गुरुवार, 5 अगस्त 2010

आंच - 29 पर मौन बने.....

आंच पर मौन बने.....

-- करण समस्तीपुरी


पिछले दिनों इसी ब्लॉग पर आचार्य परशुराम राय की एक कविता प्रकाशित हुई थी "मौन बने कर लें फेरा...!" कविता इतनी शास्त्रीय और सुगढ़ थी कि बरबस विश्वविद्यालय लौट जाने जैसा प्रतीत हुआ। आचार्य से आज्ञा लेकर इसे आंच पर चढाने का दुस्साहस कर रहा हूँ।

इस कविता में आद्योपांत छायावाद का संस्कार कल-कल-छल-छल कर बह रहा है। अनाभ्यासे विषमे विद्या। उदर-ज्वाला में तप्त वर्षों से शास्त्रों के अनुशीलन और मनीषियों के सानिध्य से वंचित रहा हूँ पुनश्च आज के आंच की पूर्व-पीठिका में छायावाद की चर्चा किये बगैर नहीं रह सकता क्योंकि प्रस्तुत रचना कोसमझने के लिए छायावाद की प्रवृतियों को समझना मुझे आवश्यक लग रहा है।

हिंदी साहित्य में 1913से 1935 तक का काल-खंड छायावाद के नाम से प्रसिद्द है। वस्तुतः छायावाद स्वछंदतावाद का विस्तार और रहस्यवाद में निस्तार है। स्वछंदतावाद के प्रयोगों से कसमसाते काव्य की अभिव्यंजना को छायावाद में एक अभिराम आयाम मिला। छायावादियों ने 'कला कला के लिए' के आधार पर काव्य रचना को प्रश्रय दिया।

प्रथम विश्व-युद्ध की विभीषिका के फलस्वरूप हुए मानव-मूल्यों के विघटन तथा जीवन के प्रति वेदानामूलक अनास्था की विकसित प्रकृति ने संघर्षभीरु कवियों को अंतर्मुखी और पलायनवादी बना दिया। दरअसल जिन परिस्थितियों ने राजनीति में गांधीवाद को जन्म दिया उन्ही परिस्थितियों ने साहित्य में छायावाद का आह्वान किया।

हिंदी साहित्य के मूर्धन्य इतिहासकार डॉ नागेन्द्र इसे स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह मानते हैं तो राष्ट्रकवि दिनकर इसे उद्दाम व्यैक्तिकता का प्रथम विस्फोट कहते हैं। दोनों ही विद्वानों द्वारा छायावाद की परिभाषा पर आचार्य राय की प्रस्तुत कविता खड़ी उतरती है।

"............. नजरें प्रियतम की।

पाकर सुरभि किसी चेतन की।


प्राण सुधा अर्पित करने को....!"


आदि पंक्तियों में यही स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह मुखर है। स्थूल अर्थात व्यक्त, वास्तविक और सूक्ष्म अर्थात , अव्यक्त, अदृश्य। यानी कि जीव और आत्मा। कवि कहता है कि "सुन्दरता के जल माध्यम को भेद....." स्थूल नेत्र तो सुन्दरता पर ही अटक जाते किन्तु कवि के सूक्ष्म नेत्र सुन्दरता जैसे मनोहारी आवरण को भी जल (एक पारभाषक) माध्यम की भांति भेद रहे हैं। यहाँ कवि आत्मा का सौन्दर्य व्यक्त कर रहा है।

"झूम उठा मेरा मन ऑंगन....


उमड़ा जलधि असीम हृदय का...

मिलन कहाँ मेरा-तेरा....

