं...इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है...

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  8. तथ्यपरक और तटस्थ विवेचना !

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  9. आप से सहमत है जी, बिलकुल सही समीक्षा की आप ने, धन्यवाद

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  10. सार्थक समीक्षा की है आपने....
    धन्यवाद..

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  11. ब्लाग पर आने के लिए तथा प्रोत्साहन के लिए अपने सभी पाठकों को हार्दिक धन्यवाद।

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  12. आंच पर पकाई गई आज की कथा छोटी तो है लेकिन जिस तरह समाज में संस्कारों का पलायन और विस्थापन हो रहा है और पुनः उनका व्यवसायीकरण हो रहा है.. यह लघुकथा काफी गंभीर है.. और चिंतन को प्रेरित करती है... जिस तरह से आज हर ए़क चीज का बाजारीकरण हो रहा है... यह कथा ए़क गंभीर विषय को छुआ है.. गुप्त जी यदि मिथिला समाज की पृष्ठभूमि का उल्लेख करते जिसमे धोती पहने कि सनातन परंपरा है जो आज भी जीवंत है लेकिन बाजारीकरण के प्रभाव में आ गया है.. और वहां धोती पहनने को सिखाये जाने के लिए दूकान खुल रही है.. तो कथा और भी स्पस्ट हो जाती और समीक्षा और भी जानदार हो जाती... वैसे भी यह कथा ए़क बड़ा प्रश्न छोडती है ... सतेन्द्र झा जी.. केशव कर्ण जी और गुप्त जी तीनो को बधाई और शुभकामना...

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