भारतीय काव्यशास्त्र में सम्प्रदायों का विकासआचार्य परशुराम राय |
अब तक हमने भारतीय काव्यशास्त्र की लगभग दो हजार वर्षों की परम्परा का स्केच पढ़ा, देखा। इस परम्परा के कुछ आचार्यों ने काव्य के प्रति चली आ रही धारणा का युक्तिपूर्वक खण्डन करते हुए अपनी धारणा प्रकाशित किया। इस वैमत्य ने ही इस परम्परा में सम्प्रदायों को जन्म दिया या यों कहना चाहिए कि भारतीय काव्यशास्त्र के वन में ये सम्प्रदाय आश्रम (यहाँ स्कूल) की तरह शोभायमान हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में मुख्य पाँच सम्प्रदाय हैं - रस सम्प्रदाय, अलंकार सम्प्रदाय, रीति सम्प्रदाय, वक्रोक्ति सम्प्रदाय और ध्वनि सम्प्रदाय। 1. रस सम्प्रदाय:- काव्यशास्त्र का यह सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है और इसका प्रवर्तक आचार्य भरतमुनि को माना जाता है। आचार्य लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक आदि रस सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। वैसे आचार्य राजशेखर ने अपने ग्रंथ काव्यमीमांसा में आचार्य नन्दिकेश्वर को रस सिद्धान्त का प्रवर्तक कहा है। किन्तु आचार्य नन्दिकेश्वर का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है और न ही किसी अन्य आचार्य ने कहीं इनके मत का उल्लेख किया है। अन्य सम्प्रदाय के सभी आचार्यों ने भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रस के अस्तित्व को स्वीकार किया है। रस सिद्धान्त के प्रवर्तक द्वारा रसों के आस्वादन का जो स्वरूप दिया गया, उसे उसी रूप में अंगीकार करने में लगभग सभी आचार्य एकमत हैं - विभावानुभाव व्यभिचारी भाव संगोगात् रस निष्पति:। अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से (मिलने से) रस उत्पन्न होता है। इसमें आए पारिभाषिक शब्दों का परिचय काव्यशास्त्र के प्रसंग निरूपण के समय किया जाएगा। 2. अलंकार सम्प्रदाय:- आचार्य भरतमुनि के बाद आचार्य भामह ने अलंकार सम्प्रदाय को अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'काव्यालंकार' में प्रतिष्ठित किया। रसों को इन्होंने रसवत् अलंकारों में ही अन्तर्भुक्त किया है। इसके बाद इनके परवर्ती आचार्य उद्भट, दण्डी, रूद्रट, प्रतिहारेन्दुराज, जयदेव आदि ने इस सम्प्रदाय की नींव को और सुदृढ़ किया। आचार्य जयदेव ने तो आचार्य मम्मट के काव्य में प्रयुक्त 'अनलृकंत पुन: क्वापि' (अर्थात् कहीं अलंकार के अभाव में भी निर्दोष शब्द और अर्थ काव्य काव्य हैं) पर व्यंग्य करते हुए अपने प्रसिद्ध काव्यशास्त्र के ग्रंथ 'चन्द्रलोक' में लिखा है:- अङ्गीकरोति य: काव्यं शब्दार्थावनलङ्कृती। असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती॥
अर्थात् जो अलंकारविहीन शब्द और अर्थ को काव्य मानते हैं, वे ऐसा क्यों नहीं मानते कि अग्नि शीतल होती है। अलंकारवादी आचार्य काव्य में अलंकारों की ही प्रधानता को स्वीकार करते हैं। 3. रीति सम्प्रदाय:- आचार्य वामन रीति (शैली) सम्प्रदाय के प्रवर्तक हैं काव्यशास्त्र पर अपने एक मात्र ग्रंथ 'काव्यालंकारसूत्र' में उन्होंने 'रीतिराला काव्यस्य' (काव्य की आत्मा रीति है) मत की प्रतिष्ठा की। भारतीय काव्यशास्त्र में रीतियों के भेदोपभेद आदि की चर्चा प्रसंगानुसार की जाएगी। वैसे रीति का लक्षण करते हुए आचार्य वामन लिखते हैं - विशिष्टपदरचना रीति:, अर्थात् विशिष्ट पदरचना रीति है। पुन: 'विशिष्ट' (विशेष) शब्द की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं - 'विशेषोगुणात्मा' अर्थात् माधुर्य, ओज आदि गुणों से सम्पन्न पद रचना (रीति है)। आचार्य वामन ने काव्य में गुण को अलंकार से ऊँचा स्थान दिया है। इसीलिए 'रीतिसम्प्रदाय' को 'गुण सम्प्रदाय' के नाम से भी जाना जाता है। रीति सम्प्रदाय के अन्य अनुयायी आचार्य नहीं मिलते हैं। इस सम्प्रदाय के एक मात्र प्रवर्तक और अनुयायी स्वयं आचार्य वामन ही हैं। |
शेष सम्प्रदायों के विषय में अगले अंक में चर्चा की जाएगी। |
रविवार, 29 अगस्त 2010
भारतीय काव्यशास्त्र में सम्प्रदायों का विकास
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बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंहिंदी, नागरी और राष्ट्रीयता अन्योन्याश्रित हैं।
ज्ञानवर्द्धक शृंखला है। बहुत कुछ नया जानने को मिल रहा है।
जवाब देंहटाएंआभार।
इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंभारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपुर्ण कार्य कर आप एक महान कर्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंसंभव है,तमाम संप्रदाय पूर्ववर्ती को कमतर ठहराने के लिए खड़े हुए हों मगर उन सबने मिलकर भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी ओर महत्व पुर्ण बाते बताई आप ने इस भाग मै धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआज जब आप के ब्लांग पर आया तो मुझे कुछ अलग नही लगा, लेकिन जब टिपण्णी दे कर चला तो लगा कि आज तो सब बहुत जल्द जल्द हो रहा है, फ़िर ध्यान आया कल की टिपण्णी का, सब से पहले आप का धन्यवाद, ओर अब खुद ही देखे आप का ब्लांग कितनी जल्दी खुलता है, ओर टिपण्णी भी फ़टाफ़ट चलती है, फ़िर से धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति के प्रति मेरे भावों का समन्वय
कल (30/8/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
इस ज्ञान वर्धक पोस्ट के लिए शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंApne sabhi pathakvrind ko apni bhavanaon se avagat karane ke liye dhanyavad.
जवाब देंहटाएं@ anamikaji,
जवाब देंहटाएंis aalekh ko charchamanch me shamil karane ke liye aapko punah dhanyavad.
@ vandanaji,
जवाब देंहटाएंkshama kare.
aapake nam ki jagah bhool se anamikaji ka nam type ho gaya.
charchamanch me shamil karane ke liye aapko punah dhanyavad.
बहुत अच्छी जानकारी देता लेख ...निश्चय ही सबको सहायता मिलेगी ..
जवाब देंहटाएंनये विषय में प्रवेश अच्छा लगा ! आचार्य को नमन !!
जवाब देंहटाएंbohut hi labhdayak lekh
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