मौन बने कर लें फेरा.... ।"

इन पंक्तियों में दिनकर की परिभाषा वाली उद्दाम व्यैक्तिकता का विस्फोट देखा जा सकता है। "मिलन कहाँ तेरा मेरा और मौन बनें कर लें फेरा" में तो कवि व्यैक्तिकता यानी कि प्राइवेसी की ऐसी पैरोकारी कर रहा है, मनो स्थूल और सूक्ष्म के बीच का भेद मिटा देना चाहता हो।

छायावाद की भावगत प्रवृतियों में अग्रणी हैं, प्रणय की तरलता,वेदना की बहुविधि अभिव्यक्ति, प्रकृति का अमित सौन्दर्य, रहस्यमयता, व्यक्तिनिष्ठा और पलायनवाद। छायावाद की प्रकृति नारीमयी और नारी प्रकृतिमयी है। यह कवि परशुराम की प्रतिभा ही है कि महज एक छोटी सी कविता में छायवाद की अधिकाँश प्रवृतियों को समेट लिया है। देखिये प्रणय की तरलता -

"विरह जलधि की बेला में ये

करते ऑंसू संधि प्रबल।


प्राण सुधा अर्पित करने को
उमड़ा जलधि असीम हृदय का।"

एक बात यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य है। छायावाद चर्म नहीं चरम प्रणय की अनुशंसा करता है।अब देखिये वेदना की बहुविध अभिव्यक्ति,

"टूट गयी टकराकर आशा
सागर के इस निर्मम तट से।


उच्छ्वासों का वाष्प सघन।

काँप रहा मेरा तन निर्बल ।"

इन पंक्तियों की विरह एवं निराशाजन्य वेदना इतनी मर्मस्पर्शी है कि एक बार पढ़ते ही हृदय के अंतस्थल पर छाप छोड़ जाती हैं। प्रकृति-सौन्दर्य छायावादी काव्य की आत्मा रही है। अब कोई प्रश्न नहीं होना चाहिए कि 'प्रकृति का सुकुमार कवि' एक छायावादी कवि ही क्यों है। राय जी ने भी प्राकृतिक उपादानो से अपनी कविता कामिनी का भरपूर श्रृंगार किया है।

"सागर के इस निर्मम तट से...

मन-तरु की डाली से।

घोर विरह घर की चपला ने
चमकाए निज
कुपित नयन....

विरह जलधि की बेला में.....

झूल रही है दृग लतिकाएँ
स्वप्न पत्र से सज मतवाली.... ।"

कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि कवि के भाव प्राकृतिक प्रतीकों के सहारे ही बढ़ रहे हैं। व्यैक्तिकता की चर्चा हम पहले कर चुके हैं और अब पलायनवाद। संघर्षभीरु एवं अंतर्मुखी होने के कारण छायावाद पलायन को विवश हो गया। वेदना और अनास्था में अपनी जगह ना पा, छायावाद की कोमल भावनाएं पारलौकिक कल्प्लोक को पलायन करने लगी। महाकवि प्रसाद की रचनाओं में इस पलायन के स्वर सबसे मुखर एवं संवेद्य हैं।

"ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे !

जिस अनंत में सागर उतरी,

अम्बर के कानों में गहरी,

निश्चल प्रेम कथा कहती हो,

तज कोलाहल की अवनी रे.... !!"

कवि राय की कविता भी संघर्ष से आहत हो पलायन का सन्देश दे रही है,

शास्त्र महल के कोलाहल में,

मिलन कहाँ मेरा-तेरा।

विरहानल के साक्ष्य भवन,
मौन बने कर लें फेरा।"

कवि सांसारिक कोलाहल से निराश है। वह इस भागमभाग से निस्तार चाहता है। पलायन चाहता है। किन्तु यहाँ कवि का पलायन भी आत्मस्थ है। मैं ने ऊपर चर्चा किया है कि छायावाद ने प्रणय को भी आध्यात्मिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया है। कवि यहाँ उसी भावना को उत्कृष्टता प्रदान करता है। शास्त्र महल के कोलाहल में.... परमात्मा की प्राप्ति के लिए बौद्धिक आडम्बर से नहीं होती। बौद्धिकता तर्क को जन्म देती है और प्रेमगली तो अति सांकड़ी होती है, जा में दुई न समाई.... सो, तर्क का चोला उतार देने पर ही 'उस' से एकाकार हुआ जा सकता है। इसीलिये कवि कहता है, "मौन बने कर लें फेरा !"

भाव की अपेक्षा छायावाद का शिल्प कहीं अधिक सबल रहा है। छायावाद ने हिंदी के स्थूल और अनगढ़ शब्दों को तराश कर उनमें नयी अभिव्यंजना भर कर खड़ी बोली की प्रक्षिप्त व्यंजना शक्ति का उद्घोष किया है। राय जी ने भी अपनी इस कविता में कई एक सामान्य बोल-चाल की भाषा को इस तरह से तराश कर प्रयोग किया है कि उनमे एक अद्भुत नवीनता झलकती है। कुछ उत्कृष्ट प्रयोग हैं,

सुन्दरता के जल माध्यम,

मन-तरु की डाली,

उच्छवासों का वाष्प

धूसर डाली और

दृग लतिकाएँ....

ये ऐसे सामान्य शब्द हैं जो प्रयोग-वैशिष्ट से चमत्कार उत्पन्न कर रहे हैं। कविता कवि के कल्प-शिखर से उद्दात्त वेग से निकल सुकोमल मनोभावों के बीच बलखाती हुई सहृदयों के भावभूमि पर विस्तार पाती है। शुरू से अंत तक कविता में एक लयात्मक प्रवाह। कविता-पढ़ते हुए मुझे एक स्थान पर ही थोड़ा रुकना पड़ा, "काँप रहा मेरा तन निर्बल।" कविता में यत्र-तत्र नाद-सौन्दर्य की सुघर छटा भी बिख़र रही है। जैसे - "घोर विरह घर की चपला ने चमकाए निज कुपित नयन।..... पकड़ धरा की धूसर डाली।" आदि पंक्तियों को पढ़ते हुए ध्वनियों के उच्चारण से कर्णप्रिय लय-ताल का सृजन होता है।

कुल मिला कर यह एक आदर्श कविता है, जिसमें भावों की प्रौढ़ता नहीं बल्कि तरुनाई लहराती है। समग्रता में कवि अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए संघर्षों के थपेड़ों से कातर हो आतमावगाहन को प्रेरित होता है। जब सभी यत्न निष्फल हो जाएँ तो मौन और प्रतीक्षा का ही आसरा होता है। इस कविता के पुरुष कवि की प्रेयसी जो भी हो उसकी एक-एक भावनाओं का आलंबन सागर के निर्मम तट से लेकर दृग लतिकाएँ तक... प्राकृतिक उपादान ही है। इन उपादानों के सहारे कवि प्रणय को अध्यात्मिक शीर्षत्व प्रदान करता है। समग्र भाव और शिल्प वैशिष्ट्य से कविता अपने परिवेश में ऐसे प्रकाश-लोक का सृजन कर रही है जैसे मुक्तामणि के चारों ओर हल्के प्रकाश का वृत्त।

इस सुरम्य काव्य-कानन का विहार करवाने के लिए मैं आचार्य राय का आभार व्यक्त करता हूँ और क्षमा-याचना भी, अगर कहीं कुछ अतिशयोक्ति हो गयी हो तो। उक्त विवेचना को कविता की कसौटी न समझा जाए। मैं ने अपने अल्प ज्ञान से एक महान कविता को देखने की कोशिश भर की है। मैं आदरणीय पाठक वृन्द से भी निवेदन करता हूँ कि आप अपने विचारों से आचार्य राय की इस कविता के प्रति मेरे दृष्टिकोण को विस्तार दे सकें तो मैं आप सब का आभारी रहूँगा। धन्यवाद। पूरी कविता पढने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये !

21 टिप्‍पणियां:

  1. "ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे !
    yah pankti hamesha jehan me hoti hai...bahut achha laga sampoorn maun ko padhna

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  2. आचार्य परशुराम राय के बारे में जानकर अच्छा लगा!

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  3. बहुत अच्छी समीक्षा की है आपने।
    अब फिर से पूरी कविता पढने का मन कर गया। दुबारा आऊंगा तो समीक्षा के ऊपर कुछ कहूंगा।

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  4. उत्तम चर्चा। साहित्य के छात्रों के लिए भी उपयोगी।

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  5. कविता बहुत ही उत्कृष्ट है. भावप्रवण है, प्रवाहमान है, कर्णप्रिय है और.....इस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है. इस कविता में प्रसाद जी की रचनाऔं से अद्भुत साम्य है. दिल को छू लेने वाली कविता है यह.
    आपकी यह समीक्षा भी कविता के स्तर से कमतर नहीं है बल्कि इसने नए प्रतिमानों का सृजन करती है. आपने अर्थ की गहराई को स्पर्श समीक्षा को आयाम प्रदान किया है. इन पंक्तियों को ही लें-

    आदि पंक्तियों में यही स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह मुखर है। स्थूल अर्थात व्यक्त, वास्तविक और सूक्ष्म अर्थात , अव्यक्त, अदृश्य। यानी कि जीव और आत्मा। कवि कहता है कि "सुन्दरता के जल माध्यम को भेद....." स्थूल नेत्र तो सुन्दरता पर ही अटक जाते किन्तु कवि के सूक्ष्म नेत्र सुन्दरता जैसे मनोहारी आवरण को भी जल (एक पारभाषक) माध्यम की भांति भेद रहे हैं। यहाँ कवि आत्मा का सौन्दर्य व्यक्त कर रहा है।

    इस समीक्षा से कविता के अर्थ का प्रवेशद्वार खुला है. यह एक बेहतरीन समीक्षा है जिसमें आपकी प्रवीणता कुशलता और परिश्रम स्पष्ट झलकता है।

    आभार.

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  6. ऊपर की टिप्पणी में कुछ त्रुटियाँ छूट गई हैं. क्षमा करें. इन्हें इस प्रकार होना चाहिए था-

    बल्कि नए प्रतिमानों का सृजन करती है. आपने अर्थ की गहराई को स्पर्श करते हुए समीक्षा को आयाम प्रदान किया है. इन पंक्तियों को ही लें-

    असुविधा के लिए एक बार पुनः क्षमा चाहता हूँ.

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  7. कविता जहाँ भावपूर्ण और सौंदर्य से परिपूर्ण थी ....समीक्षा भी उतनी ही गहन ...पंक्ति दर पंक्ति की गयी समीक्षा ने कविता को नया गौरव प्रदान किया है...आभार

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  8. अहहः...आपकी विवेचना ने मन मोह लिया...बहुत सारगर्भित बातें कहीं हैं आपने...कविता समझना भी एक कला है और आप इसमें पारंगत हैं इसमें कोई संदेह नहीं...
    नीरज

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  9. आपका साहित्यि विवेचन सराहनीय है। बधाई स्वीकारें।

    …………..
    अंधेरे का राही...
    किस तरह अश्लील है कविता...

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  10. छायावादियों ने 'कला कला के लिए' के आधार पर काव्य रचना को प्रश्रय दिया|
    बहुत अच्छी समीक्षा।

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  11. Karan ji, Apane bahut hi gaveshanapurn samiksha ki hai. Ek hi kavita me vibhinna chhayavadi pravrittiyon khoj nikalana apaki adbhut pratibha ka parichayak hai. Kavita ke kone-kone ko apane apani samiksha me udbhashit kar dala. Shubhakamanayen.

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  12. आपका साहित्यि विवेचन सराहनीय है। बधाई स्वीकारें।

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  13. बहुत अच्छी समीक्षा की है आपने।

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  14. अति सुन्दर रचना व सुन्दर विवेचना।

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  15. बहुत अच्छी लगी यह समीक्शा.

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  16. मुझे याद है करण जी कि मैंने वह कविता पढकर निम्नलिखत टिप्पणी दी थीः
    .
    आचार्य जी, इस पर कुछ भी कहना दुःसाहस होगा. अब तो प्रतीक्षा रहेगी, विस्मृत हो चुके छायावाद की आँच पर करण जी की लेखनी से पगी, महुए की सुगंध से माती हुई, एक नूतन रचना का...

    इस उपवन में पदार्पण करना एक तीर्थ का अनुभव प्रदान करता है.
    आभार मनोज जी का भी.
    .
    आज मेरी तीर्थ यात्रा पूर्ण हुई...और दृढ हुआ मेरा विश्वास आचार्य जी और करण जी दोनों के प्रति...

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